एन्ट्रेप्ड
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19, मार्च
शाम के सात बज चुके थे और मैं अभी भी अपने दफ्तर में बैठा सिगरेट फूंकता अपने सेलफोन स्क्रीन पर लाइव टीवी का मज़ा ले रहा था।
हिन्दुस्तान में पिछले कुछ सालों में अगर कहीं कोई तरक्की हुई दिखती थी तो वो यकीनन टेलीकॉम सेक्टर था जिसकी फोर–जी तकनीक ने अब हमारे हाथों में—इन प्रेक्टिकल—पूरी दुनिया ला दी थी। मौजूदा नौजवान नस्ल के लिए इस संचार क्रांति के जेरेसाया महज़ पांच–छ इंच की स्क्रीन साइज़ पर दुनिया के किसी भी मुल्क के तकरीबन किसी भी चैनेल का लुत्फ़—मुफ्त—हासिल था।
बहरहाल आगे बढ़ने से पहले आपको याद दिला दूं कि आपसे मेरी पिछली मुलाक़ात सज्जन तापड़िया और उसकी अगवा हुई बेटी के सन्दर्भ में हुई थी। तब उस सिलसिले में मैं जेल से छूटकर आगे लैला तापड़िया के क़त्ल के केस में जा फंसा था जिससे फिर बड़ी मुश्किल से मेरी जान छूटी थी। आगे फिर उसी सिलसिले में सज्जन तापड़िया—बा–दौलत मगर अब बे–औलाद शख्स ने बाकायदा एक ट्रस्ट बना उसमें मेरी जो स्टैंडिंग पोजीशन पैदा कर दी थी उसके बूते मैं रोज़ी–रिज़क कमाने में खाए जाते धक्कों से आज़ाद था।
इस नई हासिल कैफियत में मैंने अपनी पिछली—जर्नलिस्ट की नौकरी में लौट कर किसी दूसरे की हुक्मबरदारी के साए में रहने के बजाय एक एन.जी.ओ. खोल लिया था जो ज़रूरतमंदों को कानूनी सलाह मुहैय्या कराने का प्लेटफार्म था। गुज़रे दिनों हुए अपने जाती तजुर्बे के बाद कर्टसी सीनियर तापड़िया अब मैं एक बाहैसियत शख्स था जिसे अपनी माली ज़रूरतों को पूरा करने के लिए किसी नौकरी के फेर में पड़ने की ज़रूरत न थी।
(पढ़िए सेकन्ड चान्स)
और चूंकि कोई ज़रूरत न थी, तो कोई नौकरी भी न थी।
नतीजतन मैं अक्सर दिन भर अपने इस नए हासिल एक्सोर्बिटेंट दफ्तर में अकेला बोर होता या तो थ्योरीटिकली मक्खियाँ मारा करता था या फिर अपने लैपटॉप या मोबाइल पर वक़्त बिताया करता था।
जैसे कि अब कर रहा था।
मेरी बीवी—तारा पैलोंजी—जिसे डिज़ाइनर और शोपीस सिरेमिक पॉटरी में खासा तजुर्बा था, अपने इसी शौक के मद्देनज़र एक एग्ज़ीबीशन का हिस्सा बन आजकल दुबई गई हुई थी और वहाँ से अभी और आगे, पहले क़तर, फिर रियाध और फिर आबू–धाबी, होकर वापिस लौटने वाली थी।
और यूँ मैं आजकल हर शाम घर लौटने की उस महती मजबूरी से मुकम्मल तौर से आज़ाद था जो यहाँ इस मुल्क के तकरीबन हर शादीशुदा मर्द का पहला और सबसे बड़ा फ़र्ज़ होता है। घर पर बीवी नहीं थी इसलिए घर जल्दी लौटने—या कहें लौटने की ही—कोई मजबूरी नहीं थीं। ऊपर से अपनी मौजूदा माली हैसियत से मैच करते मेरे दफ्तर में सुबह के ज़रूरी मसलों से फारिग होने की तमाम सुविधाएं थी जिसमें दो नग एडिशन मेरे दो जोड़ी कपड़े और हो गए थे। हाल ये था कि आजकल मैं शाम को घर लौटने के बजाय अक्सर किसी फूड–एप्प से डिनर आर्डर कर यहीं दफ्तर में ही एक ओवरसाइज़्ड सोफे पर पसर जाता था।
बहरहाल—आज मेरा इरादा घर लौटने का था।
और इस मकसद के तहत मैं जिस वक़्त अपने मोबाइल स्क्रीन पर दौड़ रहे टी.वी. प्रोग्राम के ख़त्म होने तक के इंतज़ार में था—मेरे लैंडलाइन फोन की घंटी बजी।
जो कि एक अनोखी बात थी।
अनोखी इसलिए कि घंटी मेरे मोबाइल पर नहीं बल्कि मेरे लैंडलाइन पर बजी थी।
मैंने अजीब–सी निगाहों से अपने ऑफिस टेबल पर रखे उस इंस्टूमेंट को देखा जिसका आविष्कार करके ग्राहम बेल तो निकल लिया लेकिन जाने से पहले—बाजरिया अपने इस खिलौने—हमें तमाम मुसीबतें दे गया।
“हेल्लो”—मैंने रिसीवर उठा उसे कान पर लगाते हुए कहा।
अगले कई पल मुझे दूसरी ओर से कोई आवाज़ सुनाई न दी लेकिन पीछे बैकग्राउंड में किसी हवाई जहाज़ के स्टार्ट होने का शोर ज़रूर गूंजता रहा। कुछ पलों के बाद वह शोर बंद हुआ—मानो कॉल करने वाले ने खुद को किसी केबिन में बंद किया हो।
“मिस्टर कैजाद?”—दूसरी ओर से किसी ने तस्दीक करनी चाही।
“जी हाँ।”
“आप एक एन.जी.ओ. चलाते हैं?”
“जी।”
“जो लोगों को कानूनी सलाह देने का काम करता है?”
“जी हाँ।”
“मिस्टर पैलोंजी”—आवाज़ आई—“मैं इस वक़्त एयरपोर्ट पर हूँ और अपनी फ्लाइट पकड़ने की जल्दी में हूँ।”
मैंने शांत रहकर मानो उसके उस फिकरे से सहमति प्रदान की।
“इसलिए मैं आपसे अगर सीधे मुद्दे की बात करूँ तो चलेगा?”
“जी बिलकुल चलेगा”—मैंने खुद को अपनी जगह पर दुरुस्त किया और बोला—“कहिये।”
“एक निजी मसला है।”
“मैं सुन रहा हूँ।”
“निजी है इसलिए उम्मीद करता हूँ कि इसे गुप्त रखा जाएगा।”
“आप निश्चिंत रहिये”—मैंने आश्वासन भरे स्वर में कहा—“हम अपने से जुड़े लोगों के पर्सनल मैटर्स को पूरी ज़िम्मेदारी से हैंडल करते हैं।”
“मैं...मैं”—आवाज़ आई—“एक सिलसिले में बात का कानूनी पक्ष जानना चाहता हूँ।”
“मामला क्या है?”
“मैं अपनी बीवी से”—हिचकते हुए आवाज़ आई—“तलाक़ चाहता हूँ।”
“क्यूँ?”
“क्यूंकि वो”—आवाज़ में फिर हिचकिचाहट उभरी—“ऐसी नाशुक्री है, बेवफा है, जिसके गैर मर्द से ताल्लुकात हैं।”
“आपका इशारा अवैध संबंधों की तरफ है।”
“जी हाँ।”
“हूँ”—मैंने कहा।
और सोचने लगा कि आजकल के इस दौर में कि जहां मियाँ–बीवी का रिश्ता उनके जिंसी ताल्लुकातों के अलावा, कई बार तकरीबन नॉन–एक्सिस्टेंट ही होता है—ऐसी कॉल आना कोई बड़ी बात नहीं थी।
“आपको ऐसा लगता है?”—मैंने सवाल किया।
“मैं समझा नहीं?”
“मेरा मतलब है कि आपको अपनी बीवी के बेवफा होने का महज़ शक है या फिर”—मैंने जोर देकर पूछा—“आपके पास कोई पुख्ता सबूत है?”
“जी...जी”—आवाज़ लड़खड़ाई—“सबूत तो नहीं है—लेकिन मुझे पक्का यकीन है।”
“आपके यकीन को अदालत में कोई नहीं मानेगा”—मैंने बेलाग कहा।
“जी...!” दूसरी ओर से हैरानी और निराशा भरा स्वर सुनाई दिया।
“जी।”
“फिर तलाक कैसे होगा?”
“आपके यकीन की बिना पर तो होने से रहा।”
“लेकिन?”
“देखिये मिस्टर”—मैंने उसकी बात काटी और बोला—“अदालतें अगर किसी खाविंद के शक्की मिजाज़ होने की बिना पर ही तलाक़ के फैसले परोसने लगें तो इस शहर में हर दूसरी शादी ख़त्म हो जाए।”
“फिर...!”
“फिर क्या?”
“फिर मैं क्या करू?”
“दो में से कोई एक काम कीजिये”—मैंने सपाट स्वर में कहा।
“क्या?”
“या तो अपने शक्की मिजाज़ का इलाज कीजिये”—मैंने पूर्ववत स्वर में कहा—“या फिर अपने शक को सही साबित करता कोई सबूत, अदालत में पेश किया जा सकने वाला कोई पुख्ता सबूत, पैदा कीजिये।”
“सबूत!”
“जिसे अदालत में, कानून की निगाहों में साबित किया जा सके।”
“सबूत!”
“जी हाँ—सबूत।”
“सबूत तो नहीं है”—सामने वाले ने दीन–हीन स्वर में कबूल किया और फिर बोला—“लेकिन मैं जानता हूँ कि मेरी बीवी के किसी गैर से सम्बन्ध हैं।”
“आप जानते हैं लेकिन आपकी इस जानकारी को अदालत नहीं मानेगी।”
दूसरी ओर खामोशी छा गई जो फिर आगे कई पल छाई रही।
“हेल्लो”—मुझे लगा कि फोन कॉल कट गई थी।
“मैं यहीं हूँ”—तत्काल आवाज़ आई और मेरा गुमान दूर हुआ।
“तो...?”
“तो इस मामले में आप मेरी मदद करें।” आवाज़ आई।
“कैसी मदद?”
“बकौल आपके वो सबूत—जिसे अदालत माने—आप हासिल करें।”
“मैं करूं!”—मैंने हैरानी से पूछा—“मैं कैसे करूं?”
“ये भी आप तय करें”—दृढ़ स्वर में आवाज़ आई—“बदले में मैं इस सिलसिले में आने वाला सारा खर्चा वहन करूंगा और...।”
ठीक इसी वक़्त मुझे दूसरी ओर से किसी भारी विमान के जेट इंजिन के उड़ने की आवाज़ सुनाई दी जिसके शोर में दूसरी ओर से बोले जाने वाले फिकरे के आखिरी कुछ शब्द दब गए।
दूसरी ओर से आता वो शोर जब तक कम न हुआ—मैं कुछ न बोला।
“मुझे शोर में आपकी पूरी बात सुनाई नहीं दी”—कुछ पलों बाद मैंने कहा।
“जी—दरअसल मैं कह रहा था कि अपने बिज़नेस के सिलसिले में मुझे अक्सर बाहर जाना होता है”—शोर कदरन कम हुआ तो दूसरी ओर से पुन: आवाज़ आई—“और कई बार मेरी ऐसी कोई ट्रिप बीस–पच्चीस दिन तक भी खिंच जाती है।”
“हाँ लेकिन!”
“ऐसे में मुझे शक है कि मेरी बीवी मेरी इस गैरहाजिरी में अपने किसी यार के साथ होती है।”
“आप खुद ही कह रहे हैं कि ये आपका शक है”—मैं फिर बोला—“जो कि व्यर्थ हो सकता है, खामखाँ हो सकता है।”
“अगर ऐसा है, तो भी इसका निवारण तो होना चाहिए?”
“हाँ”—मैंने कबूल किया—“होना तो चाहिए।”
“तो कीजिये।”
“अरे! मैं क्या करूं?”
“आप कीजिये निवारण”—दूसरी ओर से आवाज़ आई—“साबित कीजिये कि मेरा शक बेबुनियाद है, खामखाँ है।”
“मैं क्यूँ करूं?”
“तो कौन करे?”
“जनाब, आपकी ज़रूरत मैं नहीं कोई और है।”
“और कौन?”
“किसी प्राइवेट डिटेक्टिव को, किसी स्नूपर को, किसी स्काउट को ढूंढिए”—मैंने कहा।
“मैं कहाँ ढूँढूं?”
“शहर में इधर–उधर पता कीजिये, किसी यार–दोस्त से पूछिए!”
“मैंने पहले ही कहा कि ये मेरा निजी मसला है जिसके बारे में किसी यार–दोस्त से ज़िक्र नहीं कर सकता।”
“तो फिर कहीं और ढूंढिए।”
“कहाँ?”
“गूगल कीजिये”—मैं बोला—“वहाँ आजकल सब मिलता है।”
“उसमें वक़्त लगेगा।”
“तो लगाइए वक़्त।”
“वक़्त ही तो नहीं मेरे पास।”—आवाज़ आई। “एम ए बिज़ी मैन।”
“तो वक़्त निकालिए जनाब”—मैंने उसे सहज राय दी—“आखिर आपकी शरीके–हयात का मसला है।”
“इसीलिए तो आपसे बात कर रहा हूँ”—व्यग्र स्वर में आवाज़ आई—“आप मेरी मदद कीजिये।”
“जनाब—यहाँ हमारे एन–जी–ओ में लीगल ओपिनियन दी जाती है, स्नूपिंग के असाइनमेंट नहीं थामे जाते।”
“अगर आप नहीं लेते, तो किसी को आगे दिलवाइये।”
“क्या मतलब?”
“मतलब आप किसी का नाम रिकमेंड करे”
“स्नूपिंग के लिए?”
“जी हाँ।”
“मेरे हुज़ूर, मैंने पहले ही कहा कि ये कानूनी सलाह देने का दफ्तर है, किसी सर्विलांस, स्नूपिंग या स्पाइंग जैसे असाइनमेंट की बाबत कोई रिकमेन्डेशन फॉरवर्ड करने वाला मिडिलमैन ऑफिस नहीं।”
दूसरी ओर से गहरी शान्ति छा गई।
“हेल्लो”—मैंने कॉल कनेक्शन चेक किया।
“हाँ”—तत्काल आवाज़ उभरी—“मैं यहीं हूँ।”
“उम्मीद है आप मेरी बात समझ गए होंगे”—मैंने बात ख़त्म करने का इशारा करते हुए कहा।
“समझ तो गया लेकिन”—दबी सी आवाज़ आई—“उस समझ से मेरी प्रॉब्लम तो दूर न हुई।”
“जनाब—आपकी प्रॉब्लम कोई प्राइवेट इन्वेस्टिगेटर ही दूर कर सकता है”—मैंने दोहराया—“लीगल हेल्प प्रोवाइड कराने वाला कोई एन.जी.ओ. का दफ्तर नहीं।”
“आप किसी को रिकम्मेंड भी नहीं कर सकते!”—दूसरी ओर से दीन स्वर में पूछा गया।
“जी नहीं”—मैंने साफ़ कहा।
“और खुद?”
“खुद?”
“मेरा मतलब है क्या आप खुद इस सिलसिले में कुछ नहीं कर सकते?”
“मैं क्या कर सकता हूँ?”
“अगर आप”—सामने से हिचकिचाहट भरा स्वर उभरा—“खुद मेरी बीवी के चाल–चलन को सर्टीफाई कर सकें तो मेरी कई दुश्वारियां दूर हो जायेंगी।”
“मैंने पहले ही कहा...।”
“प्लीज़”—दयनीय स्वर में आवाज़ आई—“आई रिक्वेस्ट।”
“लेकिन!”
“इस बार—केवल इस बार—एक चेंज के तौर, मेरी मदद के तौर पर, ये कीजिये।”
“नहीं।”
“प्लीज़ सर”—सामने से गिड़गिड़ाते हुए कहा गया—“आई रियली इंसिस्ट।”
“लेकिन !”
“मैं पूरा खर्चा उठाऊंगा”—आवाज़ आई—“आई विल पे दी बिल।”
“वो तो ठीक है लेकिन...!”
“प्लीज़, प्लीज़, प्लीज़”—यूँ लगा जैसे सामने वाला इस बार इन्कार सुनकर मर ही जाता—“ये मेरी ज़िन्दगी का सवाल है।”
मैंने एक पल के लिए उस स्थिति पर गौर किया।
बेशक उस सिलसिले में फीस मेरे लिए कोई मायने न रखती थी लेकिन फिर मैं आजकल खाली बैठा था। मेरे दफ्तर में हालिया दिनों में किसी विजिटर के कदम तक नहीं पड़े थे और बीवी के घर पर न होने के चलते मैं घर जाने की इल्लत से भी आज़ाद था।
“आप एक्ज”ैक्टली चाहते क्या हैं?”—आखिरकार मैंने बदले लेकिन सावधान स्वर में पूछा।
“यही कि”—आवाज़ आई—“आप आज रात मेरा एक काम कर दें।”
“कैसा काम?”
“आज की रात मेरी बीवी की निगरानी का काम।”
तत्काल मेरे भीतर का इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट जागा।
“हूँ”—मैंने सावधान स्वर में कहा।
“मैं आज बिजनेस ट्रिप पर निकल रहा हूँ।”
“हाँ।”
“और मुझे पूरा यकीन है कि मेरी बेवफा बीवी आज ही रात अपनी हरकत पर उतर आएगी।”
“हूँ।”
“इसलिए मैं चाहता हूँ कि आज रात आप मेरे बंगले की निगरानी करें और इस बाबत कर्न्फम करें।”
“यानी सबूत हासिल करूं।”
“हाँ”—आवाज़ आई—“आखिर मुझे पता चलना चाहिए कि मेरा शक बेबुनियाद है या फिर वो है ही त्रिया–चरित्र।”
“हूँ।”
“और इसके बदले में आप जो भी फीस चाहते हैं वो मैं देने को तैयार हूं।”
“हालांकि फीस मेरे लिए कोई मुद्दा नहीं”—मैंने धीमे मगर स्पष्ट स्वर में जवाब दिया लेकिन आगे सावधान स्वर में पूछ भी लिया—“फिर भी, क्या फीस देंगे?”
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