दुल्हन बनी दुश्मन : Dulhan Bani Dushman by Rajhans
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बदनसीब एकता ने जिस लड़के को दिल की गहराइयों से चाहा, उसके साथ उसका विवाह न हो सका, क्योंकि वह गरीब था... मां-बाप ने जिस रईस लड़के को उसके लिए चुना, उसने उसे कभी भी बीवी का दर्जा नहीं दिया, सिर्फ एक नौकरानी ही समझा...ताउम्र। एकता प्यार को दो पलों के तरसती रही...। लेकिन तब एकता ने रणचण्डी का रूप धरकर अपने-अपने अपमान...अपने आंसुओं का चुन-चुनकर बदला लिया लेकिन क्या वह अपना प्यार हासिल कर पायी?
आधुनिक समाज पर लिखी गई समपर्ण की भावनाओं से ओत-प्रोत वह दास्तान जो प्यार की गहराइयों में डूबकर अमर हो गई।
दुल्हन बनी दुश्मन : Dulhan Bani Dushman
Rajhans : राजहंस
BookMadaari
रवि पॉकेट बुक्स
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कतई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों व दुर्व्यसनों से दूर ही रहें। यह उपन्यास 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यास आगे पढ़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है। प्रूफ संशोधन कार्य को पूर्ण योग्यता व सावधानीपूर्वक किया गया है, लेकिन मानवीय त्रुटि रह सकती है, अत: किसी भी तथ्य सम्बन्धी त्रुटि के लिए लेखक, प्रकाशक व मुद्रक उत्तरदायी नहीं होंगे।
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दुल्हन बनी दुश्मन
राजहंस
लॉन के पास लगे वृक्षों की परछाइयां लम्बी हो चली थीं। कोठी और गेट के बीच जो रास्ता था, उसके दोनों ओर लॉन था। दायीं ओर वाले लॉन में बेंत की कुर्सियां पड़ी हुई थीं। उन कुर्सियों पर वे दोनों बैठे हुए थे, चार कुर्सियों के बीच एक छोटी मेज बिछी हुई थी।
नौकर अभी-अभी शाम की चाय दे गया था। प्रणय अपनी भाभी की उंगलियों को ही देख रहा था। गोरी-गोरी पतली उंगलियों में मेंहदी रची हुई थी। उंगलियां और हथेलियां बहुत सुन्दर लग रही थीं, लेकिन उसकी भाभी एकता के चेहरे की उदासी अच्छी नहीं लग रही थी। वह पिछले सप्ताह से ही उसे उदास तथा खोई-खोई दिखाई दी थी। कई बार मन चाहा था कि उनसे पूछे—‘भाभी, तुम्हारी अभी नई-नई शादी हुई है, फिर आपके होंठों पर मुस्कान के बजाय एक तड़प क्यों है? आंखों में चमक की बजाय एक गहरी मायूसी क्यों है?’
आज वह भाभी से पूछकर ही रहेगा। ‘आखिर भाभी क्यों उदास रहती हो?’ यही सोचते हुए उसने चाय का प्याला उठा लिया और बोला—“भाभी, एक बात बताओगी?”
एकता उसका चेहरा देखती रही, मगर कुछ कह न सकी।
“क्या आपका भैया से झगड़ा हुआ है?”
“नहीं...।”
“फिर तुम्हारी आंखों में उदासी, होंठों पर एक खामोशी क्यों रहती है? जबकि नई ब्याहता औरत तो...।” आगे का वाक्य उसके गले में ही फंसकर रह गया। ऐसा इसलिये हुआ कि एकता के चेहरे के भाव तेजी से बदले थे और उसने भाभी की झील-सी गहरी आंखों में आंसू कांपते देखे थे।
“यह क्या! तुम्हारी आंखों में आंसू?” उसका स्वर कांपा। एकता अपनी उंगलियों की पोरों से आंसू साफ करती हुई बोली— “प्रणय ! क्या औरत सिर्फ सेज सजाने की चीज होती है, क्या सिर्फ वासना के सिवाय उससे और कोई रिश्ता नहीं होता है?” “भाभी...!” प्रणय चौंका—“यह...यह तुम क्या कह रही हो?”
“जो एहसास किया है, उसी के बारे में बता रही हूं। हमारी शादी हुए आठ दिन हो गये हैं। इन आठ दिनों में तुम्हारे भैया ने सिर्फ आठ बार बात की है, वह भी उस क्षण जब उनके शरीर को वासना की आग जला रही थी। क्या वह दुल्हन मुस्कुरा सकती है, जिसका नाता ही सिर्फ वासना के लिये हो? क्या वह दुल्हन खुश रह सकती है जो पति के प्यार भरे बोल सुनने को तरस रही हो? क्या वह दुल्हन खुश रह सकती है जिसके साथ एक नौकरानी जैसा व्यवहार किया जाता हो? बोलो! मैं कैसे खुश रह सकती हूं? जो सपने मैंने देखे थे, जो अरमान सजाये थे, वह मेरे छटपटाते दिल में ही मचलकर दम तोड़ चुके हैं। तुम्हारे भैया की नजरों में मेरा कोई महत्व नहीं है। जानते हो सुहागरात के दिन उन्होंने क्या कहा था? ‘सूरज बासी फूल अपनी सेज पर नहीं सजाया करता। तुम एक बासी फूल हो। मुझे ऐसी औरत में कोई दिलचस्पी नहीं है?” इतना कहकर एकता फफक कर रोने लगी, हिचकियों के कारण कुर्सी पर उसका शरीर कांपने लगा।
प्रणय को लगा कि किसी ने उसे उठाकर गहरी खाई में फेंक दिया हो और वह नीचे लुढ़कता ही जा रहा हो गहरी खाई में।
“यह तुम क्या कह रही हो भाभी?” प्रणय के स्वर में ही नहीं, चेहरे पर भी गहरे आश्चर्य के भाव उभरने लगे।
“तुम्हें शायद विश्वास नहीं होगा कि कल रात उन्होंने मेरी पिटाई भी की है।” एकता आंसुओं को रोकने की कोशिश करते हुए बोली।
“क्या...?” प्रणय अपने स्थान से यूं उछला जैसे किसी ने उसके पास बम फोड़ दिया हो। उसकी आंखें अब भी आश्चर्य से एकता को घूर रही थीं, मानो
उसकी बात पर उसे विश्वास ही न हुआ हो।
“अब तुम्हीं बताओ, क्या कोई औरत इतना बड़ा आरोप सहन कर सकती है?”
प्रणय का चेहरा झुकता चला गया। अभी हाथों की मेंहदी और पांवों की महावर भी नहीं छूटी और अभी से घुटन तथा मन-मुटाव पैदा हो गया।
“लोगों की नजरों में मैं नई-नवेली दुल्हन हूं, लेकिन दुल्हन के हाथों में लगी मेंहदी ही उसके दिल पर, उसकी आत्मा पर जख्म बन चुकी है।” एकता सम्भल चुकी थी। वह नहीं चाहती थी कि घर के और सदस्य भी ये सब बातें जानें।
प्रणय का मन भारी हो गया। वह जानता था कि सूरज भैया का गुस्सा बहुत खराब है, लेकिन भाभी के साथ ऐसे व्यवहार की तो वह कल्पना नहीं कर सकता था। फिर भाभी ने उसे अभी बताया है कि ‘सूरज बासी फूल अपनी सेज पर नहीं सजाया करता। तुम बासी हो, मुझे ऐसी औरत में कोई दिलचस्पी नहीं है।’ भाभी की बताई बात उसके मन में किसी हथौड़े के समान ही लगी थी।
अभी प्रणय अपनी ही सोच में खोया हुआ था कि तभी गेट पर हॉर्न का स्वर सुनकर दोनों ही चौंक पड़े। कार सूरज की थी, प्रणय के भइया की। दरबान ने जल्दी से गेट खोला। कार हवा की तेजी से पोर्च में आकर रुक गई। कार का इन्जन बन्द होते ही दरवाजा खुला।
तभी उसने अपनी भाभी को उठते देखा। वे भइया की ओर लपकीं। वे जब कार से बाहर आये तो उनके हाथ में ब्रीफकेस था, चेहरा कठोर तथा बालों की लट माथे पर पड़ी थी।
“साले न जाने कहां मर जाते हैं नौकर! सभी लापरवाह हो गये हैं। हरिया, बहादुर...क्या सब सो गये हैं?” भैया को खीझते हुए देखा।
प्रणय भी उधर ही चल दिया। उसने उन्हें रोज ही पीते देखा था। आज उसे ऐसा महसूस हो रहा था कि वे आज कुछ अधिक ही पी आये हैं।
उसने दोनों नौकरों को सूरज भइया की ओर तेजी से बढ़ते देखा। हरिया ने उसके हाथ का ब्रीफकेस थाम लिया था। बहादुर डरकर दीवार के साथ लगकर खड़ा था। घर में सभी उनसे डरते थे। डैडी ही नहीं डरते थे और मां कुछ बोलती नहीं थी। घर के नौकर तो ऐसे घबराते थे, जैसे वह कोई खूनी दरिन्दा हो।
प्रणय ने गैलरी में एकता भाभी के पीछे चलते हुए देखा कि वे बैठक में आ गये हैं। वह भी दरवाजे पर खड़ा हो गया, क्योंकि दरवाजे पर परदा पड़ा हुआ था।
“क्या पैरों में मेंहदी लगी थी, जो इस ब्रीफकेस को नहीं पकड़ सकती थी?” सूरज भड़क उठा, उसका स्वर कोड़े की फटकार की तरह था।
“जरा...।” घबराहट के कारण मुंह से शब्द नहीं निकले।
“जरा की बच्ची, बातें तो आकाश में उड़ने जैसी करती है, मगर मेरे सुख की तुझे जरा भी परवाह नहीं है।” उनका लहजा अब भी कठोर ही था।
वह परदा हटाकर तेजी से भीतर आया।
सूरज भइया भाभी के इतने करीब खड़े थे कि वे भाभी को हाथ बढ़ाकर छू सकते थे।
प्रणय ने एकता भाभी का चेहरा भय के कारण पीला पड़ता देखा। शायद उनके भीतर मार खाने का एहसास उन्हें डरा गया था।
‘तड़ाक...!’ की आवाज बैठक में गूंज उठी।
एकता अपना गाल थामकर रह गई। पीड़ा से उसका गाल जलने लगा। आंखों में आंसू झिलमिलाने लगे। उसका दिल धक से रह गया। बेचारी नई-नई शादी हुई है।
जो गाल पति के हाथों के स्पर्श के लिये तरसते रहे, उन्हीं गालों को पीड़ा की आग में जलना पड़ रहा है।
“साली धोखेबाज...!” वे चीखे और झपटकर एकता के बालों को मुट्ठी में भर लिया और कहा—“यह गन्दगी न जाने कहां से आ गई है?”
बात समाप्त करते ही वे उन्हें पीटने लगे। एकता का नाजुक शरीर मार न सहने के कारण फर्श पर दोहरा हो गया और कपड़े अस्त-व्यस्त हो गये।
“भैया! यह क्या पागलपन है?” प्रणय उनके हाथ को पकड़ते हुए बोला। वह एकता को छुड़ाने की कोशिश करने लगा।
“प्रणय, दूर हट जा मेरे आगे से, वरना मेरा हाथ चल जायेगा।” वह गुस्से से पागल हो रहा था। बाल चेहरे पर फैल गये थे। आंखों में अंगारे से धधक रहे थे।
“आप! क्या भाभी को मार ही डालोगे?”
“तू इस गन्दी और आवारा औरत का पक्ष ले रहा है?” वे जोर से बोले।
“भाभी देवी है...देवी...आवारा नहीं।” प्रणय अपना गुस्सा सहन नहीं कर पाया—“वरना ये आपके हाथों इस प्रकार पिटती नहीं?”
“तू हमसे आंख मिलाता है और हमें उपदेश देता है?” यह कहते हुए सूरज ने एकता को छोड़ दिया और प्रणय पर टूट पड़ा। इससे पहले कि प्रणय अपने आपको बचाता तभी एक घूंसा उसके मुंह पर पड़ा। वह चीखकर फर्श पर गिर पड़ा। उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया।
तभी एकता सम्भली। सूरज को प्रणय का कॉलर पकड़ते देख वह प्रणय के ही शरीर पर गिर पड़ी। गिड़गिड़ाते हुए वह बोली—“इस बेचारे का क्या कसूर है। मैं तो पराई हूं, लेकिन यह तो आपका खून है, आपका छोटा भाई।”
सूरज चौंका। गुस्से में वह वो कर बैठा, जो उसने आज तक नहीं किया था। कुछ पल उसे घूरने के बाद वह मुड़ा और कमरे से बाहर निकल गया।
“भाभी...!” प्रणय ने कराहते हुए एकता का हाथ थाम लिया।
एकता उसकी पीठ सहलाते हुए रो रही थी, जैसे मां अपने बेटे की पीठ सहलाती है।
¶¶
“यह...यह मेंहदी ही मेरी आत्मा पर जख्म बन गई है। ना हाथों में रचती...ना यह पीड़ा...यह अपमान सहन करना पड़ता।” एकता किसी पागल के समान ही बड़बड़ाती चली गई।
कमरे में उसकी हिचकियां गूंजने लगीं। इस घर में सभी झूठ बोलते हैं। सच कौन बोलता है, कहा नहीं जा सकता। हां प्रणय ही सबसे अलग लगा था। उसी के सामने उसके भीतर की पीड़ा आंखों में उतरकर बहने लगती थी। सोचों की गहरी खाई में वह उतरती चली गई थी।
वह अपने मेंहदी रचे हाथों को देखती ही रह गई थी, जो फेरों से पहले उसकी सहेलियों ने लगाई थी। सोचों की गहरी खाई में वह उतरती चली गई थी।
घर के नौकर हरिया से ही पता चला था—सास-ससुर शादी में गये हैं और अभी तक नहीं लौटे हैं। उसके पति क्लब चले गये होंगे। यह रोज का ही नियम था। फैक्ट्री से घर आना...और फिर क्लब जाना। फिर रात को कब लौटते थे, उसे याद नहीं रहता था। सुबह आंख खुलती थी, तो वह पति को सोते हुए ही देखती थी। ना कभी पति की आंखों में अपने लिये प्यार देखा था...ना ही होंठों पर कभी मुस्कुराहट ही देखी थी।
इस कोठी में आते ही जान लिया था। घर के और तो और नौकर भी झूठ बोलते हैं। बहादुर भी झूठ बोलता है। बाजार से जो सामान खरीद कर लाता है...उसका रेट बढ़ाकर ही बताता है। जानते हुए ही मान लिया जाता है क्योंकि नौकर आसानी से मिल भी तो नहीं पाते हैं। ना जाने कितने बदल चुके हैं। सूरज के हाथों पिटने के कारण कोई भी टिक नहीं पाता है। इन थोड़े-से दिनों में ही उसने बहुत कुछ जान लिया था। सास-ससुर का इस घर में कोई महत्व नहीं था। सास पहली बार ही उसके करीब आई थी। तब पति को ही झाड़ते सुना था—‘मां...मैं यह सब पसन्द नहीं करता...तुम बैड टी मत दे जाया करो...मेम साहब आखिर तुम्हारी बहू है...यह खुद सब को चाय देगी।’ उस दिन के बाद सास कभी उसके पास नहीं आई थी। ना आने का कारण सूरज का डर ही था। सारे घर में सूरज ही हावी था। यहां तक कि उसका ससुर भी डरता था। वह दोनों बिल्कुल अलग-अलग ही रहते थे और किरन...उसकी ननद ...वह तो झूठ बोलने की स्पेशलिस्ट ही थी। सहेलियों के साथ बढ़-चढ़कर बातें करती है। पैसा आ जाने पर आदमी कल की बात भूल जाता है। उस कल को, जो बीत चुका है। आदमी सिर्फ आज को याद रखता है...आज का सुख...आज की स्थिति...आज की स्थिति उसे बीते हुए कल के बारे में झूठ कहने पर उकसाती है। आदमी कह नहीं पाता कि वह कल क्या था? उसने अपने पिता से ही सुना था। सूरज के डैडी उसके ससुर बीते हुए कल में किसी वाशिंग पाउडर के सेल्समैन थे। बोझ से भरा थैला कन्धे पर लादे घर-घर घूमते थे। ‘बहन जी, इसे प्रयोग करके देखें। कपड़े बहुत अच्छे साफ होते हैं’ और आज वह भूल गये हैं अपने कल को। उन्हें सिर्फ आज की बात याद है। आज वह शहर के माने हुए रईस आदमी हैं। उनके पास एयरकन्डीशनर है...फ्रिज, कोठी है...कारें हैं...बड़ा नाम भी है और ढेरों रुपया भी। विमल धवन को कौन नहीं जानता? इतना बड़ा व्यापारी...यही किरन के पिता का आज है। बीते हुए कल को किरन भी तो भूल गई है। वह भूल गई है...कभी उसके पिता कन्धे पर थैला लटकाये घर-घर घूमते थे। आज वह बड़ी शान से कहती है—‘हमारे दादाजी बहुत बड़े जमींदार थे। डैडी को कोई भी काम करने ही नहीं दिया...डैडी बड़े-बड़े नवाबों के साथ बैठकर चोपड़ ही खेला करते थे। नवाब का नौकर जब डैडी को बुलाने आता था, तब डैडी ही कहते थे—‘नहीं भाई...नवाब साहब से कह देना, आज मैं आ ही नहीं सकता। हमारी बेटी जिद्द कर रही है, कहीं जाने ही नहीं दे रही। मैं उसकी बात टाल भी तो नहीं सकता।’ किरन कहने के बाद अपनी सहेलियों के चेहरों को बारी-बारी से देखती थी। सभी चेहरे प्रभाव में ही नजर आते थे।
बड़ी अदा से मुस्कुराते हुए सोफे पर अपने शरीर को धंसाते हुए कहती—‘सच शोभा...’ डैडी मेरे बिना खाना नहीं खा सकते हैं। बहुत प्यार करते हैं...मेरी कोई भी फरमाइश कभी टाल ही नहीं पाते हैं।’
‘सच कहती है।’ उसकी सहेली पूछ लेती थी, तो वह तपाक से कहती—‘तो मुझे क्या झूठा समझ रही है? मुझमें एक ही आदत बुरी है...मैं झूठ ही नहीं बोल सकती।’
और एकता ने पहली बार ही सोच लिया था—‘किरन सब कुछ कर सकती है...बस अगर कुछ नहीं कर सकती तो वह है सच बोलना।”
इस घर के सारे ही माहौल ने उसे जो घुटन और पीड़ा दी थी, वह उसे गीली लकड़ी के समान सुलगाता चला गया था। मन उदास-सा था। बेदिली से ही वह कमरे में से बाहर आई। सामने लॉन में खिले फूलों पर उसकी नजरें टिक गई थीं। लॉन में खिले फूलों की ओर नजरें उठती चली गई। नजरें फलों पर ही टिक गईं। तभी मन में एक सोच उभरी थी...क्या यह फूल किसी अबोध बच्चे के होंठों पर खिली मुस्कुराहट के समान जानते हैं कि क्या इनका भाग्य मुरझा कर बिखरना और बिखरकर धूल में मिल जाना है? उसके अपने जीवन के समान।
फूल को डाली से टूटकर गिरते तो देखा है। टूटकर गिरने के बाद बिखरते भी देखा है, परन्तु उसे कभी भी चीखते नहीं देखा...वह भी तो सहती ही रही है। कभी भी चीखी नहीं है।
पति की शर्ट से लम्बे-लम्बे बाल निकालते हुए कभी नहीं पूछा—‘यह बाल किसके हैं?’ वह जानती थी पति झूठ ही बोलेगा, फिर ऐसी नौबत भी तो नहीं आई थी।
यहां हर तरफ झूठों के ही साये कहकहे लगाते नजर आते हैं...एक उसका अपना घर था। जहां झूठ बोलना किसी अपराध समान ही माना जाता है। सोचें घर की ओर भागती चली गई थीं। उसका अपना घर स्वर्ग जैसा ही तो था। विगत की एक-एक तस्वीर उसकी आंखों के आगे सजीव ही नाचती चली गई। वह रोज डैडी के सभी काम करती थी। नौकरानी को कभी हाथ नहीं लगाने देती थी।
उस दिन...।
एकता ने जल्दी-जल्दी डायनिंग टेबिल पर नाश्ता लगा दिया था और बोली—“डैडी...मुन्ना...मुन्नी...मां चलो...फटाफट नाश्ता रेडी है।”
“पहले तू नाश्ता कर ले बेटी...मैं तेरे पिताजी के कोट पर प्रेस कर दूं।” मां ने ही कहा।
“प्रेस मैं कर दूंगी मां...तुम नाश्ता करो।”
पिताजी और बच्चे छोटी-छोटी कुर्सियों पर बैठ चुके थे। एकता ने मां के हाथ से कोट और प्रेस लिया और मां को जबरदस्ती कुर्सी पर ला बिठाया। मां ने कहा—“तू क्या-क्या करेगी बेटी? सूरज निकलने से पहले बिस्तर से उठती है। नौकरानी की कभी परवाह ही नहीं करती। छोटे भाई-बहनों को नहला-धुलाकर स्कूल के लिये तैयार करती है। नाश्ता बनाती है...पिताजी और बच्चों को नाश्ता...क्या-क्या नहीं करती? सबसे बाद में नाश्ता करती है। फिर...कॉलेज जाती है...कॉलेज से लौटते ही फिर काम में लग जाती है। इस घर को स्वर्ग बना रखा है।”
“शाम का खाना तो तुम बना लेती हो ना मां?”
“तेरे बस की बात होती तो वह भी मुझे ना बनाने दे...! एकदम काहिल बनाए दे रही है मुझे।”
“मां...ऐसा करने से मुझे दो तरह से लाभ हैं।”
“दो तरह से।”
“हां मां।”
“वह भला कैसे?”
“पहला नम्बर...मम्मी-डैडी की सेवा का सुख फल...साथ ही अपने छोटे भाई-बहन भी एहसास करते रहेंगे कि उनकी दीदी भी थी जो उनका ख्याल रखती थी। दूसरा और सबसे बड़ा लाभ यह है कि जब मैं अपनी ससुराल जाऊंगी तो अचानक घर के काम का बोझ भी महसूस नहीं होगा...आदत पड़ी होगी तो साथ-ही-साथ माता-पिता का नाम भी रोशन होगा कि इतनी सुघढ़ बेटी को जन्म दिया।”
उसके डैडी हंसने लगे और मां ने कहा—“तू बेशर्म भी हो गई है, भला लड़की भी शादी की बात करती है।”
“वाह! मम्मी, इसमें शर्म की क्या बात है...शादी तो हर लड़की की होती है।”
“एकता सही तो कहती है।”
तब नहीं जानती थी...यही शादी उसकी बरबादी की आंधी बनकर ही उसके सपनों के आशियाने के तिनकों को दूर उड़ाकर बिखेर देगी। काश! वह दुल्हन ना बनती। हाथों में मेंहदी ना रची जाती। पांवों में महावर नहीं रचाया जाता। ना ही मांग में सिंदूर सजाया जाता।
यही सोचते हुए उसकी नजरें अपने हाथों पर लगी मेंहदी पर टिक गई। यह मेंहदी नहीं रही है। इसकी आत्मा पर जख्म ही तो बन गये हैं।
“भाभी...!”
किसी ने पुकारा। उसकी सोचें टूट गईं। चौंककर ही देखा। पास ही प्रणय खड़ा नजर आया। चेहरा उदास था। चेहरे पर होंठों के पास सूजन थी।
“कहां खो गई थीं?” वह पास आकर रुकते हुए बोला।
“कहीं नहीं प्रणय...घर की याद आ गयी थी।” एकता का गला भर आया अपनी ही बेबसी पर...क्या सोचा था...क्या हो गया है?
“चलो, खाना ठण्डा हो रहा है।”
“नहीं प्रणय...मुझे भूख नहीं है।”
“भाभी...!” प्रणय कराह उठा। उसका दिल रो रहा था, देवी समान भाभी की क्या दशा बना दी है भइया ने। वह एक गहरी सांस लेकर एकता के चेहरे की ओर देखते हुए बोला—“खाना ना खाने से वह घुटन कम तो नहीं होगी...खाना तो खाना ही होता है।”
“मैं खा तो नहीं सकूंगी प्रणय।”
“ठीक है...मैं भी नहीं खाऊंगा।” कहते हुए प्रणय उसके पास ही पड़ी कुर्सी पर बैठ गया।
“प्रणय...तू मेरे लिये खाना भी नहीं खायेगा?” एकता का मन भर आया।
एक यह है जो उसके बिना खाना भी खाना नहीं चाहता...एक पति है उसकी शक्ल देखना भी पसन्द नहीं करता है। आखिर प्रणय के शरीर में भी वही खून है।
“हां भाभी...जिस घर में देवी समान भाभी भूखी बैठी हो, भला मैं कैसे खाना खा सकता हूं?” प्रणय की आवाज टूट गई गहरे अपनेपन के कारण। वह भाभी की यह दशा सहन नहीं कर पा रहा था।
एकता की आंखें भर आई थीं। वह नहीं चाहती थी कि उसके कारण उसका देवर भूखा रहे। इस सारे घर में वही एक तो उसका हमदर्द था। वह बेदिली से ही अपनी साड़ी से अपनी आंखें पोंछती हुई उठ गई थी।
¶¶
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Additional information
Book Title | दुल्हन बनी दुश्मन : Dulhan Bani Dushman by Rajhans |
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Isbn No | |
No of Pages | 270 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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