दिल आशनां है
एक
समझ में नहीं आ रहा कि कहां से मैं अपनी इस कहानी की शुरूआत करूं। अपने जन्म से या अपनी किस्मत के उस चक्र से, जिसने मेरे जीवन में एकाएक कई क्रान्तिकारी बदलाव ला डाले। हंसती-खेलती जिंदगी को अचानक ही तेज अंधड़ों में धकेल दिया। मैं जैसा भी था, तब कम-से-कम खुश था। दुनिया में एक तो शख्स था जो मेरी खुशी व गम में मेरे साथ था। मुझे एक माली की मानिन्द सींचकर मुझे एक खूब फलदायक, छायादार वृक्ष बनाना ही जिसका मुख्य मकसद था। जो अपने ही हाथों आटा गूंथते थे। प्यार से रोटियां पकाते थे और जैसी बनती थीं, मेरे साथ बैठकर खाते थे।
हाँ!
वो मेरे पापा थे।
सारे जहां में मेरे इकलौते रिश्तेदार! या मैं कहूं कि मेरा संसार—तो मानता हूं—सटीक रहेगा। उनके अलावा कुछ था ही नहीं संसार में मेरा। माँ का तो पता ही नहीं था तब कैसी होती है! तब सुना जरूर था कि बच्चों की माँ भी हुआ करती है। मेरे अलावा और सब बच्चों की भी माँ थी बस्ती में। कभी-कभी टीस भी उभरती थी किन्तु उस टीस को पापा के प्यार का मरहम हमेशा ही शान्त कर दिया करता था। मुझे कभी इस बात का मलाल नहीं था कि मेरे पापा के अलावा मेरा इस जहान में कोई नहीं है।
आह!
जालिम किस्मत ने उन्हें भी मुझसे छीन लिया था, जब मैं केवल बारह वर्ष का था। मैं कभी भी उस दिन को नहीं भूल सकता।
उस दिन....।
दो
टन....टन....टन....!
घण्टी की आवाज ने छुट्टी होने की घोषणा की।
हमारी बस्ती के म्युनिसपिल्टी स्कूल के छात्रों के लिए वो आजादी की घोषणा थी। उस आजादी की चमक तब, जब वे अपना बस्ता उठाकर क्लास से बाहर निकला करते हैं, आप आसानी से उन सबके मासूम चेहरों पर देख सकते हैं।
स्कूल के गेट पर अगर कोई उस वक्त खड़ा होकर देखे तो साक्षात् वानर सेना के दर्शन होंगे, जो आपस में हंसती-खिलखिलाती जैसे-तैसे हाल में अपने बस्तों को संभाले बाहर की तरफ बढ़ती है।
मैं अपने दोस्त कल्लू के साथ दरवाजे से बाहर निकला ही था कि मैंने बाहर अपने पड़ोस के ताऊ के बेटे को दरवाजे पर ही खड़े पाया। राजू भैया मुझसे छः साल बड़े हैं।
“शामू।” उन्होंने जब मुझे पुकारा तो मेरा ध्यान उनकी तरफ गया था।
उन्होंने मुझे पुकारा ही था कि झपटकर वे मेरे करीब भी आ गये।
उस दिन कुछ ज्यादा ही गंभीर थे वो।
तुरन्त ही उन्होंने मेरी कलाई पकड़ी और कहा—“चलो।”
मैं उनके साथ घिसटता-सा चल दिया। पीठ पर लदे बस्ते का कोई ध्यान नहीं। उनके उस अजीब से व्यवहार ने मेरा दिल बैठाकर रख दिया।
“राजू भैया”—उनकी चाल के साथ लगभग भागते हुए मैंने घबराए स्वर में पूछा—“क्या बात है?”
मगर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।
मेरे कई बार पूछने के बाद उन्होंने केवल इतना ही कहा था—“तुझे साहब बुला रहे हैं।”
वो मुझे जहां ले गये, मैं उस बंगले को अच्छी तरह पहचानता था।
मेरे पापा उसी बंगले में माली की नौकरी करते थे। कई बार मैं वहां जा चुका था। यदि कहूं मैं अक्सर वहां जाता रहता था—तो गलत न होगा।
मैंने जब बंगले के गेट पर कदम रखा तो वहां पर मैंने अजीब-सा सन्नाटा व्याप्त महसूस किया। रोज तो गेटकीपर मेरे वहां पहुंचते ही कहा करता था—“आ गए श्याम बाबू!”
उस दिन उसने कुछ नहीं कहा। बस सहानुभूतिपूर्ण नजरों से मुझे देखता रह गया।
मैं अन्दर गया।
अन्दर लॉन में पापा मुझे दिखाई नहीं दिए। मिला तो केवल सन्नाटा ही। अजीब-सी खामोशी।
वो मुझे बंगले के अन्दर ले गया।
जब हम दोनों ने अन्दर ड्राइंग हॉल में कदम रखा तो वहां बंगले के सभी लोगों को इकट्ठा पाया। राजू भैया के मम्मी-पापा भी वहीं थे। मगर पापा उनके बीच मुझे नजर नहीं आये।
तभी!
उनके मध्य सफेद कपड़े से ढकी एक लाश पर मेरी निगाह जा ठहरी।
लाश!
मैंने देखा, मेरी ताई जी लाश के पास बैठी रो रही थीं।
मेरा दिल जोर से धड़का।
कपड़े से ढकी सबके बीच रखी लाश को देखकर जाने क्यों मेरा दिल बेकाबू हो उठा। मन में अचानक ही कई बुरी शंकाओं ने जन्म ले लिया।
उन शंकाओं को बढ़ावा ताई का रोना, पापा का उनके बीच न होना और उन सबकी नजरें दे रही थीं। हर नजर में सहानुभूति।
मेरी नजर कोमल पर गई।
वो भी अपनी मम्मी का हाथ थामें एकदम चुप, सहमी-सी खड़ी थी। वो सात साल की थी। बड़ी शैतान। उस दिन वो भी एकदम खामोश थी। अपनी काली-काली आंखों में अजीब से भाव समेटे मुझे देख रही थी। मगर उनमें सहानुभूति नहीं थी।
मेरा ध्यान लाश की तरफ गया।
एक अजीब-सा भाव मुझे तब बरबस ही उस लाश तक ले गया।
मैं धड़कते दिल से लाश के पास बैठ गया।
मैंने धीरे से लाश के चेहरे से कपड़ा हटाया।
उफ्!
एकाएक मानो मेरे चारों तरफ बिजलियां कड़कीं। वजूद पर वज्रपात हुआ। मेरे कण्ठ से चीख निकल गई।
ओह! पापा ही थे वे।
उनका चेहरा खून से लथपथ था।
मैं होश खोकर उनके सीने से लिपट गया। आंखों से अविरल धाराएं बह निकलीं। उस दिन पापा का सीना अन्य दिनों की मानिन्द कठोर नहीं था।
मेरे आंसू उस सफेद चादर को भिगोते रहे। मगर पापा के जिस्म में कोई हलचल नहीं हुई। वो उसी प्रकार अचल पड़े रहे। उठते कैसे? वे तो वहां थे ही नहीं। नहीं तो मेरा रोना पापा बर्दाश्त कर सकते थे भला!
कुछ ही देर बाद पापा की लाश पर से मुझे राजू भैया ने हटा लिया। मैं भैया से लिपट कर खूब रोया। वे आंसू जो पहले पापा की पिलपिली छाती पर बिछी चादर को भिगो रहे थे, तब भैया की शर्ट को गीला करने लगे।
ताई-ताऊ लाश को घर ले आए।
पापा की चिता को मैंने अपने हाथों से अग्नि दी । मैं जिस हाथ से पापा के हाथ थामकर सड़कों पर चलता था, उसी हाथ में ताऊ ने मशाल थमाई थी। उस शाम पापा की चिता के साथ मेरा संसार जलकर खाक हो गया।
क्रियाकर्म से लौटने के बाद ताई जी मुझे अपने घर ले गईं। शाम को उन्होंने मुझे खाना खिलाना चाहा, लेकिन मैंने इंकार कर दिया।
कैसे खाता! भूख तो खत्म ही हो चुकी थी। सुबह स्कूल जाने से पहले मैंने पापा के हाथों से बना डेढ़ परांठा खाया था चाय के साथ। रोज जब मैं स्कूल से आता था तो आते ही खाने पर टूट पड़ता था। बस्ता फेंकते ही पहले मैं घर में रखे खाने की तरफ भागता था। छुट्टी के वक्त भी मुझे उस दिन जोरों की भूख लगी थी। मगर पापा की लाश देखकर सब खत्म हो गया।
खैर!
ताई जी ने मुझे खिला ही दिया।
मैंने उनके जबरदस्ती करने पर, असीम प्रेम के आगे झुककर, मन को कुचलकर एक रोटी हलक से नीचे धकेली—बस धकेली ही। हर निवाला हलक में उतरने के बजाए बाहर निकलने को तत्पर था।
रात को मैं वहीं सोया।
तीन
सुबह!
उस दिन की सुबह में भी समस्त संसार के लिए हर रोज जैसी प्रफुल्लता थी। ताजगी थी। उल्लास था। उस दिन भी चिड़ियां मधुर स्वर में चहचहाई थीं। हवा में सुहानापन था। लेकिन वो सब मैंने महसूस नहीं किया। मैं स्कूल नहीं गया।
कैसे जाता?
और जाता कितने दिन? उस महीने भर तक जिसकी फीस पापा जमा कर चुके थे, उससे आगे कौन था, जो मुझे पढ़ाता? आगे तो मुझे ही अपना पेट भरने का इन्तजाम करना था।
तीसरे दिन मैं अपने घर में रोज की तरह उदास था। एकान्त मिला तो दिल स्वतः ही रो दिया। आंखों से आंसू छलक पड़े।
ऐसा ही होता है। जब इंसान तन्हा होता है, तो हमेशा उसे अपने उस साथी की याद सताती है, जो उसकी तन्हाई बांटता हो, जिसका साथ पाकर उसे सुकून का अहसास हो। कड़वी-से-कड़वी बात जिसका साथ भुला दिया करता हो। बचपन में सामान्यतः वो शख्सियत मां होती है। जो स्थान जवानी में खाली होकर तमाम उम्र जीवन-साथी द्वारा भर दिया जाता है। मेरे साथ जुदा हालात थे, सो उस स्थान को पापा ने भर रखा था। अब वो साया भी कठोर ईश्वर ने मुझसे छीन लिया था।
तभी अचानक!
किसी कार के रुकने की आवाज मेरे कानों में पड़ी। ठीक दरवाजे के सामने आकर किसी कार के इंजन की घरघराहट में खामोशी आई थी। मेरे दिल में उत्सुकता जागी। लगा कि जैसे कोई मुझी से मिलने आया हो। इस अहसास ने मेरी उत्सुकता को और बढ़ा दिया था। मगर चाहकर भी न उठ सका खाट पर से।
सच!
कुछ ही सैकण्डों बाद दरवाजे पर मुझे किसी की आमद का अहसास हुआ।
मैंने उधर देखा।
देखा तो चकित रह गया मैं। रोना भूलकर मैं बस उन्हें देखता रहा गया।
वे पापा के मालिक कन्हैयालाल भार्गव, उनकी पत्नी प्रेमलता भार्गव, और साथ में आई थी कोमल! कोमल भार्गव।
उनका मार्गदर्शन करते हुए राजू भैया ही अन्दर लाए थे उन्हें।
मैं खुद-ब-खुद खाट पर से उठकर खड़ा हो गया था।
चारों मेरे पास आ गए।
मिसेज भार्गव ने अपना स्नेहपूर्ण हाथ मेरे सिर पर टिका कर बड़े प्यार से पूछा—“कैसे हो शामू?”
“ज....जी ठीक हूं।” मैं अपने दिल में उभरी उस वेदना को वहीं दफन करके बोला। कुछ ऐसा ही दस्तूर इस दुनिया का है—इंसान चाहे जितना भी तकलीफ में हो, किसी के पूछे जाने पर कि वो कैसा है उसे कहना ही पड़ता है—ठीक हूं। कम-से-कम मैं भी उस दस्तूर से वाकिफ हो गया था। उसी कारण शायद मैंने कहा था—“ठीक हूं।”
“तुम तो रो रहे हो।” एकाएक बीच में कोमल बोल पड़ी।
“म....मैं कहां रो रहा हूं।” एकाएक मैं बौखला गया। उस मासूम बच्ची से मुझे उस वक्त ऐसी उम्मीद नहीं थी।
“पर आंसू तो आये हैं।” तपाक से उसने कहा।
तब मुझे वास्तविकता का अहसास हुआ।
चटपट आंसू पौछे और उसकी तरफ देखा। मुझे देखकर उसके मासूम गोल मुखड़े पर मुस्कान खेल गई।
कितनी निर्मल और मासूम थी उसकी मुस्कान!
“हम तुम्हें लेने आये हैं बेटे।” तब मिसेज भार्गव ने कहा—“अब तुम हमारे साथ रहोगे।”
“म....मेम साहब।” समझ में नहीं आया मैं क्या कहूं? किस प्रकार मैं अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करूं? दिल में अजीब-सा ज्वारभाटा उठा था उस वक्त।
दिमाग निष्क्रिय हो गया। दिमाग की धमनियां सुन्न हो गयी थीं। एक गुबार-सा मेरे सीने में से उस वक्त उठा और वो मेरे गले में जा अटका।
“तुम्हें कोई एतराज है बेटे....?” फिर स्नेहपूर्ण स्वर में मेम साहब ने कहा तो गुबार जाने क्यों कम हुआ। शायद वो उनके प्रेम का जादू था या कुछ और।
मगर जवाब मैं तब भी नहीं दे सका।
फिर वे मुझे लेकर खाट पर बैठ गईं। साहब ने बैठने का कोई उपक्रम नहीं किया। वे जैसे आए थे, वैसे ही खड़े रहे।
मेम साहब ने प्यार से मेरे कन्धों पर अपनी बांह फैलाकर मुझे अपने करीब बैठा लिया।
“देखो शामू!” ममत्व भरे अन्दाज में वो बोलीं—“तुम यहां पर अकेले रहते हो। हमारे घर में रहोगे तो हम तुम्हारी पढ़ाई आगे जारी रख सकते हैं। तुम बहुत पढ़ना चाहते हो ना! तुम्हारे पापा भी यही चाहते थे। तुम वहां रहना और खूब पढ़ना। अच्छा, मैंने तुम्हारी ताई जी से बात कर ली है।”
मैं क्या कहता!
उस वक्त तो मेरी हालत सड़क पर पड़े पत्थर की सी थी, जिधर ठोकर मारकर धकेल दिया, लुढ़कता चला गया। मेरे कहने सुनने का किसी पर भी फर्क क्या पड़ना था। लुढ़कते पत्थर की पुकार सुनता ही कौन है! वो पूरी तरह नियति के और लुढ़काने वाले पर निर्भर रहता है।
admin –
Aliquam fringilla euismod risus ac bibendum. Sed sit amet sem varius ante feugiat lacinia. Nunc ipsum nulla, vulputate ut venenatis vitae, malesuada ut mi. Quisque iaculis, dui congue placerat pretium, augue erat accumsan lacus