गुण्डों का मन्दिर
सुनील प्रभाकर
“तुमने अपनी जान पर खेलकर डाकुओं के पूरे गैंग का सफाया किया है इंस्पेक्टर दुर्गा ठाकुर। तुम्हारे इस कारनामे से खुश होकर तुम्हें प्रमोशन दिया जा रहा है—तुम्हें विकास नगर के थाने का इन्चार्ज बनाकर भेजा जा रहा है।”
“थैंक्यू सर...।” फिल्म हीरोइन जैसी खूबसूरत लेडी सब-इंस्पेक्टर के चेहरे पर पहले जैसी ही गम्भीरता बनी रही।
चौंके पुलिस कमिश्नर साहब।
“क्या बात है इंस्पेक्टर? जब कोई सब-इंस्पेक्टर से इंस्पेक्टर या थानेदार बनता है तो मारे खुशी के फूलकर कुप्पा हो जाता है, परन्तु तुमने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की?”
“ऐसी कोई बात नहीं सर...।” दुर्गा ठाकुर के गुलाबी होठों पर फीकी-सी मुस्कान उभरकर विलुप्त हो गयी—“मैं अपने प्रमोशन से खुश हूं...परन्तु...।”
“परन्तु...?” कमिश्नर साहब की आंखें सिकुड़ चलीं।
“मैं अपनी पोस्टिंग से खुश नहीं हूं सर।”
“यानि कि तुम विकास नगर पुलिस स्टेशन का चार्ज नहीं लेना चाहतीं?”
“य... यस, सर।” उसके उत्तर में झिझक थी।
“हूं...।” साहब ने टेबल के ड्राअर से सिगार केस निकालकर एक सिगार सुलगा लिया तथा फिर दुर्गा ठाकुर की गुलाबी डोरों वाली आंखों में झांकते हुए बोले—“किस क्षेत्र का चार्ज लेना चाहती हो तुम?”
“रामगढ़ का सर।”
कमिश्नर साहब के चौंकने का ढंग कुछ ऐसा था कि जैसे अचानक ही कुर्सी की गद्दी से सैकड़ों कीलें एक साथ उधर आई हों।
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“मु... मुझे जाने दो भैया...।” बुढ़िया गार्ड से छूटकर भीतर की तरफ बढ़ने की चेष्टा करते हुए गिड़गिड़ाई—“विश्वमोहन जी से मेरा अभी मिलना जरूरी है, करीम बख्श के गुण्डे मेरी बेटी को उठा ले गये हैं—यदि देर हो गयी तो मेरी बेटी का जीवन बर्बाद हो जाएगा...।”
“ये कोई पुलिस स्टेशन है क्या बढ़िया...?” खाकी वर्दी वाला गार्ड बुढ़िया को बाहर की तरफ धकियाते हुए गुर्राया—“तेरी बेटी को गुण्डे उठा ले गये हैं तो पुलिस स्टेशन में जाकर रिपोर्ट लिखवा—यहां क्या लेने आयी है?”
“मैं...मैं रिपोर्ट लिखवाने गयी थी भैया...।” बुढ़िया की रुलाई फूट चली—“प परन्तु मेरी रिपोर्ट नहीं लिखी गयी—मुझे जान से मारने की धमकी देकर भगा दिया गया—अब तो मुझ अभागिन की मदद एम०एल०ए० साहब ही कर सकते हैं—करीम बख्श उन्हीं का आदमी है—उनके कहने से करीम बख्श मेरी बेटी को छोड़ देगा—मुझ पर दया करो भैया...विश्वमोहन जी से मिलवा दो।”
“वह कोठी में नहीं हैं।”
“न—नहीं हैं...!” बुढ़िया निराश हो चली—“कहां गये हैं?”
“मुख्यमन्त्री जी से मिलने गये हैं—उनके मन्त्री बनने के चांसेज हैं—अब जा तू...एम०एल०ए० साहब लौटेंगे तो मैं उनसे बोल दूंगा।”
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“ये बाहर कैसा शोर हो रहा था मन बहादुर?”
“उस लौण्डिया की मां आयी थी साहब—आपके डैडी से मिलने की जिद कर रही थी।”
“हूं...क्या बोला तू उससे?”
“बोल दिया कि वह बाहर गये हुए हैं।”
“वैरी गुड...अब बाहर जा तू...।”
गार्ड बाहर चला गया।
पैग समाप्त करके उठा वह युवक।
लड़खड़ाते हुए कदमों से भीतर वाले कमरे में पहुंचा।
डबल बेड पर पन्द्रह-सोलह वर्ष की खूबसूरत लड़की लेटी हुई थी। उसके हाथ-पैर डोरी से जकड़े हुए थे तथा मुंह पर टेप चिपकी हुई थी।
अजीत की आंखों में ऐसी ही चमक उभरी...जैसी छप्पन भोग से सजी थाली को देखकर कई रोज के भूखे भिखारी की आंखों में उभर आती है।
होठों पर जीभ फेरते हुए वो बेड की तरफ किसी असगर की भांति धीरे-धीरे रेंगने लगा।
उसकी मंशा समझकर लड़की का चेहरा बर्फ की भांति सफेद पड़ता चला गया तथा आंखों में आतंक के कीड़े-से गिजगिजाने लगे। बुरी तरह छटपटाते हुए वह गूं...गूं...ऊं...ऊं...करने लगी।
वह भूखे शेर की भांति ही उस पर टूट पड़ा।
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“लगता है कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है दुर्गा ठाकुर...!” कमिश्नर साहब चकित भाव से लेडी इंस्पेक्टर को घूरते हुए बोले—“तभी तो तुम रामगढ़ में थानेदार बनकर जाना चाहती—तुम्हें पता है कि रामगढ़ की कितनी बुरी दशा है?”
“जानती हूं सर...।” बोली वह—“रामगढ़ में गुण्डागर्दी का बोलबाला है—वहां कानून नाम की कोई चीज बाकी ही नहीं बची है—पुलिस डिपार्टमेन्ट भी गुण्डों का साथ देता है—यदि कोई ईमानदार अफसर वहां जाता है तो—उसे अपना ट्रांसफर करवाकर भागना पड़ता है—यदि वह साहस से काम लेता है तो उसे जान से मार दिया जाता है, या ट्रांसफर करवा दिया जाता है।”
“फिर भी तुम वहां जाना चाहती हो?”
“यस सर!” दुर्गा ठाकुर के चेहरे पर पत्थर जैसी कठोरता विद्यमान थी—“रामगढ़ से मेरा बहुत गहरा रिश्ता है—आप तो जानते ही हैं कि रामगढ़ को इस गुण्डागर्दी ने कितने गहरे जख्म दिए हैं—मैंने किसी खास कारण से ही पुलिस की वर्दी पहनी थी—पांच वर्षों की मेहनत के बाद मैं थानेदार बनी हूं—अब मेरा मकसद पूरा हो सकता है—मैं आज जो कुछ भी हूं...आपकी बदौलत—मुझे ये वर्दी देने वाले आप ही हैं—मुझ पर आखfरी अहसान और कर दीजिए सर—मेरी पोस्टिंग रामगढ़ के थाने में कर दीजिए।”
“तुम शायद इन्तकाम की आग में सुलग रही हो दुर्गा ठाकुर।”
“नहीं सर...ऐसा नहीं है—मुझे इन्तकाम ही लेना होता तो ये वर्दी नहीं पहनती—मैं रामगढ़ में गुण्डों का राज खत्म करके कानून का शासन स्थापित करना चाहती हूं—आज रामगढ़ के निर्दोष लोग अत्याचार की चक्की में पिस रहे हैं—उधर गुण्डे उन पर मनचाहा जुल्म तोड़ते हैं—तो इधर पुलिस वाले भी कोई कसर नहीं छोड़ते—कोई भी उनका साथ नहीं देता। मैं उन सबको न्याय देना चाहती हूं सर।”
“ये इतना आसान नहीं है दुर्गा बेटी...।” कमिश्नर साहब भावुकतावश ये भूल गये कि वे ऑफिस में बैठे हुए थे—“वहां एक से एक खुर्राट थानेदार पहुंचे—वो इस पक्के इरादे के साथ गये थे कि सब कुछ ठीक कर डालेंगे, परन्तु मुंह की खानी पड़ी—हम तुम्हारे साहस व बुलंद इरादों की कद्र करते हैं—हमें तुम्हारी काबिलियत पर भी पूरा भरोसा है परन्तु तुम अकेली जान वहां जाकर क्या कर लोगी? तुम खतरों से घिर जाओगी—तुम्हारे साथ कुछ भी हो सकता है।”
“इसकी चिन्ता नहीं मुझे सर—मैं तो बहुत पहले मर जाना चाहती थी—आपने ही मुझे जीने पर विवश किया था—यदि मैं मर भी जाती हूं तो कोई बात नहीं—किसी जिन्दा लाश का क्या जीना—क्या मरना? इसी कारण से मैं रामगढ़ में जाना चाहती हूं सर कि यदि मैं अपने इरादों में सफल हो गयी तो इससे कानून का झुका हुआ सिर ऊंचा हो जाएगा—यदि आप मुझे रामगढ़ नहीं भेजेंगे तो मैं रिजाइन कर दूंगी और बिना वर्दी के ही रामगढ़ जाकर अपने मन की भड़ास निकाल दूंगी—अब मेरे सब्र का पैमाना छलकने लगा है सर।”
“ओ०के०।” कमिश्नर साहब ने हथियार डाल दिए—“तुम रामगढ़ में ही थानेदार बनकर जाओगी।”
“थैंक्यू सर।” दुर्गा ठाकुर का चेहरा खिल उठा।
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