जंगली ख्वाहिश
राजन शुक्ला
एक तो जून माह की झुलसा देने वाली तपिश और ऊपर से शिकार को झपट कर दबोच लेने की जंगली ख्वाहिश।
अपनी हथेलियों में उभर आये पसीने को जगन ने अपनी पैंट से रगड़ कर पौंछा।
उसकी दायीं हथेली को पैंट की दायीं जेब में रखे नौ इंची फल वाले चाकू का अहसास हुआ।
जगन के मुंह से गहरी, मगर धीमी आवाज में सांस–सी निकली।
उसकी आंखों ने सतर्क भाव से चारों ओर देखा।
कॉरीडोर सूना पड़ा था।
शारदा रोड पर मौजूद जहांआरा अपार्टमेंट्स के ग्राउंड फ्लोर पर बने अपार्टमेंट नम्बर दस में रहता था जगन का शिकार—मोहन लाल बग्गड़, और उस वक्त जगन अपनी मंजिल से कुछ ही दूरी पर था।
कुछ कदम की यह दूरी भी जल्दी ही मिट जाने वाली थी।
आगे बढ़ते हुए जगन ने एक बार फिर अपनी चैकन्नी नजर इधर–उधर डाली।
कोई नहीं था।
जहांजारा अपार्टमेंट्स में रहने वाले सभी व्यक्ति प्राय: बिजनेसमैन थे और वे इस वक्त अपने–अपने एयर कंडीशन कमरों में दुबके पड़े थे।
उस वक्त रात के ग्यारह बजने वाले थे।
फैली हल्की रोशनी में जगन ने बराबर वाले दरवाजे पर नजर डाली।
वह अपार्टमेंट नम्बर आठ था।
बस! कुछ कदम और चलना था जगन को।
चोरी करने की कोशिश के जुर्म में पकड़ा गया जगन परसों ही जेल से छूटा था और कल ही उसने एडवोकेट मोहन लाल बग्गड़ के उस ठिकाने की पूरी जानकारी हासिल कर ली थी।
वह एडवोकेट मोहन लाल बग्गड़ ही था, जिसने भरी अदालत में उसे जलील किया था और उसे सख्त से सख्त सजा दिलाने के लिए धुआंधार जिरह की थी।
उसे सजा हुई।
सजा तो उसे हर में हाल होनी ही थी। आखिर वह नगर के प्रसिद्ध रईस, मेहरा शिपिंग कम्पनी के मालिक, जगजीत सिंह मेहरा की एक एकड़ जमीन में फैले मेहरा हाऊस में चोरी करने की कोशिश करते हुए पकड़ा गया था।
बुरा हो उस शैम्पेन की बोतल का, जो जगन को उस वक्त कोठी में घुसते ही एक कमरे में रखी हुई नजर आ गई थी। बेचारा जगन, उस वक्त खुद की ख्वाहिश पर काबू नहीं रख सका और गटागट आधी बोतल हलक में उतार गया।
नतीजा?
जगन तिजोरी वाले कमरे का रास्ता भूलकर उस कमरे में चला गया, जिसमें कोठी का पचास साल का अधेड़ पहलवान नौकर कोठी में नवी–नवी आयी चैदह साल की नौकरानी बसंती को घर के कामकाज के अलावा जिस्म के इस्तेमाल करने के कुछ नये और रोचक पाठ पढ़ा रहा था।
इतने पर ही बस हो जाता तो गनीमत थी।
हुआ ये कि जगन को अचानक कमरे में आया देखकर वे दोनों बुरी तरह चिहुंक गए। अगर जगन चाहता, तो उसी पल वहां से भागकर अपनी जान बचा सकता था, मगर उसने तो उस शानदार नजारे को देखकर वहीं खड़े–खड़े ठहाके लगाने शुरू कर दिए।
उसे यूं हंसता देख उन दोनों ने संभलकर जोर–जोर से चीखना शुरू कर दिया और पल भर में जगन ढेर सारे नौकरों से घिर गया।
एडवोकेट मोहन लाल बग्गड़ दरअसल मेहरा शिपिंग कम्पनी का वेतन भोगी कर्मचारी था। सो उसे जगन के खिलाफ मुकदमा लड़ना ही था।
इस तमाम कहानी में जगन को शिकायत थी, तो इसनी कि एडवोकेट मोहन लाल बग्गड़ ने जोश में आकर भरी अदालत में जगन के खून को ना सिर्फ गन्दा कहा, बल्कि उसकी मां को आवारा और बाप के ना मालूम होने तक की घोषणा कर डाली।
बेशक उस वक्त जगन खून का घूंट पीकर रह गया था, मगर उसने मन–ही–मन कसम खायी थी कि जेल से छूटते ही वह मोहन लाल बग्गड़ के इस झूठ को सच साबित करके दिखायेगा।
मोहन लाल बग्गड़ का कत्ल करने से पहले वह उसकी खौफजदा आंखों में गहरायी तक झांककर देखेगा और फिर उसे बतायेगा कि उसे जैसे सभ्य और सफेदपोशों के तानों से सहमकर कितने ही मासूम बच्चे और नौजवान सचमुच के मुजरिम बन जाते हैं।
यूं देखा जाये तो बेचारे जगन की किस्मत सचमुच खराब थी। खराब ना होती तो छब्बीस–सत्ताईस साल के गबरु–खूबसूरत जवान जगन का आज पुलिस में अपराधिक रिकार्ड न होता और छ: साल पहले वह अपने सीधे–साधे मां–बाप को भूकम्प में न गवां देता। अर्थशास्त्र् और राजनीति शास्त्र् में डबल एम०ए० करने के बाद वह आज यूं अपनी पैंट में रामपुरी चाकू छिपाये किसी का कत्ल करने ना जा रहा होता।
चाकू की याद आते ही जगन का हाथ अपनी पैंट की दाहिनी जेब में रेंग गया।
उसकी अंगुलियों ने बन्द चाकू की मूठ को कसकर पकड़ लिया।
दबे पांव वह अपार्टमेंट नम्बर दस के दरवाजे के आगे पहुंच गया।
भीतर घुसने के लिये उसे दरवाजे में लगे ऑटोमैटिक लॉक को खोलना था, जो कि उसके लिये मामूली खेल था।
बड़ी से बड़ी और मजबूत से मजबूत अलमारियों तथा तिजोरियों के पेचीदा तालों को वह चुटकियों में खोल सकता था। ताले खोलने और तोड़ने की यह कला उसने मशहूर ताला–तोड़ उस्ताद भोला भाई से सीखी थी।
जगन ने अपनी कमीज की भीतरी जेब से मास्टर की निकाली। फिलहाल उस छोटे से ताले में लिये वही काफी थी।
उसने ताले के सुराख में मास्टर की डाली थी कि वह ठिठक गया।
दरवाजा शायद पहले से ही खुला हुआ था।
जगन ने दरवाजे को हौले–से धक्का दिया।
दरवाजा खुल गया।
जगन के होठों पर एक कुटिल मुस्कान उभरी।
मौत हमेशा अपना रास्ता खुद चुन लेती है। और उसे किसी हद तक आसान भी बना देती है।
दबे पांव जगन भीतर घुसा और उसने बिना आवाज किये दरवाजा बन्द भी कर दिया।
भीतर सब कुछ शान्त था।
अपार्टमेंट में अकेला रहने वाला एडवोकेट मोहन लाल बग्गड़ शान्त रहने के सिवा और कर भी क्या सकता था।
आगे कदम बढ़ाने से पहले जगन ने अपनी पैंट की जेब से चाकू निकाला और उसे धीरे–धीरे खोल भी लिया।
सब ठीक था।
उस चाकू की मदद से जगन अपनी हिफाजत भी कर सकता था।
चाकू की मूठ को सख्ती से पकड़े जगन चैकन्नी चाल से आगे बढ़ा।
एयर कंडीशनर की ठण्डी हवा जगन के जिस्म के पसीने को तेजी से सोख रही थी।
बराबर के कमरे से झांकती नाइट–बल्ब की रोशनी का सहारा लेता जगन उस कमरे की ओर बढ़ा।
कमरे में घुसते ही उसकी नजर मोहन लाला बग्गड़ पर पड़ी।
वह करवट लिये सो रहा था।
उसका चेहरा ठीक जगन की ओर था।
जगन दबे और सधे पांव से फिर आगे बढ़ा।
वह उसे सम्भलने का मौका दिये बिना उछलकर दबोच लेना चाहता था।
सहसा जगन ने आगे बढ़ते पांव ठिठक गए।
उसने नाईट बल्ब की रोशनी में मोहन लाल बग्गड़ को घूरकर देखा।
मोहन लाल बग्गड़ मर चुका था। उसकी आंखें फटी हुई थीं।
किसी ने पहले ही उसके ठीक दिल के ऊपर बर्फ तोड़ने वाले सूए से वार किया था और उसे मूठ तक भीतर पैवस्त कर दिया था।
मोहन लाल बग्गड़ की लाश को देखते ही जगन बर्फ का बुत बनकर रह गया।
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