जिप्सी
“जरा देखो इन कम्बखतों को!”
ट्रक ड्राइवर—भारतीय नौसेना का रिटायर सेलर गगन दीप चैधरी—ने अपनी चौड़ी कमर ड्राइविंग सीट पर टिकाई और सामने सड़क पर आगे बढ़ रहे जिप्सियों के झुण्ड पर निगाह डाली।
वाया दिल्ली यहाँ होंनावर, और आगे गोवा जाते जिप्सियों का ये कोई सौ लोगों का समूह था जो यूरोप में रोमानिया से चलकर भारत पहुंचा था। आगे दिल्ली में एक समारोह—जिसमें भारत सरकार की एक्सटर्नल अफेयर्स मिनिस्टर ने बजाते खुद अपनी दमदार हाजिरी लगाई थी—में इस समूह की वो शिरकत बनी थी जहां मंत्री साहिबा ने पेंटर पाब्लो पिकासो, एक्टर चार्ली चैपलिन, संगीतकार एल्विस प्रेस्ली, हॉलीवुड आइकॉन माइकल कीने और टेनिस स्टार एली नस्तासे जैसे प्रोमिनेंट और दमदार रोमा शख्सियतों का जिक्र करते हुए इन्हें भारत के ‘धरती पुत्र’ के नाम से पुकार, इनकी गुजरी तारीख के हवाले से इनकी खूब इज्जत अफजाई की थी। अपने भारत–भ्रमण के इसी सिलसिले में अब दिल्ली से निकला ये रोमा—उर्फ जिप्सियों—का ग्रुप अब गोवा कार्निवल का हिस्सा बनने वहाँ जा रहा था।
“यूँ तो आदम की औलाद आदतन ही खानाबदोश है”— गगन गुर्राया—“लेकिन खानाबदोशी अगर इसको कहते हैं तो तौबा भली।”
“क्या हुआ उस्ताद?” अपने उस्ताद के बगल वाली सीट कब्जाए और उस ट्रक पर पिछले साल भर से क्लीनर की ड्यूटी भुगत रहे एक नई उम्र के लड़के ने उत्सुकता से पूछा।
“इन्हें देख, ये सभी आदमजात का कल हैं”—गगन ने ट्रक के आगे चलते गाते, गिटार बजाते, शोर मचाते और हवा में उछलते–कूदते जिप्सियों की ओर इशारा किया और बोला—“नशेबाज जो नशे की एक खुराक के लिए किसी का कत्ल करने को अमादा हो जाएँ।”
“कुछ कहो उस्ताद लेकिन चमड़ी तो गोरी है इनकी”— क्लीनर खिलखिलाया और फिर अपना सिर खिड़की से बाहर निकाल आगे चल रहे जिप्सियों को पुकारते हुए उन्हें हाथ हिलाकर सड़क खाली करने का इशारा करने लगा।
“बात तो तेरी सही है”—गगन ने ट्रक का हॉर्न बजाया और सपाट स्वर में बोला—“हम इस बदनसीब दौर के उस मुआशरे का हिस्सा हैं जहां हुस्न का मयार गोरा रंग और अक्ल का मयार अंग्रेजी जुबान है।”
क्लीनर—जिसे बात समझ में न आई—ने फिर भी सिर हिलाकर हामी भरी।
बहरहाल—हॉर्न के नतीजे में आगे चलता समूह तत्काल दो हिस्सों में बंटा और यूँ उसने अपने पीछे आते ट्रक के लिए रास्ता बनाया। लेकिन उस पूरी प्रक्रिया में भी जिप्सियों के हल्ला–गुल्ले, ढोल–बाजे, और तमाम शोर–शराबे में कोई कमी न हुई।
“हटो”—क्लीनर ने हवा में हाथ हिलाना बदस्तूर जारी रखा और लगातार चिल्लाता रहा—“रास्ता छोड़ो।”
ट्रक धीमी गति से आगे बढ़ता रहा।
“गोवा कार्निवल अभी भी एक हफ्ता दूर है लेकिन इनका जोश देखो!” गगन ने एक बार फिर—इस बार कदरन जरा ज्यादा देर तक—हॉर्न बजाते हुए कहा।
रोमा जिप्सियों के उस ग्रुप में सबसे पीछे चल रहीं तीन बाली उम्र की लड़कियों ने ट्रक ड्राइवर की उस बेसब्री का तत्काल नोटिस लिया और नतीजे में ट्रक के आगे से हटने के बजाय—अब जान बूझकर—ट्रक के सामने आईं और अपनी बत्तीसी दिखा अपने दायें हाथ की बीच वाली उंगली गगन की दिशा में उठा दी।
गगन झल्लाया।
फिर भड़का।
“शुक्र है कि मेरी कोई औलाद नहीं”—वो गुर्राया—“लेकिन अगर होती, और इनके जैसे होती तो मैंने अपने हाथों से उसका गला घोंट देना था।”
“उस्ताद...”—चेले ने दार्शनिक अंदाज में फूंक ली—“ये पूरी पीढ़ी ही खराब है।”
“जैसे कि तू खुद तो पिछली शताब्दी में हुआ था।”
“क्या उस्ताद!”—चेला—जो अपने उस्ताद से किसी वाह–वाही की उम्मीद बांधे था—बड़बड़ाया।
“कुछ नहीं”—उस्ताद ने स्टीयरिंग व्हील पर एक धौल जमाई और सामने शोर मचाते पूरी सड़क घेरे चलते समूह की ओर इशारा करते हुए बोला—“ये ऐसे नहीं हटने वाले।”
“तो क्या करें?”
बदले में उस्ताद ने कोई जवाब तो न दिया लेकिन फिर ट्रक की गति धीमी कर ली और उसे सड़क की साइड में ला खड़ा किया।
“पहले इन्हें जा लेने देते हैं”—उस्ताद ने चाबी घुमाकर इंजन बंद किया और घोषणा की—“दुर्घटना से देर भली।”
चेले ने फौरन हाँ में सिर हिला हामी भरी।
गगन ने खुद को अपनी सीट पर पुनर्व्यवस्थित किया, एक गहरी सांस ली और ट्रक के डेशबोर्ड पर कहीं हाथ डालकर ‘चारमीनार’ का एक मुड़ा–तुड़ा पैकेट बरामद किया।
चेले की आँखें तत्काल उम्मीद से प्रकाशित हुईं।
आखिर वो खुद भी सिगरेट पीने का शौकीन था लेकिन अपनी मौजूदा मामूली कमाई में ये शौक करना अफोर्ड नहीं कर सकता था।
“हूँ”— गगन ने उसकी आँखों का मंतव्य समझा और यूँ पैकेट में से दो सिगरेट निकाले।
“शुक्रिया उस्ताद”— चेला खुश होते हुए मचला।
गगन ने दोनों सिगरेट सुलगाईं, फिर एक चेले को थमा दूसरी अपने होंठों के बीच दबा ली।
चेले ने अपने उस्ताद से सीखी इस कला को दोहराया और सिगरेट का धुंआ भीतर निगला। तत्काल उसके चेहरे पर संतुष्टि के गहरे भाव उभरे।
“वाह”—उसके मुंह से निकला।
“सुधर जा”—गगन ने आगे बढ़कर उसके सिर पर एक धौल जमाई और बोला—“ये बुरी आदत है।”
“बुराई का भी अपना मजा है उस्ताद।”
“ये ऐसा मजा है जिसमें आगे सजा है।”
“आगे किसने देखा है उस्ताद”—चेला कुत्सित अंदाज में मुस्कुराया—“हम तो आज में जीते हैं।”
“बातें खूब बनाने लगा है”—गगन बोला—“अपने उस्ताद के कान काटने लगा है।”
“अरे नहीं उस्ताद”—चेले ने तत्काल स्वर बदला—“ऐसा नहीं है।”
“मुझे उस्ताद मानता है?”—गगन ने सिगरेट का कश खींचा और धुंआ खिड़की के बाहर उगलते हुए पूछा।
“बिलकुल उस्ताद।”
“तो कहा मान।”
“कैसा कहा उस्ताद?”
“कि इस अलामत से पीछा छुड़ा।”
“कौन–सी अलामत उस्ताद जी?”— चेले ने मासूमियत से पूछा।
जवाब देने के बजाय गगन ने आगे बढ़कर उसके सिर पर एक और चपत लगाई।
“सुधर जा।”
चेला खींसे निपोर कर हंसने लगा।
“जी उस्ताद”—प्रत्यक्षत: वो बोला।
कुछ पल यूँ ही बीते।
गगन अपने पीछे की जिन्दगी को याद करने लगा।
“तू जानता है मैंने तुझे नौकरी पर क्यूँ रखा?”—कुछ मिनटों बाद गगन ने चेले से पूछा।
“क्यूँ उस्ताद?”—चेले ने कश खींचा और पूछा।
“इसलिए कि तूने अपने बाप को फौजी बताया था।”—गगन बोला—“मैं खुद भी फौजी रहा हूँ इसलिए जानता हूँ कि उस नौकरी में गुजार कैसे होता है।”
“कैसे होता है उस्ताद?”
“तुझे नहीं पता”—गगन सरल स्वर में बोला—“तू समझ भी नहीं सकता।”
“अरे—आप समझाओ न उस्ताद।” चेला बोला—“अगर आप समझाओगे तो क्यूँ नहीं समझूंगा?”
“जाने दे मेरे भाई”—गगन जो भारतीय नौसेना में एक सेलर के तौर पर भारत सरकार के कई मिशन में हिस्सा ले चुका था—ने अपने पुराने दिनों को याद किया और बोला—“तेरा बाप एक फौजी था सो इस निगाह से मेरे दिल में तेरे लिए एक हमदर्दी थी।”
“आप एक फौजी थे उस्ताद”—चेले ने सरल स्वर में कहा और फिर पूछा—“लेकिन आपने अपने फौजी दिनों का कोई किस्सा कभी नहीं बताया?”
“कैसा किस्सा?”
“कोई भी। उन फौजी दिनों का।”
“मसलन?”
“मसलन यही कि फौज में आपके दिन कैसे गुजरे?”
“जैसे सबके।”
“वहाँ से निकलकर अब आप खुश हो?”
“हाँ...शायद”—गगन ने कुछ पल सोचा और फिर बोला।
“हिचकिचाते हुए जवाब दिया उस्ताद”—लड़के ने फौरन वो बात पकड़ी।
“नहीं तो।”
“अब है तो ऐसा ही लेकिन”—चेले ने बात बदली—“अगर आप नहीं मानते तो जाने दो।”
“शायद तू ठीक बोल रहा है”—गगन ने स्वर बदला और फिर उसी बदले अंदाज में बोला—“ये नौसेना की नौकरी भी अजीब होती है कि जब तक इन सर्विस होते हैं एक–एक दिन भारी गुजरता है, हर रोज सुबह उठकर किस्मत को कोसते हैं लेकिन फिर जब रिटायर हो जाते हैं—या कर दिए जाते हैं—तो सब बदल जाता है।”
“कैसे उस्ताद?”
“बाहर निकलकर यकायक अकेलापन महसूस होने लगता है”—गगन ने बताया—“आपको अपने गुजरे दिन याद आते हैं, अपनी गुजरी कद्र याद आती है और फिर दिल करता है कि काश पिछले दिन लौट आयें।”
“आपको भी ऐसा लगा था उस्ताद?”
“हाँ—वो अकेलापन, वो खालीपन अपने रिटायरमेंट के शुरूआती दिनों में मुझे भी काटता था”—गगन ने अपने फेफड़ों में धुआं भरा और नथुनों से बाहर निकाला—“लगता है काफी वक्त गुजर गया।”
“अच्छा उस्ताद”—चेले ने अपने जेहन में किसी मिलिट्री बैकग्राउंड वाली फिल्म का कोई सीन रिक्रिएट किया और उत्सुक स्वर में पूछा—“क्या लड़ाई इतनी ही बुरी होती है जितनी फिल्मों में दिखाई जाती है?”
गगन ने बेचैनी ने अपना पहलू बदला।
“वो लड़ाई तो फिर भी ठीक थी”—गगन ने बात बदली—“ये बोरियत उससे ज्यादा बुरी है।”
गगन का ध्यान अपने पिछले दिनों में फिर भटका। उसे धान के खेत, जंगल और हरे घास के खुले मैदान याद आये। उसे वो सब याद आया जिसे वो कतई याद करना नहीं चाहता था।
वो अब वहाँ उस जिन्दगी से आगे निकल आया था और पिछले एक साल से वो अपने मौजूदा मुकाम पर था।
वो ट्रक ड्राइवर था।
“उस्ताद!”—चेले ने जैसे उसके ख्यालों में दखल दिया।
“हूँ।”
“आपने कभी बताया नहीं कि आपने फौज की नौकरी छोड़ने के बाद ये ड्राइवरी क्यूँ पकड़ ली?”
“क्या मतलब?”
“मतलब––––अब तो आपको सरकार के सदके पेंशन मिलती होगी!”—लड़का बोला—“फिर ये नौकरी क्यूँ?”
“मेरे लाल—नौकरी हमेशा रिजक कमाने के लिए ही नहीं की जाती।”
“यानि?”— लड़के के चेहरे पर कई सवाल उभरे।
“नौकरी करने के पीछे कई वजहें हो सकती हैं”— गगन जोर देकर बोला—“होती हैं।”
“मसलन?”
“मसलन बाज़दफा नौकरी इसलिए भी की जाती है कि सुबह उठकर आदमजात को कोई हिल्ला, कोई काम तो हो।”
“कोई मकसद तो हो।”
“बिलकुल।”
“उस्ताद”—चेले ने सशंक निगाहों से अपने सीनियर को देखा और बोला—“यानि आपके पास मौका है कि आप बिना नौकरी करे अपना गुजारा चला सकते हो, लेकिन फिर भी नौकरी करते हो।”
“हाँ—तो?”
“यानि आप तो आदतन नौकर हो”—वो बोला।
“क्या मतलब?”— गगन एक पल के लिए चैंका।
“नौकर हो—इसीलिए, नौकरी करते हो”—चेले ने जैसे मतलब समझाने की कोशिश की—“जरूरत नहीं है, फिर भी करते हो, आदतन करते हो।”
“हाँ—तो?”
“तो उस्ताद”—लड़के ने दबी जुबां में हँसते हुए कहा—“आपने तुलसीदास की सलाह तो न मानी।”
“कैसी सलाह?”
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