दुमछल्ला
पीठ पर चुभन का अहसास होते ही अर्जुन त्यागी का आगे बढ़ता कदम वहीं थम गया।
इससे पहले कि वह पीछे घूमता, फुंफकारती आवाज उसके कानों में पड़ी—
“गर्दन सीधी रख, वरना गोली चल जाएगी।”
अर्जुन त्यागी की पीछे को घूमती गर्दन ही नहीं....बल्कि वह स्वयं भी वहीं स्थिर हो गया।
अशोक नगर में मौत का ताण्डव करने के बाद वह वहां से भागा और सीधा दिल्ली आ पहुंचा।
विचार तो उसके शुरू से ही नेक थे। अण्डरवर्ल्ड का बादशाह बनना चाहता था वह, जबकि तजुर्बे के नाम पर अगर उसके पास कुछ था, तो वही था, जो उसने अशोक नगर में किया था।
इसके अतिरिक्त अगर उसके पास था तो वह उसका आत्म-विश्वास....उसकी दरिन्दगी....और सबसे बढ़कर था उसका दिमाग।
अपने तेज-तर्रार दिमाग की बदौलत ही तो उसने अशोक नगर में ठाकरिया से लोहा लिया था....और अकेले अपने दम पर उसके पूरे गैंग के साथ उसे नेस्तनाबूत किया था।
इसी दिमाग की बदौलत ही वह अशोक नगर से भागने में कामयाब हुआ था और वहां से दिल्ली आ पहुंचा था।
वह दिल्ली की बजाय कहीं और भी जा सकता था। किसी और महानगर में अपने पैर रख सकता था, मगर उसने ऐसा नहीं किया....स्पेशल दिल्ली आया।
क्यों?
क्योंकि उसके जेहन में यह बैठा हुआ था कि दिल्ली से ही उसके अण्डरवर्ल्ड में उठने की शुरुआत होगी....और वह कुछ ही रोज में पूरी दिल्ली पर कब्जा कर लेगा।
इरादे आसमान को छू रहे थे उसके....और जेब में था सिर्फ तीस हजार रुपया। साथ में एक चाकू के दम पर दिल्ली के अण्डरवर्ल्ड को फतह करने आया था यहां....।
रात आठ बजे वह नई दिल्ली स्टेशन से बाहर निकला....वहां से टैक्सी की और ड्राइवर को जी.बी. रोड चलने के लिए कहा।
जिन्दगी में आज तक उसने किसी औरत का सुख प्राप्त नहीं किया था और जी.बी. रोड के बारे में उसने अशोक नगर में काफी कुछ सुन
रखा था....सो उसने रास्ते में ही तय कर लिया था कि वह यहां के अण्डरवर्ल्ड में घुसने से पहले किसी औरत का सुख प्राप्त करेगा....उसके पश्चात् ही वह श्रीगणेश करेगा।
जी.बी. रोड पहुंचकर टैक्सी रुकी तो अर्जुन त्यागी ने ड्राइवर की तरफ देखा।
“आ गया जी.बी. रोड?” उसने पूछा।
“यही तो है।”
ड्राइवर गर्दन पीछे मोड़ते हुए बोला। अर्जुन त्यागी के सवाल से ही वह समझ गया था कि नया पट्ठा है और ऐश करने यहां आया है।
अर्जुन त्यागी ने शीशों में से इधर-उधर देखा, फिर जोरों से थूक सटकी।
“यार....।” वह हिचकिचाया—“मैंने सुना है कि यहां....।” आगे के शब्द उसने अधूरे छोड़ दिये।
“क्या यहां....?” मुस्कुराया टैक्सी ड्राइवर।
अर्जुन त्यागी ने पुनः थूक सटकी।
“लड़की चाहिए....।” उसे चुप देख बोला टैक्सी ड्राइवर।
“ह....हां यार....वो क्या है कि मैं....।”
“दोनों तरफ कोठे बने हुए हैं....चढ़ जाओ किसी की भी सीढ़ियों पर। हां....अगर कुछ खास माल चाहिए तो बोलो....मगर उसके सौ रुपये अलग से देने पड़ेंगे।”
“खास माल....।”
“तुम्हारी जोड़ का....तुम्हारे जैसी ही उम्र। ताजा-ताजा माल। और अगर बासी और सड़ा माल लेना हो तो कहीं भी चले जाओ।”
“यह बासी और सड़ा माल क्या होता है?”
“अगर किसी पौधे की जड़ में हर कोई आकर पानी भरता रहे तो वह पौधा गल जाएगा न....और फिर गले हुए पौधे में से गन्दगी उठने लगती है....जबकि जिस पौधे को जरूरत के अनुसार पानी मिलेगा, वह हरा-भरा रहेगा....।”
हौले से हंस पड़ा अर्जुन त्यागी।
“फिर तो हरा-भरा...तरो-ताजा माल ही लूंगा मैं।”
“पांच सौ रुपये उसके और सौ रुपये मेरे।”
“दूंगा।”
ड्राइवर ने गर्दन सीधी की और टैक्सी स्टार्ट करके आगे बढ़ा दी।
कुछ ही देर में उसने टैक्सी एक जगह खड़ी की और एक तरफ इशारा किया—“उन सीढ़ियों पर चढ़ जाओ, कहना कि सायरा ही चाहिए....इस वक्त वही एक ऐसी कली है, जो ताजी-ताजी खिली है।”
अर्जुन त्यागी ने उधर देखा।
बंद पड़ी दुकानों के बीच उसे ऊपर को जाती तंग सीढ़ियां नजर आईं।
“कोई डर तो नहीं....?” उसने ड्राइवर से पूछा।
“कैसा डर....।”
“पुलिस-वुलिस का....?”
“अरे नहीं....पुलिस तो यहां से अपना हफ्ता लेती है और आंखें मूंद लेती है....। तुम बेफिक्र होकर चढ़ जाओ ऊपर—और चढ़ने से पहले मेरा किराया और सौ रुपये देते जाओ।”
अर्जुन त्यागी ने जेब से पांच-पांच सौ की खुली गड्डी निकाली और उसे खोलकर उनमें से छोटा नोट ढूंढने लगा।
इतने नोट देखकर ड्राइवर की आंखें फट पड़ीं।
उसके हिसाब से पच्चीस-तीस हजार से कम हरगिज नहीं थे वे रुपये।
“जरूर लड़का घर से भागकर आया है....।” वह मन-ही-मन बड़बड़ाया—“अवश्य ही और भी माल होगा इसके पास....शक्ल से ही किसी बड़े बाप की औलाद लगता है।”
अर्जुन त्यागी ने उसमें से सौ के दो नोट निकालकर ड्राइवर को दिये और बोला—
“ठीक....।”
“बिल्कुल ठीक है सेठ....।” नोटों को अपनी जेब में डालते हुए मुस्कुराया टैक्सी ड्राइवर।
अर्जुन त्यागी दरवाजा खोलकर बाहर आ गया।
खौफ तो उसके दिल में पहले से ही नहीं था....सो बिना किसी हिचकिचाहट के वह सीढ़ियां चढ़ता हुआ ऊपर पहुंच गया।
ऊपर पहुंचते ही उसके कदम एक केबिन के सामने रुके जिसमें कि एक कुर्सी पर एक सांवले रंग की अधेड़ उम्र की औरत बैठी पान चबा रही थी।
कुर्सी के पाये के करीब ही प्लास्टिक की एक बाल्टी रखी थी, जिसमें कि उसके मुंह से निकली पीक की दलदल भरी हुई थी।
करीब ही एक लम्बा बैंच था।
औरत के पीछे दीवार पर विभिन्न देवी-देवताओं की तस्वीरें टंगी हुई थीं।
औरत ने उसे देखा और बाल्टी में पीक की पिचकारी छोड़ उसकी तरफ देख मुस्कुराई।
अर्जुन त्यागी भी मुस्कुराया।
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