धर्मयुद्ध
राष्ट्रपति भवन के अन्दर कोहराम-सा मचा हुआ था—बाहर निरन्तर गनों की गर्जना एवं टैंकों की हुंकार गूंज रही थी—इंसानी चीखो-पुकार का बाजार गर्म था।
ऐसा महसूस हो रहा था जैसे राष्ट्रपति भवन के आस-पास का क्षेत्र एकाएक ही किसी युद्धस्थल में बदल गया हो—बाहर आग बरस रही थी—इंसानी चीखें गूंज रही थीं।
प्रलय-सी आ गई थी।
हर तरफ चीखो-पुकार, हाहाकार, कोहराम और मारकाट।
एक ही मुल्क की सेना दो हिस्सों में बंटकर युद्ध करने लगी थी।
एक हिस्से का प्रयास राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लेना था और दूसरे का उसकी हिफाजत करना।
धरती कांप रही थी—आकाश थर्रा रहा था—रह-रहकर राष्ट्रपति भवन की मजबूत दीवारें झनझना उठतीं—एकाएक ही सेना का दूसरा हिस्सा मानो विनाश पर तुल गया था।
अन्दर भगदड़ मची हुई थी।
बौखलाए-से राष्ट्रपति भवन के सभी कर्मचारी इधर-उधर दौड़ रहे थे—सभी घबराए हुए—बदहवास—आतंकित और उलझे हुए थे—अधिकांश चेहरे प्रश्चवाचक चिन्ह बन गए थे।
उन्हीं में से एक चेहरा राष्ट्रपति का भी था।
राष्ट्रपति सादात का।
वे पागलों की तरह राष्ट्रपति भवन के बड़े-बड़े कमरे, हॉलों और गैलरियों में भागे फिर रहे थे—उन्होंने कई कर्मचारियों से पूछा कि यह सब क्या हो रहा है?
परन्तु कोई कुछ न बता सका।
कदाचित् किसी को पता न था।
बौखलाए-से राष्ट्रपति एक शक्तिशाली ट्रांसमीटर के नजदीक पहुंचे—उस पर सम्बन्ध स्थापित करने के बाद काफी देर तक 'हैलो-हैलो' करते रहे, परन्तु परिणाम....।
ढाक के तीन पात।
अन्त में झुंझलाकर उन्होंने हैडफोन ट्रांसमीटर पर दे मारा—हैडफोन के टुकड़े-टुकड़े हो गए—वातावरण में बारूद की गंध फैलने लगी थी—सिर्फ एक क्षण के लिए उनकी दृष्टि खुली हुई खिड़की पर स्थिर हुई, अगले ही पल वे उस तरफ लपके।
बाहर युद्ध चल रहा था।
वे खिड़की के समीप पहुंचे—अभी बाहर झांकने ही जा रहे थे कि—
"न...नहीं सर!" किसी ने तेजी से चीखकर उनकी बांह पकड़ी और अनायास ही एक चीख के साथ राष्ट्रपति सादात संगमरमर के फर्श पर जा गिरे।
एक झटके से उन्होंने खिड़की बन्द होने की आवाज सुनी।
वे उठे—घूमे।
खिड़की बन्द करने वाला भी मुड़ा।
"तु...तुम—मेजर हाशमी?" सादात के कण्ठ से चीख-सी उबल पड़ी।
"ज...जी हां—माफ कीजिए सर!" उसने तेज किन्तु सम्मानित स्वर में कहा। उसके जिस्म पर मौजूद मेजर की वर्दी खून से पुती पड़ी थी—चेहरा लहूलुहान—बाल बिखरे हुए—मेजर हाशमी नामक उस युवक के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं—उसके कंधे में गोली लगी थी—खून यूं बह रहा था, जैसे भारी वर्षा में कोई पतनाला।
राष्ट्रपति सादात चकित स्वर में चीख-से पड़े—"य...यह सब क्या है, मेजर?"
"वही जिसकी चेतावनी मैं आपको समय-समय पर देता रहा था।"
"व...विद्रोह?"
"हां।"
"नहीं!" पूरी शक्ति से चीखकर राष्ट्रपति सादात पीछे हट गए।
"यह सच है सर—हालात बेकाबू हो चुके हैं—विदेशी सेना पूरी तरह जनरल इबलीस के साथ है—हमारी सेना के भी दो हिस्से हो गए हैं—सेना का एक बड़ा हिस्सा इबलीस के साथ चला गया है—आपके हक की सेना कमजोर पड़ रही है।"
"न...नहीं!" सादात की चीख निकल गई।
"मैंने आपको कितना समझाया था सर—मेरी एक न सुनी आपने। जिस दिन आपने विदेशी सेना को इस मुल्क में बुलाया था, मैंने उसी दिन...।"
"म...मगर विदेशी सेना को तो हमने विद्रोहियों को कुचलने के लिए बुलाया था।"
"मैंने उसी दिन कहा था कि एक दिन विदेशी हमारे मुल्क पर कब्जा कर लेंगे।"
"मेजर!"
"मैंने आपसे कहा था कि भले ही आपके निमंत्रण पर सही, लेकिन यदि एक बार विदेशी सेना के पैर हमारे मुल्क की जमीन पर पड़ गए तो फिर वे यहां से निकाले न निकलेंगे—आपने कहा था कि वे हमारे मित्र देश की सेनाएँ हैं—ऐसा नहीं होगा—मगर...कोई भी बड़ा मुल्क किसी भी छोटे मुल्क का दोस्त नहीं हो सकता, सर—हां, अपना उल्लू सीधा करने के लिए दोस्ती का मुखौटा जरूर चढ़ा सकता है।
वही हुआ—आपके आदेश पर विदेशी सेना ने विद्रोहियों को कुचल तो दिया मगर इस मुल्क से विदेशी सेना अपने मुल्क न लौटी—यहीं डेरा डालकर पड़ गई—सारे मुल्क में फैल गई—आपने उनके राष्ट्रपति से भी बातें कीं, मगर व्यर्थ—उन्होंने आपसे कीमत मांगी—इस मुल्क से अपनी सेनाएं हटाने की शर्तें रखीं—इस मुल्क की धरती पर अपना सैनिक अड्डा स्थापित करने जैसी भयानक शर्तें।"
"ल...लेकिन—हमने उनकी शर्तें नहीं मानीं।"
"जनरल इबलीस ने मान ली हैं।"
"हाशमी!"
"हकीकत यही है, सर—यदि आप मेरी बात मान लेते जो आज यह दिन देखना न पड़ता—मैंने आपसे सैंकड़ों मर्तबा कहा कि जनरल इबलीस गद्दार है—उसकी एक आंख सिर्फ और सिर्फ इस मुल्क के राष्ट्रपति की गद्दी को देख रही है—उस हरामी ने सेना का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने हक में कर लिया है—आप ही ने तो जनरल बनाया था उसे—सैनिक विद्रोह के बूते पर वह राष्ट्रपति की कुर्सी हथियाने के ख्वाब देख रहा था—विदेशियों को एक ऐसे गद्दार की तलाश थी—वे मिल गए—उनके बीच सौदा हो गया—विदेशी सेना ने उसे राष्ट्रपति बनाने का वचन दिया और इबलीस ने उनकी सभी शर्तें मंजूर करने का।"
"या खुदा।" सादात के कण्ठ से एक आह-सी फूट पड़ी।
"गदर हो गया है, सर—यकीनन वे हमसे बहुत ज्यादा ताकतवर हैं—आप यह न समझें कि विद्रोह राष्ट्रपति भवन के आस-पास या राजधानी में ही हुआ है—मुझे मिली खराब के मुताबिक सारे 'मजलिस्तान' की यही हालत है—यह विद्रोह एक साथ सारे 'मजलिस्तान' में योजनाबद्ध तरीके से किया गया है, सर—आज रात बारह बजे का समय मुकर्रर किया गया था—ठीक बारह बजे 'मजलिस्तान' के हर शहर—हर छावनी—कस्बे और गांवों में इबलीस के तरफदारों ने विद्रोह कर दिया—इस वक्त देश के चप्पे-चप्पे पर जंग जारी है।"
"ओह, खुदा—अब क्या होगा?"
"वे आपके खून के प्यासे हैं, सर—इसीलिए मैंने आपको खिड़की से खींचा था।"
"हमें परवाह नहीं—हम भले ही रुख्सत हो जाएं, मगर मुल्क गुलाम न हो।"
"मुल्क को गुलाम होने से अब कोई नहीं रोक सकता सर।"
"म...मेजर!"
"हकीकत यही है, सर—वे बहुत ताकतवर हैं—तादाद में बहुत ज्यादा हैं—कुछ भी करने का वक्त हाथ से निकल चुका है—वे कुछ ही देर बाद राष्ट्रपति भवन में घुस आएंगे—यहां कब्जा कर लेंगे और फिर वे आपको कत्ल कर देंगे सर।"
एकाएक सादात का स्वर कठोर हो उठा—"हमें अपनी परवाह नहीं है, मेजर।"
"सर।"
"हमारे साथ आओ।" कहने के साथ ही राष्ट्रपति सादात तेजी से बाहर निकल गए। हाशमी नामक लहूलुहान और जख्मी युवा मेजर उनके पीछे लपका। राष्ट्रपति भवन के चारों तरफ से अब भी निरन्तर फायरिंग की आवाजें आ रही थीं।
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