Daulat Meri Biwi : दौलत मेरी बीवी
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Description
इससे पहले प्रकाशित तेजा सीरीज का उपन्यास भड़वा आपने पढ़ा और सराहा, इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ।
दौलत मेरी बीवी की कहानी का मैं यहां कोई जिक्र नहीं करूंगा क्योंकि यह उपन्यास मैंने सस्पेंस के ऐसे मकड़जाल से बुना है जिसे तोड़कर आपको स्वयं इसकी रहस्यों की परतों को खोलना है।
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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दौलत मेरी बीवी
“बस भाई—अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता मैं....।”
“मगर यार....।”
“मगर गया भाड़ में—। बर्दाश्त की भी एक हद होती है। तूने तो वो भी पार करवा दी—। बस मुझे मेरा पैसा....।”
“मेरी मजबूरी को समझ योगेश—। और कुछ नहीं तो हमारी बरसों पुरानी यारी का तो लिहाज कर—इतना कोरा तो न बन यार—। मैं समझता हूं कि कुसूर मेरा है—। मैंने कर्जा अदा करने का जो वक्त कहा था—उस वक्त तक मैं कर्जा नहीं उतार पाया....।”
“एक साल ऊपर हो गया है।”
“यार ब्याज भी तो दे रहा हूं—। हर महीने दस हजार तुम्हारी जेब में डालता हूं।”
“सिर्फ एक परसेंट ब्याज—। जरा मार्किट में झांक—दो परसेंट से कम नहीं—वो भी तब मिलता है जब ड्योढ़ी रकम की चीज गिरवी रखो तो—। जबकि मैंने तो तुझसे कुछ भी नहीं लिया—। तूने दस लाख मांगे मैंने फौरन दे दिये—। तूने कहा कि छ: महीने में लौटा दोगे—मगर डेढ़ साल से ऊपर हो गया।”
“मगर....।”
“मेरा खुद का हाथ टाईट हो रहा है यार—। देख मैं तेरे आगे हाथ जोड़ रहा हूं—। प्लीज मेरा दस लाख वापिस कर दे—। तेरा अहसान होगा मुझ पर।”
“म-मगर इतनी बड़ी रकम कहां से लाऊं मैं?”
“कहीं से भी ला—। चोरी कर—डाका डाल—कहीं से भी पैदा कर—मगर मेरी रकम मुझे वापिस चाहिये—।”
“यार....कुछ तो लिहाज कर—मेरी इज्जत को तो देख।”
“यानी तेरी इज्जत की खातिर मैं अपने दस लाख भूल जाऊं—।”
“म-मगर यार....मैं इतना पैसा लाऊं तो कहां से लाऊं—। सारा पैसा मार्किट में फंसा हुआ है। और दो महीने से पहले कहीं से भी पैसा आने की उम्मीद नहीं।”
“और मुझे आज ही अपना दस लाख चाहियें—।”
“ल-लेकिन....।”
“अपना मकान बेच दे—।”
“क्-या....?”
“बीस लाख मैं देता हूं उसका....।”
“ल-लेकिन....।”
“बीस में से दस मेरा कर्जा उतार दे—और दस का कोई दूसरा मकान ले ले—। फिर जब तेरे पास पैसा हो जायेगा तो बेशक चालीस लाख का नया मकान खरीद लेना—।”
“म-मुझे तुझसे ऐसी उम्मीद नहीं थी योगेश....। मुझे नहीं पता था कि तेरी नज़र मेरे मकान पर है।”
“कर्जा लेने तू आया था। मैंने तुझे बुलाया नहीं था—। पता नहीं कैसा है जमाना—लेते वक्त तो पैर पकड़ लेते हैं लोग—और जब मांगने जाओ तो आंखें दिखाने लगते हैं। तू भी तो वैसा ही निकला—। याद है जब तू मुझसे कर्जा लेने आया था तो कैसा गिड़गिड़ा रहा था। और अब जब मैं अपना कर्जा मांग रहा हूं तो मुझी को बुरा कह रहा है।”
“मैं समझ गया....।”
“क्या समझ गया—?”
“यही कि तूने मुझे कर्जा हमारी यारी को देखकर नहीं दिया था—बल्कि तेरी नजर मेरे मकान पर थी—।”
“यह तेरी अपनी सोच है। अगर तू यह सोचता है कि मैंने तेरा मकान देखकर तुझे पैसा दिया था तो मकान को तू अपने पास रख—और मुझे मेरा पैसा दे दे।”
“छोड़ दोस्त....मैं मकान देने को तैयार हूं—। मगर जो कीमत तूने लगाई है—वो बहुत कम है।”
“तो—?”
“पच्चीस लाख का मकान है मेरा—और तू बीस लाख दे रहा है।”
“मैं तो बीस भी ज्यादा समझ रहा हूं—। जाकर किसी प्रापर्टी डीलर से पूछ—अट्ठारह से ज्यादा का नहीं है तेरा मकान—।”
“मगर मैं पच्चीस से कम नहीं दूंगा।”
“तो फिर मेरा दस लाख दे—। तू पच्चीस क्या पचास का बेच—मुझे उससे कोई मतलब नहीं।”
थोड़ी देर की खामोशी।
फिर बात शुरू।
“ठीक है....मैं बीस में देने को तैयार हूं। मगर....।”
“मगर क्या—?”
“मेरी एक शर्त है।”
“क्या शर्त—?”
“पैसा मैं तुझसे आज ही लूंगा—।”
“तो मैं कहां इन्कार कर रहा हूं। दस लाख तुझे आज ही मिल जायेंगे—वो भी जब तू कहे—।”
“लेकिन अपना मकान मैं तभी खाली करूंगा—जब तक कि मुझे नया मकान नहीं मिल जाता।”
“बेशक वो सालभर न मिले—?”
“दो महीने तो लग ही जायेंगे।”
“ठीक है....दो महीने तक मैं कुछ नहीं कहूंगा....मगर दो महीने से एक दिन ऊपर नहीं होने दूंगा मैं—।”
“उसकी नौबत नहीं आयेगी।”
“ओ.के.—अब बोल—कब लाऊं दस लाख—?”
“इस वक्त छः बजे हैं....तू रात दस बजे पैसा लेकर मेरे मकान में आ जाना।”
“ठीक है—मैं दस बजे पहुंच जाऊंगा।”
“दस लाख लेकर—।”
“दस लाख लेकर ही आऊंगा।”
“चल—अब पैग उठा—। सारा नशा उतारकर रख दिया।”
“हा....हा....हा....।”
¶¶
तेजा ने अपनी टपकती राल को वापिस सुड़का और सामने रखा पैग उठाकर उसे मुंह से लगा लिया।
पैग हलक में उड़ेलने के साथ-साथ उसने गर्दन थोड़ा पीछे घुमाई।
दस लाख के नाम ने ही उसकी राल टपका दी थी। यह तो वक्त रहते उसने राल वापिस सुड़क ली थी वर्ना राल अवश्य ही उसके आगे टेबल पर रखे पैग में जा गिरती।
अपने पीछे वाली टेबल पर उसे दो आदमी आमने-सामने बैठे नज़र आये। दोनों की ही उम्र करीब चालीस साल थी।
उसके दाईं तरफ वाले ने लाल रंग की शर्ट पहन रखी थी जिस पर पीले रंग की काली धारी वाली टाई लटक रही थी—उसके गालों का मांस लटक रहा था—और सिर आगे से गंजा था।
वह योगेश था।
यही नाम सुना था तेजा ने उनकी बातों के दौरान।
योगेश—यानि लेनदार।
उसके सामने देनदार था। जिसका नाम तेजा को नहीं पता था।
वह गोरे रंग का परेशान चेहरे वाला व्यक्ति था—जिसके आधे से ज्यादा बाल सफेद हो चुके थे।
उसने सफेद रंग की शर्ट पहन रखी थी और गले में ‘बो’ लगा रखी थी।
उसने योगेश के दस लाख देने थे—और कर्जा उतारने के लिये वह योगेश को अपना मकान बेच रहा था।
इस वक्त तेजा होटल प्लाजा के बार में मौजूद था।
कोई ज्यादा रश नहीं था उस वक्त वहां—। उसके तथा उन दोनों के अलावा मुश्किल से बीस आदमी ही थे वहां, वो भी एक-दूसरे से दूर-दूर बैठे थे।
बस तेजा और वो दोनों ही करीब थे।
केशवगढ़ से भागकर तेजा सीधा यहां विजयगढ़ में पहुंचा था।
उन कई शहरों की तरह वह यहां भी पहली बार ही आया था।
पूरी तरह से अंजान था विजयगढ़ उसके लिये—।
रेलवे स्टेशन से उसने एक टैक्सी की और ड्राईवर से यह कहा कि उसे किसी अच्छे से होटल में पहुंचा दे।
जेब में नब्बे हजार थे उसके—और उसे पूरा विश्वास था कि जेबें खाली होने से पहले वह कोई अच्छा शिकार ढूंढकर उसे हलाल कर लेगा।
सुबह साढ़े ग्यारह बजे वह होटल में पहुंचा था—।
उसने अपने लिये कमरा लिया—और फिर कमरे में प्रवेश करते ही बैड पर जा गिरा।
तब का सोया वह साढ़े चार बजे जाकर उठा।
बैड से वह सीधा बाथरूम में घुसा—जहां से वह सवा पांच बजे निकला—। और फिर वह अपने कमरे से निकलकर सीधा बार में आ पहुंचा—।
वह इत्तफाक से उन दोनों के करीब खाली टेबल पर बैठा था—। और यह इत्तफाक उसे अपने लिये किसी वरदान से कम नहीं लग रहा था।
दस लाख रुपया एक जगह से चलकर दूसरी जेब में पहुंच रहा था—। ऐसे में वह खुद को रोक पाता—ऐसा कैसे हो सकता था?
कयामत न आ जाती।
तभी तो राल टपकी थी उसकी।
विजयगढ़ में उसे अपनी बोहनी अच्छी होती नज़र आने लगी।
उसने आधा पैग खाली किया और पैग को टेबल पर रखकर प्लेट में से पनीर के टुकड़े उठाकर मुंह में डाल लिये।
अब उसे किसी भी अन्य काम में दिलचस्पी नहीं थी।
उसे इन्तजार था तो बस उन दोनों के खड़े होने का इन्तजार था।
ज्यादा देर इंतजार नहीं करना पड़ा उसे।
उस वक्त वह तीसरा पैग खत्म कर रहा था जब उसे अपने पीछे कुर्सियां घिसटने की आवाज आई।
उसने गर्दन पीछे मोड़ी—।
दोनों खड़े हो चुके थे।
तेजा ने आनन-फानन अपना पैग खत्म किया और खड़ा हो गया—।
दोनों काऊंटर की तरफ बढ़ रहे थे।
तेजा भी उनके पीछे-पीछे काऊंटर पर पहुंचा जिसके पीछे एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति खड़ा था।
पहले उन दोनों ने बिल चुकाया—फिर उनके पीछे-पीछे तेजा ने बिल दिया और उन दोनों के पीछे-पीछे चलता होटल से बाहर आ गया।
होटल के बाहर काफी लम्बा-चौड़ा फुटपाथ था—जिसे होटलवालों ने पार्किंग स्थल बना दिया था।
उस वक्त वहां करीब दस कारें खड़ी थीं।
तेजा की निगाहें दोनों पर जमी हुई थीं जो एक मारुति एस्टीम के करीब खड़े आपस में हाथ मिला रहे थे।
तभी योगेश ने ड्राइविंग डोर खोला और स्टीयरिंग के पीछे बैठ गया।
और फिर उसकी कार फुटपाथ से सड़क पर उतरी और बाईं तरफ बढ़ गई।
तेजा की निगाहें अब दूसरे पर थीं जो कि अपने स्थान पर खड़ा किसी टैक्सी का इंतजार कर रहा था।
तेजा ने तेजी से कुछ सोचा और फिर आगे बढ़कर उसके करीब जा खड़ा हुआ।
उस आदमी ने एक उड़ती निगाह उस पर डाली और फिर पुनः सड़क पर देखने लगा।
“सर....।” तभी तेजा बड़े ही अदब से बोला।
उस आदमी ने पुनः तेजा की तरफ गर्दन मोड़ी।
“तुमने मुझसे कुछ कहा—?”
“जी हां सर।”
“क्या कहना चाहते हो—?”
“आ....प कहां जा रहे हैं सर—?”
“शाम मन्दिर—क्यों....?”
“अ-अगर आप बुरा न मानें तो आप वहां तक मुझे लिफ्ट दे दें....।”
“लेकिन मेरे पास कोई कार नहीं जो तुम्हें....।”
“क्या मतलब—?” हल्के से चौंका वह।
“मेरा नाम रमेश कुमार है सर—। दिल्ली से यहां बिजनेस के सिलसिले में आया हूं और इसी होटल में—।” उसने अपनी बांह पीछे गेट की तरफ की—“ठहरा हूं। बदकिस्मती से मेरी जेब कट गई है—।”
“ओह!”
“शाम मन्दिर से थोड़ी दूर मेरे व्यापारी का घर है। मैं वहां से पैसा ले लूंगा—मगर इस वक्त वहां तक जाने के लिये मेरे पास पूरा किराया नहीं—। इसलिए अगर आपको तकलीफ न हो तो....।”
“ओ.के.।” वह व्यक्ति बोला।
तेजा का कदबुत—उसका चेहरा किसी रईसजादे से कहीं कम नहीं था अपने किसी भी ऐंगल से वह चोर-उचक्का नजर नहीं आता था। ऐसे में उस आदमी को उस पर जरा भी संदेह नहीं हुआ—उल्टे उसे उससे हमदर्दी ही हुई थी।
“थैंक्यू सर।” तेजा ऐसे बोला जैसे उसका यह अहसान वह कभी नहीं भूलेगा—“मेरा नाम रमेश कुमार है—आप....?”
“अशोक—अशोक नागपाल—।” उस आदमी ने अपना नाम बताया। साथ ही उसने बांह लम्बी कर इशारा किया।
तेजा ने उसकी निगाहों का पीछा किया।
एक टैक्सी उनकी तरफ धीमी रफ्तार से आ रही थी।
“आओ—।” टैक्सी के उनके सामने रुकते ही अशोक नागपाल बोला और दरवाजे की तरफ बढ़ा।
हाथ लम्बा कर उसने टैक्सी का पिछला दरवाजा खोला और भीतर प्रवेश कर सीट पर बैठते हुए परली तरफ खिसका।
तेजा उसके पीछे-पीछे प्रविष्ट हुआ और उसके बराबर बैठकर दरवाजा बन्द कर दिया।
“शाम मन्दिर—।”
अशोक नागपाल ने ड्राईवर को आदेश दिया।
टैक्सी के पहिये घूमने लगे।
“दिल्ली में कहां रहते हो—?” अशोक नागपाल तेजा की तरफ देखते हुए बोला।
“राजौरी गार्डन में सर—। विशाल एन्क्लेव में कोठी है हमारी।” बिना हिचके बोला तेजा।
“क्या काम करते हो—?”
“हैंडलूम एक्सपोर्टर हूं सर—।”
“फिर तो काफी मोटी पैदावार करते हो।”
“बस....गुजारा हो जाता है।” तनिक शर्मीले अंदाज में बोला तेजा—साथ ही उसने हाथों को घुटनों के बीच रख लिया।
अशोक नागपाल गम्भीरता से मुस्कुराया—फिर सामने देखने लगा।
करीब बीस मिनट बाद टैक्सी जहां रुकी—वहां और भी कई टैक्सियां खड़ी थीं—जैसे वह टैक्सी स्टैण्ड हो।
मगर ऐसा नहीं था—बल्कि वहां पर टैक्सीवालों ने एक तरह से जबरदस्ती टैक्सी स्टैण्ड बना लिया था।
“लो....मेरा स्टैण्ड तो आ गया—।” अपनी साईड का दरवाजा खोलते हुए बोला अशोक नागपाल।
तेजा भी अपनी तरफ का दरवाजा खोलकर बाहर आ गया और बोनट के आगे से होते हुए अशोक नागपाल के करीब आ खड़ा हुआ जो कि टैक्सी का भाड़ा चुका रहा था।
“थैंक्यू सर—।” तेजा अहसान भरे स्वर में बोला।
अशोक नागपाल ने जवाब नहीं दिया—बस उसके कंधे पर हल्की-सी थपकी दी और आगे बढ़ गया।
तेजा के होठों पर जहर भरी मुस्कान फैल गई।
उसकी निगाहें एकटक अशोक नागपाल की पीठ पर टिकी हुई थीं।
आस-पास देखने का वक्त नहीं था तेजा के पास—।
उसे तो अपने शिकार के घर का पता लगाना था।
थोड़ा आगे चलने के पश्चात् अशोक नागपाल जैसे ही बाईं तरफ वाली सड़क पर मुड़ा—तेजा के कदम हरकत में आ गये।
चलता हुआ वह मोड़ पर पहुंचा और उधर देखा जिधर अशोक नागपाल गया था।
अशोक नागपाल एक गुलाबी रंग की कोठी के फाटक में प्रवेश कर रहा था।
तेजा ने कोठी पर निगाह मारी—।
करीब डेढ़ सौ गज में बनी वह साधारण-सी एक मंजिला कोठी थी।
सिर्फ वही एक कोठी वहां ऐसी थी जो मखमल में टाट का पैबंद नजर आ रही थी। उसके आस-पास की अन्य कोठियां भव्य और विशाल थीं।
तेजा के देखते ही देखते अशोक नागपाल फाटक में प्रवेश कर गया और फिर कोठी का काले रंग का फाटक बन्द हो गया।
तेजा ने गहरी सांस छोड़ते हुए कोठी पर से निगाहें हटाईं और इधर-उधर देखने लगा।
जिस स्थान पर वह खड़ा था—वह तिराहा था—उसके ऐन सामने अगर सड़क होती तो वह चौराहा बन जाता। मगर वहां सड़क की बजाय मन्दिर बना हुआ था—।
कोई ज्यादा बड़ा मन्दिर नहीं था वह—।
एक विशाल पीपल के पेड़ के नीचे दो कमरों में बना था वह मन्दिर—जिसके ऊपर ‘शाम मन्दिर’ लिखा हुआ था।
मन्दिर की बनावट बता रही थी कि वह काफी पुराना था—और उसकी मान्यता का पता मन्दिर के गेट में प्रवेश कर रहे लोगों से पता चल रहा था।
पौने सात बज रहे थे उस वक्त और मन्दिर के आगे लोगों की भीड़ लगनी शुरू हो गई थी।
मन्दिर के दायें-बायें दुकानें बनी हुई थीं जिनके बाहर प्रसाद—चुनरी तथा पूजा में काम आने वाला अन्य सामान बिक रहा था—जबकि दुकानों के भीतर कुछ और ही था।
यानि लोगों ने प्रसाद बेचने का साईड बिजनेस बना रखा था।
अंधेरे ने अपने आने का ऐलान कर दिया था—और दुकानदारों ने उसे भगाने की शुरूआत भी कर दी थी।
लाईटें जलने लगी थीं।
तेजा वहां से हटा और वक्त पास करने के लिये आस-पास का इलाका घूमने के इरादे से आगे बढ़ गया।
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Additional information
Book Title | Daulat Meri Biwi : दौलत मेरी बीवी |
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Isbn No | |
No of Pages | 270 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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