एक कब्र और सही
राकेश पाठक
“मामा, बताओ मैं क्या करूं?”
“भांजे, अब तो सिर्फ एक ही रास्ता बचा है।”
“वो क्या?”
“तू उस प्रकाश के बच्चे की हत्या कर दे।”
“क्या?” उछल पड़ा प्रेम—“यह क्या कहते हो मामा?” प्रकाश मेरा भाई है।”
“ऊं...हूं...भाई तो है, लेकिन सौतेला है।”
“मामा, हम दोनों की माएं भले ही अलग-अलग थीं लेकिन बाप तो एक ही था।” उसने सिगरेट सुलगा ली, बोला—“पता नहीं...यह कैसे हो गया? पिताजी मुझसे और प्रकाश भैया से बराबर ही स्नेह रखते थे। मरने से पहले प्रकाश भैया के नाम ही वे अपनी सारी जायदाद कर गये। न जाने उन्होंने मेरे साथ यह नाइन्साफी क्यों की?”
“अब रोने से कोई लाभ नहीं भांजे। प्रकाश से तुझे अब एक कानी कोड़ी भी मिलने वाली नहीं है।”
“नहीं मामा, मैं कानून का दरवाजा खटखटाऊंगा। मुझे बराबर का हिस्सा मिलेगा।”
“क्या बेवकूफों की-सी बातें करता है?” शकुनी ने रुमाल को ऊंगली की सहायता से नाक के एक छिद्र में घुसेड़ा और बोला—“सारी दुनिया जानती है कि तेरी मां सेठ गोपाल की मिस्ट्रेज थी न कि उसकी ब्याहता पत्नी। तू कानून का दरवाजा खटखटाने पर यह साबित भी नहीं कर पायेगा...कि तू गोपाल सेठ का बेटा है या गोपाल सेठ तेरे पिता थे?”
“क्या मतलब मामा!“
“अरे...बेटा...तू तो जानता है कि गोपाल सेठ ने तेरी मां को अलग बंगले में रखा था जिस बंगले में अब हम बैठे हुए हैं। तू यह भी जानता है कि तेरी मां...एक वेश्या थी। सेठ का उससे इश्क चला और वह प्रेगनेन्ट हो गई थी। सेठ तो तेरी मां को पैसे देकर ही बरगलाना चाहता था, लेकिन मैंने ऐसा करने नहीं दिया। मैंने सेठ गोपाल को मजबूर किया, कि वो मेरी बहन को अपनायें। तब सेठ गोपाल की पत्नी जिन्दा थी और उसकी गोद में तीन वर्ष का प्रकाश था। सेठ को अपनी इज्जत का ख्याल था। उसने यह बंगला बनवाया। तेरी मां को यहां रखा। दुनिया के सामने यह बात कही, कि शान्ति मेरे दूर के रिश्ते के भाई की बेवा है। तेरा जन्म हुआ और यही तेरी परवरिश हुई।”
“लेकिन उन्होंने मुझे बाप का प्यार भी दिया था और मेरी सभी इच्छाओं को पूरा भी किया था। प्रकाश भी यह जानता है कि मैं उसका छोटा भाई हूं।”
“तेरी दलील अब किसी भी काम की नहीं है। गोपाल सेठ अपनी जायदाद का उत्तराधिकारी प्रकाश को बना गया है। अब प्रकाश जब भी चाहे तब...तुझे इस अलीशन बंगले से बे-दखल कर सकता है।”
“तो मैं उसकी हत्या क्यों करूं? मुझे उसको मारने से जायदाद तो मिलने से रही।”
“उसके मारने से दो फायदे हैं तुझे।”
“वो क्या...मामा?”
“पहली बात तो यही कि तेरा भी जायदाद पर बराबर का हक है। अगर तू इस जायदाद का सुख नहीं भोग सकता है...तो वह हरामजादा प्रकाश ही क्यों भोगे? सुन...तू प्रकाश की हत्या कर दे। उसकी मौत के बाद सब कुछ तेरा ही हो जायेगा। सारी जायदाद तुझको मिल जायेगी क्योंकि ले-दे कर तू ही गोपाल सेठ का नजदीकी रिश्तेदार बचा रह गया है।”
“रिश्तेदार?”
“ओफ्फो...तेरे बाप ने सबको तेरी मां के बारे में यही बताया था कि वो मेरे रिश्ते के भाई की बेवा यानि मेरी भाभी है। वो भले ही तेरा बाप था, लेकिन कानून की निगाहों में तेरा चाचा बैठता है। प्रकाश की मौत के बाद तुझे ही सब कुछ मिल जायेगा क्योंकि सेठ का कोई भी नजदीकी रिश्तेदार नहीं है, इसलिये तू ही...।”
“वो बात तो सही है, मामा...किन्तु प्रकाश को मारा कैसे जाये?”
“उसे किसी भी बहाने से जंगल वाली कोठी पर ले जाओ। वहां चारों तरफ शान्ति ही शान्ति है। वहां तुम्हारे कार्य में विध्न डालने वाला कोई भी नहीं होगा।”
“मामा!” प्रेम...को कुछ याद आया—“मेरे दिमाग में एक स्कीम आ रही है। सांप भी मर जायेगा और लाठी भी सही-सलामत रहेगी।”
“वो क्या...?”
“सुनो मामा...मैं प्रकाश को जंगल वाली कोठी पर ले जाता हूं। वहां मैं उसे रिवॉल्वर के बल पर इस बात के लिये विवश करूंगा, कि वो सादे कागज पर सारी वसीयत मेरे नाम कर दे। उसके बाद उसको गोली मार दूंगा और पुलिस को यह बता दूंगा कि वहां पर डाकू पहुंच गये थे। उन्होंने प्रकाश को मारा था।”
“और यह भी कह देना...कि डाकू के गोली चलाते ही प्रकाश ने सादे कागज पर मेरे नाम सारी वसीयत कर दी थी” शकुनी जल-भुनकर व्यंग के साथ बोला—“बेवकूफ कहीं का। पुलिस तो उल्लू की पट्ठी ही है? तू जो कहेगा...वह हाथ जोड़कर मान लेगी।”
“ओफ्फो...मामा, अब तुम ही कहो, कि मैं क्या करूं?”
“वही करो। यानि प्रकाश को जंगल वाली कोठी में ले जाओ। उसे मारो और जंगल में कहीं भी दफनाकर आ जाओ। फिर पुलिस में उसके गुम हो जाने की रिपार्ट लिखवा देना। महीने दो महीने बीतने पर तुझे ही...।”
“वाह...मामा वाह! मान गये तुमको। अब यही करूंगा मैं। मैं प्रकाश की हत्या अवश्य करूंगा। अगर मुझे जायदाद नहीं भी मिलती...तो कोई गम नहीं। जब मैं इस जायदाद का मजा नहीं लूट सकता तो वह भी नहीं लूट सकेगा।”
“बेटा प्रेम। सब काम होशियारी के साथ ही निपटाना। प्रकाश बहुत जहरीला नाग है। तू तो जानता ही है कि वो कैसे-कैसे गुण्डों की कम्पनी में रहने वाला है।”
“तुम फिक्र मत करो मामा। वो नाग है, तो मैं भी सपेरा हूं।” प्रेम के चेहरे पर खूंखार भाव थे—“कोठी पर कोई भी गुण्डा उसके साथ न होगा। होगी तो बस एक रिवॉल्वर...जो मेरे हाथों में होगी। मौत को देखकर अच्छे-अच्छे नागों का जहर उड़न-छू हो जाया करता है।”
शकुनी ने जेब से रिवॉल्वर निकाली।
“ले बेटे। इसे अपने पास सुरक्षित रख। यह ही तेरे काम आयेगी। इसमें छः गोलियां भरी हुई हैं। ट्रेगर दबाने से पहले इसके चैम्बर को घुमाना नहीं भूलना। कभी-कभी गोली अन्दर ही अटकी रह जाती है।”
“मामा शीघ्र ही प्रकाश नाम का कांटा हमारे रास्ते से हट जायेगा। चलो होटल शैफाली चलते हैं। खुशी का यह दौर सूखा नहीं गुजरना चाहिये।”
“ठीक कहते हो बेटा! शराब की एक ऐसी चीज है, जो गम और खुशी पा लेने पर काम आती है।”
प्रेम बाईस-तेईस वर्ष का तन्दरुस्त युवक था। कद साढ़े पांच फुट के करीब था।
और शकुनी! पचास वर्षीय इकहरे शरीर का स्वामी। चुस्त पजामा और कुर्ता पहनता है। आंखों पर धूप का चश्मा चढ़ा होता है तथा सिर पर गोल ऊनी टोपी लगी रहती है। तोते की चोंच जैसी नाक लिये यह शख्स बहुत ही काईयां किस्म का है। ऐसे शख्स को गुण्डा पार्टी कहती है-अपनी मां का यार।
दोनों होटल शैफाली पहुंच जाते हैं।
“अरे...भण्डारी? शकुनी चीख मारकर एक शख्स से चिपट गया—“कैसा है रे तू?”
भण्डारी मोटा-थुलथुल इन्सान! शकुनी के चिपटने वाले अन्दाज पर बौखला उठा वह। यह बात सही थी कि वह कभी शकुनी का दोस्त था, लेकिन इतना गहरा नहीं था। कि वह उससे मिलने पर अधिक प्रसन्नता महसूस करता।
जबकि शकुनी बुरी तरह चिपटा हुआ था।
“बहुत दिनों बाद मिला है तू भण्डारी। क्या तुझे कभी भी मेरी याद नहीं आई?”
“आई थी।” भण्डारी रो देने वाले अन्दाज में बोला।
शकुनी भण्डारी को घसीटते हुए बार काउण्टर पर ले गया। प्रेम ने अपना माथा पीट लिया। वह अपने मामा की आदत से परेशान था। उसका मामा ऐसे ही हर किसी जान-पहचान वाले के पीछे भूत बनकर पड़ जाया करता था। वह खाली टेबल पर जम गया। ब्वाय को डबल पैग लाने का आर्डर देने के बाद प्रकाश को मारने की प्लानिंग पर सोच-विचार करने लगा।
“साब! आपका पैग।”
“आं...” ब्वाय की आवाज से उसकी तन्द्रा टूटी, जेब से बीस का मुड़ा-तुड़ा नोट निकाला और बोला—“बाकी के अपने पास रख लेना।”
“थैंक्यू साब।” ब्वाय ने काफी तगड़ा सैल्यूट मारा।
शकुनी अब भी भण्डारी से ही चिपका हुआ था।
¶¶
“नमस्ते भाई साहब।”
“नमस्ते! आओ प्रेम...बैठो।”
“थैंक्यू भाई साहब।”
“कह...कैसे आया?” प्रकाश ने सवाल किया।
“वो भैया...।”
“हां-बोल...।”
प्रकाश फिल्मी पत्रिका के पन्ने पलटता हुआ प्रेम की आवाज का इन्तजार कर रहा था।
“भाई साहब, वो बात ऐसी थी कि...रात सपना आया था मुझे। सपने में पिताजी ने दर्शन दिये।”
“पिताजी!“ प्रकाश की नजर पत्रिका से हटी—“कौन से पिताजी की बात कर रहा है तू?”
पल भर को सकपकाया वह, फिर ढाढस बांधकर बोला—“कैसी उखड़ी बातें करते हो भाई साहब। भला आपके और मेरे पिताजी में कोई फर्क है?”
“प्रेम!“ पत्रिका छोड़कर उठ खड़ा हुआ प्रकाश, क्रोध से उबलते हुए चीखा—“तेरी हिम्मत कैसे हुई कि तू स्वयं को मेरा भाई कहे। भूल गया अपनी औकात को। तेरी मां तेरे पिताजी के दूर के भाई की पत्नी थी।”
“भाई साहब।”
“पिताजी ने तेरी मां को आश्रय दिया और तुझे बेटे के समान चाहा तो इसका यह मतलब तो नहीं कि तू स्वयं को उनका बेटा माने।”
“देखिये भाई साहब! आप अच्छी तरह इस बात से वाकिफ हैं कि मैं आपका सौतेला भाई हूं। आप यह भी अच्छी तरह से जानते हैं कि...।”
“तेरी मां एक रण्डी थी। वह मेरे पिताजी की रखैल थी।” प्रकाश बीच में बोल पड़ा—“न जाने किसका पाप है तू। शुक्र मना कि मेरे पिता ने तुझे अपना माना और मैंने तुझे छोटे भाई का मान दिया लेकिन इसका मतलब तो यह नहीं हुआ...कि तू जायदाद में हिस्सेदार बनने की सोचे।”
प्रेम के जिस्म में आग-सी भर रही थी। प्रकाश ने उसे बहुत ही जलील किया था। उसके मन में आया कि आगे बढ़कर प्रकाश की गर्दन मरोड़ दे लेकिन ऐसा कर नहीं सका वह। खून का घूंट पीकर रह गया वह।
“भाई साहब, मैं रण्डी की सन्तान ही सही परन्तु सच बात यह है कि मैं आपका छोटा भाई हूं। गलत ही सोचा है आपने कि मैं यहां जायदाद के हिस्से की मांग करने आया हूं।” प्रेम ने गुस्से पर कन्ट्रोल करते हुए और स्वयं को गम्भीर बनाते हुए कहा।
ठण्डी सांस छोड़कर प्रकाश सोफे पर पसर गया। फिल्मी पत्रिका का भार सहते हुए बोला—“हूं...तो रात सपने में तुझे मेरे पिताजी दिखलायी पड़े। क्या बात की उन्होंने?”
“उन्होंने मुझसे कहा कि मैंने जंगल वाली कोठी में मन्दिर बनवाने की सोची थी लेकिन यह शुभ कार्य करने से पहले ही मौत ने मुझे मार डाला। मेरी इच्छा है कि तू और प्रकाश मेरे इस कार्य को पूरा करो। मन्दिर की नींव तुम दोनों के हाथों से ही खुदनी चाहिए।”
“हूं...तो पिताजी ने जंगल वाली कोठी में मन्दिर बनवाने की आज्ञा दी है।”
“जी भाई साहब! और उसकी नींव हम दोनों को ही खोदनी है।”
“ठीक है। अगले महीने जंगल वाली कोठी में चलेंगे।”
“अगले महीने।” प्रेम का चेहरा उतर गया, फिर कुछ सोचकर बोला—“लेकिन भाई साहब।”
“क्यों...क्या बात है?”
“वो बात ऐसी है कि...मैं हमेशा के लिये मुम्बई जा रहा हूं।”
“क्यों? हीरो बनने जा रहा है?”
“दरअसल मैं आप पर बोझ बनना नहीं चाहता।”
“काफी समझदार है तू।”
“फिर न जाने कब आना हो। हो सकता है कि कभी भी न आऊं। इसीलिये कल ही चलो। कल हम दोनों अपने हाथों से थोड़ी-सी नींव खोद लेंगे। उसके बाद बाकी का काम मजदूर लोग कर ही लेंगे।”
प्रकाश सोच में पड़ गया।
“कल दिन में जा पाना मेरे लिये मुश्किल है।”
“कोई बात नहीं, भाई साहब। हम शाम को ही चले चलेंगे। नींव का कार्य परसो सवेरे ही निपटा लेंगे।”
“कहीं...तू मेरे खिलाफ कोई षडयन्त्र तो नहीं रच रहा है?” प्रकाश के चेहरे पर शक की लकीरें उभर आईं।
प्रेम के चेहरे पर घबराहट के चिन्ह उभर आये। सम्पूर्ण जिस्म पसीने से भीग गया। उसने जेब में से रुमाल निकाला और पसीना साफ करते हुए बोला—“यह कैसी घटिया बात करते हो आप भाई साहब? भला कोई छोटा भाई अपने बड़े भाई के खिलाफ षड़यन्त्र रच सकता है।”
“मुझे ऐसा ही लगा था। तू मुझको जंगल वाली कोठी में ले जाने को बेहद उतावला नजर आया है।”
“मैं जल्द-से-जल्द मुम्बई चला जाना चाहता हूं इसीलिये।”
“ठीक है...हम कल शाम ही रवाना होंगे। अब तू यहां से जा। मुझे योगाभ्यास करना है।”
“ओह...आपके योगाभ्यास का वक्त हो गया है। अच्छा, मैं चलता हूं। नमस्ते।”
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“कहो भांजे...क्या रहा?” कमरे में घुसते ही शकुनी ने सवाल किया।
“मामा...मेरा नाम भी प्रेम है। उस साले को सपने की बात बताकर ऐसा लपेटा कि...।”
“बेटे...इतनी गर्मी तो नहीं है। फिर तेरे माथे पर इतना पसीना क्यों?”
“पूछो मत मामा।” वह सोफे पर एक धचके के साथ बैठा—“वो साला...बड़ा हरामी है। वह कह रहा था, तू मेरे खिलाफ कोई षडयन्त्र तो नहीं रच रहा है।”
“अच्छा।” शकुनी सोफे से नीचे गिर पड़ा।
मामा को सोफे पे बिठलाते हुए बोला प्रेम—“मामा उस हरामखोर ने मुझे बुरी-बुरी सुनाई, उसने मुझे रण्डी की औलाद कहा।”
“वो तो तू है ही।”
“मामा? मैं भला...अपनी मां के बारे में ऐसा कैसे सुन सकता हूं?”
“हां-ये बात तो है, बेटा।”
“एक बार जी में आया था कि आगे बढ़कर उस साले को जान से मार डालूं।”
“अपनी यह इच्छा भी कल पूरी कर लेना। तेरे रिवॉल्वर में छः गोली होंगी। दो गोली उन आंखों पर चलाना, जो तुझे नफरत से देख रही थीं। एक गोली उसके मुंह में भी मार देना। जिस जुबान से तुझे रण्डी की औलाद कहा था...वो नष्ट हो जायेगी।”
“मेरा पहला अपराध है ये मामा। अच्छा ही होता, तुम भी वहां चलते।”
“अरे नहीं बेटे...नहीं। मुझे दिल की बीमारी तो वैसे ही है। कहीं ऐसा न हो कि...प्रकाश के अलावा तुझे मेरी लाश भी ठिकाने लगानी पड़े।”
शकुनी चेहरे पर उभर आया पसीना पौंछ रहा था।
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