एनकाउंटर
अजगर
रात के दो बजे थे।
सड़क दूर-दूर तक सूनी पड़ी थी। तारों के धुंधले प्रकाश में उस पर फैली हुई कोलतार की पट्टी बल खाते लम्बे सांप की तरह दिखाई दे रही थी। दूर जयनगर में जल रही बत्तियों की झिलमिलाहट भी सन्नाटे में डूबी हुई थी।
सोनाराम इसी सड़क के किनारे एक ओर झाड़ी में बैठा हुआ था। वह अपने आम के बगीचे में बनी हुई झोपड़ी में सोया हुआ था, तभी उसे शौच की व्याकुलता सताने लगी। आसपास कहीं पानी नहीं था। पानी सड़क के किनारे बने छोटे तालाबनुमा गड्ढे में था। विवश होकर वह धोती संभाले सड़क की ओर भागा।
शौच करने के बाद सोनाराम ने पानी छुआ। वह अपनी धोती का ढेका बांधने ही जा रहा था कि अचानक उसे जयनगर की ओर से आगे-पीछे दो गाड़ियां आती दिखाई दीं। वह उत्सुकतावश उधर देखने लगा। इस सड़क पर गाड़ियां नहीं के बराबर ही चलती थीं, क्योंकि सड़क आगे कुसुमपुर में जाकर समाप्त हो गई थी। पिछले पच्चीस सालों से वह वहीं की वहीं तक थी, जबकि उसके जयनगर से मधुबनी तक के निर्माण हेतु प्रतिवर्ष मोटी रकम खर्च की जा रही थी।
दोनों गाड़ियां नजदीक आ गईं और सोनाराम से कुछ ही दूरी पर पुलिया के पास खड़ी हो गईं। सोनाराम सकपका सा गया। क्योंकि वे दोनों गाड़ियां पुलिस की जीप थीं और उनमें आधा दर्जन पुलिस के सिपाही अपनी-अपनी बंदूकें लिए बैठे थे। तारों के प्रकाश में सब कुछ अच्छी तरह स्पष्ट नहीं था, पर उसने देखा कि पुलिस ने एक व्यक्ति को जीप से नीचे खींच लिया।
सोनाराम भय से कांपता हुआ वहीं दुबक गया।
“क्या चाहते हो तुम लोग?” पुलिसियों की गिरफ्त में फंसे व्यक्ति ने मचलते हुए भयभीत स्वर में पूछा।
“क्या अब भी नहीं समझा?” कोई गुर्राया—“हमें तुम्हारा एनकाउंटर करने का आदेश मिला है।”
“एनकाउंटर!” एक भयभीत सी सिसकारी उभरी—“लेकिन क्यों? मैंने क्या किया?”
“तुमने कुछ नहीं किया?”
“मेरा विश्वास करो। मैं जब्बार उर्फ कालिया नहीं हूं। मेरा नाम लालचन्द रमानी है। मैं मुजफ्फरपुर का रहने वाला हूं। वहां मेरी कल्याणी पर बनारसी साड़ी की दुकान है। आखिर तुम लोग मुझे वहां ले जाकर मेरी शिनाख्त क्यों नहीं कराते? मेरा विश्वास क्यों नहीं करते तुम लोग?”
“विश्वास का क्या मतलब? हमें यकीन है कि तुम जब्बार उर्फ कालिया नहीं हो। हम जानते हैं कि तुम लालचन्द रमानी वल्द सीताचन्द रमानी हो और मुजफ्फरपुर की कल्याणी पर तुम्हारी साड़ी की दुकान है।” वही गुर्राती हुई आवाज गूंजी—“लेकिन पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक तुम जब्बार उर्फ कालिया हो। तुम पर दर्जनों कत्ल, अपहरण और बलात्कार के इल्जाम हैं। तुम्हारा एनकाउंटर कर देना हमारी मजबूरी है। हम समाज को तुम जैसे खतरनाक अपराधियों के रहमो-करम पर नहीं छोड़ सकते...मरने के लिए तैयार हो जाओ।”
“बचाओ।...बचाओ!!” रमानी गला फाड़कर चिल्लाया—“अरे कोई मुझे इन शैतानों से बचाओ।”
“धांय...धांय...धांय।”
तभी राइफल के धमाकों ने उसकी चीख को दबा दिया।
वह गोलियों से छलनी हुआ सड़क पर गिरा पड़ा था
पूर्व में चांद बाहर निकल आया था। चारों ओर उसकी किरणों की रोशनी फैल गई थी। एक पुलिसिये ने कट्टे से छ:-सात फायर किए और लाश के हाथ में कट्टा पकड़ाया, फिर इधर-उधर कुछ खाली खोखे फैलाकर बोला—“सर! काम हो गया।”
ऑफिसर की वर्दी पहने एक आदमी जीप की ओर बढ़ा और वायरलेस ऑन करके रिपोर्ट देने लगा।
सोनाराम समझ गया कि वह खतरे में है। उन लोगों ने जब्बार के नाम पर एक निर्दोष को मार डाला था और सोनाराम उनके गुनाह का प्रत्यक्षदर्शी गवाह था। उसके बारे में जानकारी होते ही उन्हें उसे गोलियों से उड़ा देना था।
उसे भी जब्बार का साथी घोषित कर देना उनके लिए कोई मुश्किल काम नहीं था। वह धीरे-धीरे रेंगते हुए सड़क से दूर हटने लगा। जैसे ही उसे पेड़ों की ओट मिली, वह उठा और सरपट भाग निकला।
¶¶
सुबह होते-होते यह खबर आग की तरह फैल गई कि राजनगर पुलिस ने उत्तरी क्षेत्र के कुख्यात आतंकवादी जब्बार उर्फ कालिया को एनकाउंटर में मार डाला। घटनास्थल पर वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की गाड़ियां पहुंच गई थीं। पत्रकारों एवं स्थानीय नेताओं का काफिला भी वहां पहुंचा हुआ था।
कुसुमपुर के लोग थोड़ी दूर पर भीड़ लगाए खड़े थे।
पुलिस वाले अपनी कार्यवाही में लगे थे। इसी समय एक युवा पत्रकार आराम से टहलता हुआ लाश के पास पहुंच गया। उसने एक खोखे को उठाया और आंख के समीप लाकर गौर से उसका मुआयना करने लगा।
“यह क्या कर रहे हैं आप?” इंस्पेक्टर कालूसिंह तेजी से उसकी ओर झपटा।
“बारह बोर की है...हूं...।” युवक ने खोखा अपनी जगह पर डाल दिया और इंस्पेक्टर की ओर देखकर दांत निकालते हुए बोला—“आपने बड़ी बहादुरी का काम किया है। इस शैतान ने लोगों का जीना हराम कर दिया था। आपको तो परमवीर चक्र मिलना चाहिए।”
“कभी-कभी आप बहकने लगते हैं।” कालूसिंह हंसने लगा—“भला पुलिस में परमवीर चक्र कहां है! यह तो सेना में मिलता है।”
“नाइंसाफी है सर! पुलिस वालों को भी मिलना चाहिए। यह तो दोहरी नीति है। सरासर समानता के मौलिक अधिकार का हनन है। मैं अपने अखबार के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट का ध्यान इस असंवैधानिक असमानता की ओर जरूर आकृष्ट करूंगा।”
“प्लीज मिस्टर विनोद।” कालूसिंह ने हाथ उठाकर हंसते हुए कहा—“मुझे माफ कीजिए। मुझे ना परमवीर चक्र चाहिए, ना ही समानता का अधिकार। आप कोई नया शगूफा मत छोड़ दीजिएगा। यह एक सीधा-सादा पुलिस एनकाउंटर है।”
विनोद झुका। उसने मृतक के हाथ में पड़े कट्टे की नाल में ऐसे झांका मानो उसमें से हाथी का बच्चा निकलने वाला हो।
“लेकिन आप यह क्या कर रहे हैं?” कालूसिंह हड़बड़या—“नाल में क्या मिलेगा आपको?”
“हो सकता है कोई एटमबम ही छिपा हो।” विनोद ने चिंतित भाव से मृतक की ओर देखा—“क्योंकि लाख टके का सवाल यह है कि कत्ल, रेप और अपहरण करने वाला एक शातिर गैंगस्टर बाबा आदम के जमाने के देसी कट्टे के बूते पर हमारी पुलिस के परमवीर इंस्पेक्टर कालूसिंह जी और उनके सहयोगी मुनीश जी सहित छ: ऑटोमेटिक राइफलधारी पुलिसमैनों का मुकाबला करने की हिम्मत कहां से लाया। जरूर इस कट्टे में कोई रहस्य है।”
“कैसा रहस्य?” कालूसिंह बुरी तरह सकपका गया।
“यह परमाणविक कट्टा हो सकता है। हो सकता है कि इस कट्टे में कोई तांत्रिक-मांत्रिक शक्ति छुपी हो।”
“अब आप क्या बकवास करने लगे।” कालूसिंह ने बुरा सा मुंह बनाया—“आप देख रहे हैं कि इसने इसी कट्टे से पुलिसकर्मियों पर गोली चलाई है। यहां खोखे और छर्रे भी बिखरे पड़े हैं।”
“हां, देख रहा हूं।” विनोद ने सिर हिलाया—“एस०पी० साहब भी देखने आ रहे हैं। आइए...आइए एस०पी० साहब। मैं आपका ही इंतजार कर रहा था। यह बहुत बड़ा काम किया है आज पुलिस ने...भई कल के पर्चे में आप लोगों की जय-जयकार भरी रहेगी।”
“तुम?” ए०पी० मल्होत्रा ने खा जाने वाली दृष्टि से उसकी ओर देखा—“तुम पुलिस के घेरे के अंदर कैसे घुस आए? तुम्हारे हमपेशा तो बाहर ही खड़े हैं।”
“तुम्हें मुबारकबाद देने चला आया। भई क्या कारनामा कर दिखाया है! वैसे इस साले गैंगस्टर की तकदीर ही खोटी थी।”
“क्या मतलब?”
“अब देखो न...जिस समय पुलिस ने उसे घेरा उसके पास केवल एक कट्टा था...यहां करीब चालीस-पचास खोखे पड़े हैं, लेकिन ये किसी फायर के काबिल ही नहीं थे। ये पहले से खाली खोखे थे।”
“यह तुम कैसे कह सकते हो?”
“गोलियों की जांच तो तुम करवाओगे ही। सब मालूम हो जाएगा। आजकल तो यह भी मालूम हो जाता है कि गोली का जो खोखा बरामद हुआ है, वह किसी विशेष गन से चलाई भी गई है या नहीं।”
“तुम कहना क्या चाहते हो?” एस०पी० मल्होत्रा हत्थे से उखड़ गया—“पुलिस की कहानी झूठी है?”
“कहानी कोई भी हो, वह झूठी ही होती है। हकीकत कहानी नहीं हुआ करती एस०पी० साहब...वैसे आपके सामने किसकी मजाल है, जो आपकी बात को काट दे। मुझे अपना डंडा पैरेड थोड़े ही करवाना है।”
“देखो! इस मामले से अपनी टांग दूर ही रखना। मैं नहीं चाहता कि तुम किसी मुसीबत में फंस जाओ। बड़े ऊंचे स्तर से इस गैंगस्टर को जिंदा या मुर्दा पकड़ने का आदेश आया था।”
“लेकिन क्या शिनाख्त हो गई है कि यह जब्बार ही है?”
“क्यों...तुम्हें सन्देह है?” एस०पी० ने व्यंग से उसकी ओर देखा।
“नहीं भई! इसमें सन्देह की क्या बात है...यह तो पुलिस की रूटीन कार्यवाही है। शिनाख्त किसने की है?”
“मैं तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं हूं। तुम फौरन पुलिस के घेरे से बाहर जाओ।”
“अच्छी बात है।” विनोद ने सिर हिलाया—“मैं जा रहा हूं, लेकिन यह प्रश्न अभी हवा में तैरता ही रहेगा कि शिनाख्त किसने की। जहां तक मुझे याद है, जब्बार की कोई तस्वीर पुलिस के पास नहीं है। वह एक नाम है। कोई नहीं जानता कि वह कौन है।”
“यह जब्बार ही है। इसकी जेब से कागजात बरामद हुए हैं।”
“उसमें लिखा है कि मैं जब्बार हूं?” विनोद ने चकित भाव से पूछा।
“नहीं। इसकी जेब से एक पर्सनल डायरी, तीन पत्र और दो कैश मेमो प्राप्त हुए हैं। वे सब जब्बार के नाम के ही हैं। भला कोई दूसरा जब्बार के यह पर्सनल कागजात लेकर क्यों घूमेगा?”
“हूं।” विनोद ने चिन्तित दृष्टि से लाश को देखा, फिर बोला—“क्या मैं लाश की तस्वीरें उतार सकता हूं?”
“उतार लो...लेकिन भगवान के लिए इस केस में कोई बखेड़ा मत करना, वरना मैं इस मामले में तुम्हारा लिहाज नहीं करूंगा।”
“जैसे कि आप अभी करते हो?” विनोद ने बुरा सा मुंह बनाया—“इतनी देर हो गई...कुछ पानी-वानी को पूछा...बियर तो बहुत दूर की बात है।“
“तुम नहीं सुधरोगे।” एस०पी० ने खा जाने वाली दृष्टि से उसे घूरा। वह चुपचाप तस्वीरें उतारने लगा।
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