इंसाफ की तलवार
सुनील प्रभाकर
सब इंस्पेक्टर सुखीराम ने आसपास सतर्क दृष्टि डाली, फिर सामने के पी. सी. ओ. में घुस गया।
भीतर बैठे लड़के को उसने इशारे से बाहर आने को कहा।
लड़का समझदार था वह कम्प्यूटर ऑन करके शीशे के केबिन से बाहर निकल गया।
सब-इंस्पेक्टर सुखीराम ने फौरन कोई नंबर मिलाया और बैल जाते ही प्रतीक्षारत हो गया।
फोन रिसीव हुआ।
मैं सब-इंस्पेक्टर सुखीराम बोल रहा हूँ। जल्दी से ढोके साहब से बात “कराइये।”
“ढ.....ढोके…..! तू होश में तो है? तमीज से नाम ले बॉस का।”
“आई एम सॉरी…..! मैं ज़रा जल्दी में था। प्लीज़ रत्नाकर ढोके साहब से बात कराइये।”
“काम बोल…..!”
“उन्हीं को बताऊँगा।”
“ल…..लेकिन…..!”
“प्लीज़…..! बहुत जरूरी है और अगर आपने फौरन मेरी बात ढोके साहब से न कराई तो…..तो…..तो उनका बड़ा ही जबरदस्त नुकसान हो जाएगा।”
“ये बात…..!”
“बिल्कुल!”
“ले फिर बात कर ढोके साहब से।”
हल्की-सी यांत्रिक खड़खड़ाहट और फिर एक फटे बांस जैसा स्वर उभरा—”क्या बात है इंस्पेक्टर…..? असमय क्यों फ़ोन किया?”
“गजब हो गया ढोके साहब…..! आपके माल का भरा एक ट्रक पकड़ा गया।”
“क्या बकता है? मेरा कोई माल-वाल नहीं पकड़ा गया।”
“मजाक मत कीजिए ढोके साहब! मादक द्रव्यों से भरा आपका ट्रक जोकि गेहूं की बोरियां में छुपा हुआ था स्वयं ए. सी. पी. चक्रधारी ने पकड़ा है और उसे लेकर सीधे हैडक्वार्टर गए हैं और ट्रक को एक गोदाम में बंद कर दिया है।”
“मादक द्रव्य…..गोदाम…..! ओह….. आगे…..!”
“संयोग अच्छा है कि मुझे इंस्पेक्टर का चार्ज मिला हुआ था और उस गोदाम की चाबी मेरे पास है।”
“ओह…..बको…..आगे!”
“आगे क्या ढोके साहब…..! लाखों का माल होगा—आप चाहें तो थोड़ा-सा माल छोड़कर बाकी माल हम गायब कर सकते हैं। कम-से-कम आप नुकसान से तो बच जाएंगे। उसके बाद वही होगा, जो आमतौर पर होता आया है। आपका ड्राइवर सारी जिम्मेदारी अपने सिर पर लेकर जेल चला जाएगा। उसके बाद शुरू होंगे कानूनी दांव-पेंच—ड्राइवर बच गया तो ठीक—बचेगा ही—नहीं बचा तो कोई चिंता नहीं—उसका परिवार ऐश करेगा।”
“तेरा सुर तो समझ में आया—किन्तु—किन्तु ये काम हो जाएगा ना? वहां सख्त पहरा होगा।”
“बेशक ऐसा है। किन्तु अभी इस कामयाबी की खबर आम नहीं हो पाई है—और अधिकारियों को स्पेशल दौरे पर जाना पड़ा है इसलिए रातों-रात काम हो सकता है।”
“इसका मतलब यह है कि योजना तूने बना ली है?”
“हां!”
“वेरी गुड.....! योजना बता।”
सब-इंस्पेक्टर सुखीराम ने योजना बताई।
“वैरी.....वैरी.....गुड! अरे वाह सुखीराम....! तुझे इंस्पेक्टर का चार्ज क्या मिला, तेरी बुद्धि सरपट दौड़ने लगी।”
“श.....शुक्रिया ढोके साहब....!”
“मिलेगा—तेरा इनाम तुझे मिलेगा। भरपूर इनाम मिलेगा। हाथों हाथ मिलेगा।”
“स.....सच ढोके साहब.....?”
“बिल्कुल सच.....! अपनी खोपड़ी की कसम....!”
“शुक्रिया—तो फिर सुनिए आपको क्या करना है?”
“सुना.....!”
सुखीराम सुनाता चला गया।
दूसरी ओर से रत्नाकर ढोके सुनता रहा।
तदुपरांत!
“हमारे आदमी वक्त पर पहुंच जाएंगे। तू सारी व्यवस्था करके रखना।”
“जो आज्ञा!”
फिर सम्बन्ध विच्छेद करके सुखीराम बाहर निकल गया था।
¶¶
सब-इंस्पेक्टर सुखीराम बाथरूम की ओर बढा ही था कि उसकी पत्नी दीपा सामने आ खड़ी हुई।
“अरे.....! उठ गए आप.....! इतनी जल्दी.....!”
“क्या कहती हो दीपा डार्लिंग.....! सुबह सवेरे उठने की मेरी रोज आदत है।”
“वह तो है—किन्तु आपको सो लेना चाहिए था। आप देर से घर आए और फिर देर रात तक मुझे सताते रहे।”
“युवा पति अपनी युवा पत्नी को सताता ही है। पुरानी परंपरा है और वह परंपरा रात को ही निभाने का नियम पूर्वजों ने बनाया है।”
“म.....मेरा मतलब आप से बहस करना नहीं था।”
“तो फिर?”
“आपकी नींद पूरी नहीं हुई इसलिए.....!” दीपा झेंपी हुई बोली थी—”इसलिए मैं कह रही हूं। दिनभर की भागदौड़—पुलिस की नौकरी होती ही ऐसी है कि.....!”
“अमां काहे की भागदौड़.....!” सब इंस्पेक्टर सुखीराम ने सीना फुलाया था—“इस समय हमारे एस. ओ. लोहा सिंह छुट्टी पर हैं—इसलिए उनका चार्ज मुझे ही मिला हुआ है इस समय मैं ही एस. ओ. हूं।”
“इसीलिए तो मैंने कहा है—इसीलिए आपको डिस्टर्ब नहीं किया कि आपकी नींद पूरी हो जाए। जबकि मुझे क्या मैं तो दोपहर को सो लूंगी।”
“तुम ही इतनी तकदीर वाली नहीं हो जानेमन! मैं भी तकदीर वाला हूं।”
“क.....क्या मतलब?”
“मतलब यह कि चार्ज मिलने से मेरी जिम्मेदारियां बढ़ी नहीं हैं वरन् केवल हुक्मत तक सीमित हो गई हैं। पहले बड़े साहब मुझे दौड़ाते रहते थे। चूंकि अब बड़ा साहब मैं ही हूं इसलिए सबको ड्यूटी पर भेजने के बाद ऑफिस में सोता रहता हूं।”
“अच्छा.....!”
“हां और किसी भी साले पुलिसवाले में हिम्मत नहीं कि वह मुझे डिस्टर्ब करे।”
“ल.....लेकिन.....!”
“सुनती जाओ बोलो मत.....! एस. ओ. का चार्ज पाने के बाद मैंने जाना कि सरकारी कर्मचारियों में से कुछ धुरंधर कर्मचारी ऑफिस में क्यों ऊंघा करते हैं और उनका काम 'पेंडिंग ड्राअर' मैं पड़ा रहता है और जनता चक्कर पर चक्कर काटती रहती है।”
“स.....सुखीराम जी.....!”
“वास्तव में ऑफिस में सोने का अपना अलग ही मजा होता है। ठीक उसी प्रकार जैसे बस में बैठे-बैठे सोने वालों का अपना अलग ही मजा होता है। उधर ड्राइवर ने बस गियर में डाली नहीं कि लगे ऊंघने। जिस प्रकार सोते-सोते सफर कब बीत गया—इसका पता नहीं चलता उसी प्रकार सोते-सोते कब ऑफिस का टाइम बीत गया मुझे पता नहीं चलता। जागने पर जब संतरी को ठंडे पानी का जग व चाय लाने को कहता हूं तो ऐसा लगता है कि मैं सरकार का नौकर नहीं वरन् सरकार हमारी नौकर है। यानि की तनख्वाह की तनख्वाह और नींद की नींद.....! उल्टे जो कुछ कमाई होती है उसका एक हिस्सा वे लोग अपने आप मेरी जेब में डाल देते हैं।”
“समझी.....! तभी आप इन दिनों मुर्ग-मुसल्लम पर अधिक तवज्जो दे रहे हैं।”
“ठीक समझी.....! इस खर्च के बाद भी चार-पांच सौ रुपये आसानी से बच जाते हैं।”
“य.....यानी कि रिश्वत.....?”
“यह तो सुविधा शुल्क है जो कि एस. ओ. साहब की बेवकूफी के कारण उनकी मौजूदगी में हमें नहीं मिलता है। मिलता भी है तो बहुत ही आंख बचाकर काम करना पड़ता है।”
“इसका मतलब यह है कि आपके बड़े साहब रिश्वत नहीं लेते?”
“तुम रिश्वत की बात करती हो? एक कप चाय की भी कोई ऑफर कर दे तो जनाब यूं बिदकते हैं जैसे छतरी को देखकर भैंस।”
“ओह.....!”
“वे भी मुफ्त में पब्लिक को सुविधाएं देते हैं—इसलिए वह मूर्ख समझे जाते हैं जबकि छोटी मोटी सुविधाओं के बदले हम ठीक उसी प्रकार थोड़ी-सी फीस वसूल लेते हैं जैसे कि शिक्षा के बदले स्कूली बच्चों से वसूल की जाती है, तो भला क्या गुनाह करते हैं?”
“आप.....आप.....!”
“इसलिए मैं इसे रिश्वत नहीं सुविधा शुल्क कहता हूं। आज शनिवार है—शाम को तैयार रहना। आज अच्छी कमाई होगी। हजारों रुपए के वारे-न्यारे होंगे। तैयार रहना। शाम को मैं तुम्हें पिक्चर दिखाने भी ले चलूंगा और एक नई साड़ी भी दिलाऊंगा।”
“नहीं चाहिए ऐसे पैसे की साड़ी.....!”
“अरे भई.....! मैं जबरन नहीं वसूलता—कोई अन्याय नहीं करता। पब्लिक स्वयं अपनी सुविधा के लिए दे जाती है तो मैं क्या कर सकता हूं? इसमें कौन सा पाप हो गया भला?”
“.....!”
“तुम शाम को तैयार रहना। मैं आऊंगा। बढ़िया रोमांटिक फिल्म देखेंगे और वहीं ऐश भी करेंगे।” कहने के साथ ही सुखीराम हंसा।
बायीं आंख दबाकर।
दीपा ने हंसने की कोशिश की—किन्तु वह हंस न सकी।
केवल वह मुस्कुरा कर रह गई।
कारण यह कि न जाने क्यों जीवन में पहली बार उसे अपने पति की बात बुरी लगी थी।
तभी सुखीराम निकट आया।
उसने दीपा के दोनों गाल थपथपाये और फिर बाथरूम की ओर बढ़ गया।
दीपा उसे जाता देखती रही।
अपलक.....!
वह.....वह सुखीराम से कुछ कहना चाहती थी किन्तु वह कैसे कहे? उसे सूझ ही नहीं रहा था।
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