एक हसीना थी
ओम प्रकाश शर्मा
रात प्रकृति ने अपना तूफानी रूप धारण कर रखा था। सांय-सांय करती हवाओं को जैसे किसी ने कोई अपशब्द कहकर इस कदर क्रोधित कर दिया कि वो जमीन से जुड़ी हर वस्तु को उखाड़कर अपने साथ उड़ा ले जाने को आमादा हो रही थीं। दिल्ली महानगर की इमारतें उसके प्रचण्ड रूप को देखकर सहम गई थीं। घरों के खिड़की-दरवाजे बन्द किए, अन्दर छिपे दिल्लीवासी भी उस रात प्रकृति के उस रूप से जरा सहम गए थे। अनेक वृक्षों की शाखाएँ चर्राकर वृक्षों का साथ छोड़कर जमीन पर गिर पड़ी थीं।
क्रोधित मेघों ने भी आपस में संग्राम छेड़ दिया था। उनके टकराने से उत्पन्न उनकी हुंकार बार-बार वातावरण में तेज कम्पन पैदा कर दिया करती थी। उसी के साथ चपल, चंचल दामिनी अपनी दूधिया चमक प्रकृति में बिखेरकर कांपती दिल्ली के हाल को देखकर शरारती बच्चे की भांति खुश हो रही थी।
कहर इतना ही न कम था शायद—जो मेघों ने दिल्ली को अपने अन्दर सिमटे जल से भिगोना भी शुरू कर दिया। सुनसान सड़कें, थर्राते वृक्ष, सहमी इमारतें—सब प्रकृति के इस कहर को भी खामोशी के साथ बर्दाश्त करने लगे। चंचल दामिनी की चंचलता और मेघों की जंग....उनकी हुँकार में और इजाफा हो गया।
प्रकृति के जलाल से काँपती उसी दिल्ली में स्थित उस बंगले के एक बैडरूम में दूसरे तूफान की तैयारी चल रही थी।
बिस्तर में अधलेटी अवस्था में वो पच्चीस वर्षीय बेइंतहा खूबसूरत युवक अपने साथी के इंतजार में सिगरेट के कश खींच रहा था। बाथरूम का दरवाजा बन्द था। उसके अन्दर से एक सुरीली, नारी कण्ठ से निकली गुनगुनाहट फूट रही थी।
खिड़कियाँ बन्द, पर्दे खिंचे हुए थे। यानि तूफानी हवा से सुरक्षित उस कमरे में जलती कैन्डल लैम्प अपने मध्यम से प्रकाश से उसे प्रकाशमान बना रही थी। इन्तजाररत उस चाकलेटी हीरो-से नजर आते युवक की सिगरेट आधी से ज्यादा समाप्त हो चुकी थी।
इन्तजार आखिर समाप्त हुआ।
बाथरूम का दरवाजा खुला।
युवक ने दरवाजे की तरफ देखा।
बाथरूम के दरवाजे पर खड़ी उस तेइस वर्षीय, लम्बे कद वाली, कंचन-सी काया की मालकिन पर नजरें पड़ते ही वो मुस्कुरा दिया।
कंचन जैसी और सुगठित काया पर इस समय उसने जिस्म के कलर से मैच करते रंग का झीना, पारदर्शी गाऊन पहन रखा था। उसमें झांकता उसका अंग-अंग दमक रहा था—जैसे दीप्तिमान पुँज को उस गाऊन में कैद कर दिया गया हो। नीली आँखों में डूब जाने को जी चाह उठता था। उन रसीले, गुलाबी पँखुड़ी जैसे होठों पर चिपकी कातिल मुस्कान ने बिस्तर पर बैठे युवक को बिस्तर छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
वो आगे बढ़ा। दरवाजे के पार आ चुकी युवती को उसने आगे बढ़कर अपनी बांहों में कैद कर लिया। युवती ने भी बिना किसी विरोध के अपनी मखमली बांहों का हार उसके गले में पहना दिया।
गाऊन में कैद एवरेस्ट की चोटियाँ उसके चौड़े सीने से टकराकर कराह उठीं।
“कितनी देर लगा दी....।” युवक आतुर भाव से फुसफुसाया।
“ज्यादा तो नहीं की!” हसीना कातिल अन्दाज में मुस्कुराई, “अब तो तुम्हारी बांहों में हूँ, जितनी चाहे सजा दे लो....।”
“वो तो मैं दूँगा ही।” युवक शरारत से मुस्कुराया।
युवक के होंठ उसके चेहरे की तरफ बढ़े। हसीना ने भी दरियादिली दिखाई। अपने रसभरे होंठों को स्वयं ही उसके होंठों से जोड़ दिया।
युवक के होंठ उन पंखुड़ियों पर मंथन करने लगे। बांहों का हार गले पर कस गया। चोटियाँ सीने की पसलियों को तोड़कर उसमें धंसने को प्रयत्नरत् होने लगीं।
युवक ने उसके निचले अधर को अपने होंठों में दबोच लिया और उसके रस को चुराने लगा। हसीना भी उसके होंठों को पीसने की भरपूर कोशिश कर रही थी। वो धीरे से अपने पंजों के बल पर ऊपर उठती चली गई।
अगले मिनट में वे बिस्तर में थे।
एक-दूसरे की बांहों में समाए एक-दूसरे के अधरों के शहद का पान करने में मशगूल थे। युवक के हाथ उसकी पीठ पर उठे-गिरे भागों पर फिसल रहे थे। जिव्हा से जिव्हा बिफरी नागिनों की भांति टकरा रही थीं।
दीवारें एक-एक करके हटकर फर्श पर गिरने लगीं। हसीना के बदन पर तो इकलौता कपड़ा था। उसकी डोरी में युवक की अंगुलियाँ उलझीं। निःशब्द डोरी खिंचती चली गई।
उसके साथ ही दूसरे पल वो आखिरी दीवार भी हटाकर फर्श पर गिरा दी गई।
अव्यवस्थित सांसें बाहर चलती हवाओं की भांति तूफानी रूप धारण करने लगी थीं। युवक के हाथ उसकी चोटियों की कठोरता का जायजा लेने में मशगूल थे। होंठ उसके अधरों को पीसने को उतारू थे।
फिर....।
युवक के होंठ हसीना के होंठों की गिरफ्त में आ गए। हसीना की लम्बी कलात्मक अंगुलियाँ उसके बालों में फँस गईं। कस गईं।
लम्बा और प्रगाढ़ चुम्बन! इतना प्रगाढ़ कि पल भर के लिए युवक छटपटाकर रह गया। लेकिन वासना की आग में जलती उस कोमलांगिनी को उस पर कोई तरस नहीं आया। होंठों को पूरी तरह निचोड़कर रख देने का जैसे उसका मुकम्मल इरादा था।
जब होंठ जुदा हुए तो युवक के निचले होंठ के बीच में हल्का-सा रक्त बहने लगा। उसे देखते ही हसीना ने होंठ पुनः अपने होंठों से जोड़ दिए। हल्का चुम्बन लिया इस बार उसने।
“बड़े जोश में हो आज!” अपनी आग में सुलगता युवक वासना की तपिश और युवती के हुस्न का नशा लिए बोला, “होंठ भी फट गया शायद....”
“सब तेरी मौहब्बत है....।” खुद को उसके ऊपर लाते हुए वो बोली।
जंगली बिल्ली जैसे अपने शिकार पर झपट पड़ी। वासना का वही खेल पुनः बिस्तर की चादर में सलवटें डालने लगा। खेल में जितना उतावलापन था, उतना ही जंगलीपन भी। हसीना युवक के शरीर पर जगह-जगह अपने नाखून गड़ा रही थी। शरबती आँखें लालिमा से भरने लगीं। दोनों के होंठ एक-दूसरे के शरीर पर फिसल रहे थे।
धीरे-धीरे कमरे का तापमान बढ़ता जा रहा था। युवक उसकी चोटियों को अपने मुँह में लेकर नदीदा बालक बन गया। वासना लगातार अपना खतरनाक रूप धारण करती जा रही थी। कमरे में आँधियाँ-सी चलने लगीं। जिसकी हवा के झोंके से जलती दो मोमबत्तियों में से एक बुझ गई। दूसरी की लौ संघर्षरत थरथरा रही थी।
और फिर....।
उस तूफान के बीच मीठी कराह! आनन्दपूर्ण।
बाहर चलती आँधी के वेग में इंकलाबी परिवर्तन आया। एक साथ कई वृक्षों की शाखाएँ टूटकर जमीन पर जा गिरीं। बादलों में जोरदार टकराव होकर बिजली उत्पन्न हुई। सृष्टि काँपी।
कमरे के अन्दर के तूफान से परदे काँपने लगे। सिसकारियों और कराहों से दीवारें गूँजने लगीं। नीचे पिसती नाजुक बाला की बांहें युवक की कमर पर शिकंजों की भांति कसी हुई थीं। वे और कस गईं। चेहरे पर उभरे पसीने ने बिखरी जुल्फों को चिपका दिया था। अधर साथी के होंठों के पान में कभी-कभी लग जाया करते थे।
आसमान में खेलती चंचल बिजली की चमक बार-बार खिड़की के काँच और पर्दों को पार करके कमरे में प्रवेश कर जाती। पल भर के लिए कमरा प्रकाश में नहा जाया करता था, फिर अगले ही क्षण मध्यम प्रकाश में थरथराता रह जाता था। खेल उत्कर्ष पर था।
आखिर चरम भी आया—।
एकाएक आसमान में गर्जना हुई। सृष्टि कांप उठी।
साँसों के तूफान, सिसकियों की गूँज में कमी आई। और युवक उसके ऊपर गिरकर हाँफने लगा।
हसीना जँगली बिल्ली की भाँति उसके होंठों का शहद चुराने में लगी हुई थी....जैसे उसकी प्यास अभी बाकी हो।
युवक का शरीर ऐंठने लगा। वो लुढ़ककर हसीना की बगल में आ गिरा। चेहरा निस्तेज होने लगा।
“स-सॉरी डार्लिंग....।” उसकी हालत देखकर वो तड़पभरे स्वर में बोली “मैं अब कुछ नहीं कर सकती। तुम्हें अब सो जाना चाहिए....स—सो जाओ....।”
युवक की आँखें फटी-की-फटी रह गईं। शब्द हलक में घुटकर रह गए थे। वो कुछ कहना चाहता था। लेकिन विवश था।
“ज-जीना चाहते हो?” उसके चेहरे के भाव देखकर उसके होंठों को चूमते हुए उसने कहा “नहीं....मैं तुम्हें किसी और के हवाले नहीं कर सकती। तुम मेरे म्यूजियम में आराम करना। वहाँ और भी हैं तुम जैसे....उनके साथ रहना....मैं आकर मिलती रहूँगी ना....।”
युवक का शरीर ठण्डा पड़ने लगा।
और वह! उसे वो सहलाने लगी। पगलाई-सी उसके होंठों को चूमने लगी। एक हाथ की नाजुक और कलात्मक अंगुलियाँ उसके बालों को सहला रही थीं।
“अ-आई लव यू....।” उसके सीने पर हाथ फेरते हुए बालों को सहलाती हुई, वो बोली, “रियली....लव यू सो मच....बिलीव मी....।”
युवक तड़पने लगा।
साँसें जिस्म से निकलने के लिए बेताब होने लगीं। सूखे होंठ हवा के अधर में लटके पत्तों की तरह काँपने लगे।
अचानक!
युवक का शरीर सुन्न पड़ गया। सारे अंग एकाएक ढीले पड़ गए। खुले नेत्र खुले ही रह गए। प्राण जिस्म से उड़ गए उसके।
वो पागलों की तरह उसके चेहरे पर अपनी मुहर अंकित किए जा रही थी। उसकी हालत का उसे पूरा इल्म था। शायद वो विदाई का तरीका था उसका। अपना सम्पूर्ण प्यार वो उस पर उड़ेल देना चाहती थी। बिजली की चमक पर्दों से पार होकर बार-बार ऊपर पड़ रही थी।
मिनट भर तक उसने अपना प्यार उस पर उड़ेला। उसके बाद वो बिस्तर पर से उतरी। अपना झीना गाऊन उठाकर अपने सुगठित बदन पर डालकर वो बाथरूम की तरफ बढ़ गई। अपने पसीने से सराबोर बदन को पौंछना उसने जरूरी नहीं समझा।
बाथरूम की अलमारी में रखी दो शीशियों में से उसने एक शीशी को उठा लिया जिसमें गुलाबी द्रव भरा हुआ था। दूसरी शीशी में पारदर्शी द्रव था।
उसने शीशी का ढक्कन उठाकर उस द्रव का अपने मुँह में स्प्रे किया। फिर उसे लेकर वापिस कमरे में आ गई।
कमरे में रखे जग में से पानी गिलास में उड़ेलने के बाद उस द्रव को पानी में स्प्रे किया। कई बार स्प्रे करने के पश्चात् जब काफी मात्रा में उसमें वह द्रव जाकर मिल गया तो उसने गिलास को होंठों से लगा लिया।
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