दबे पांव : Dabe Panv by Sunil Prabhakar
Ebook ✓ 48 Free Preview ✓
48
100
Description
पता नहीं वो प्रेतात्मा थी या विज्ञान का कोई चमत्कार...हर कोई खौफ के साये में था...जब वो चाहता था, खुली घोषणा करके बलि लेने चला आता था...।
उफ...।
सबसे खौफनाक बात ये थी कि वो जिस शरीर का चुनाव करता था वो खुद अपनी गर्दन काटकर अपना लहू उस पर अर्पित कर देता था।
कैसे रुका हत्यारों का खौफनाक सिलसिला?
Ist Part दबे पांव
IInd Part खून का प्यासा
दबे पांव : Dabe Panv
Also Published as कत्ल न होने दूंगा
Sunil Prabhakar सुनील प्रभाकर
Ravi Pocket Books
BookMadaari
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
Free Preview
दबे पांव
सुनील प्रभाकर
“मछली...! मैं मछली खाऊंगा।”
नीली आंखों वाला गोल-मटोल आठ वर्षीय बच्चा गोलू मचला। अब कद्दावर अधेड़ की आंखों में बेबसी के भाव उभर आये जिसे उस खूबसूरत बच्चे का पिता होने का गौरव प्राप्त था।
“बेटे! मछली नहीं है—सुबह मछलियां पकड़ेंगे फिर जी भरकर खाना। अमावस्या की रात निकट थी न...इसलिए हम शिकार पर नहीं जा पाए...और...!”
“मैं ये सब नहीं जानता—मुझे मछली चाहिए...! अभी इसी वक्त...!”
“इस वक्त रात के बारह बज रहे हैं बेटे...! इस वक्त मछली की तो बात दूर, कोई भी बाहर झांकने की हिम्मत भी नहीं कर सकता। कारण ये कि कल बड़ी अमावस्या है और बड़ी अमावस्या को...उफ्...!”
“ये बड़ी अमावस्या क्या होती है?” बच्चा भोलेपन से बोला था।
“बड़ी अमावस्या होती है—बस तू इतना याद रख। केवल इतना जान कि बड़ी भयंकर—बड़ी ही बुरी—दिल दहला देने वाली होती है ये बड़ी अमावस्या—इसके आगे कुछ मत पूछ।”
“य...ये भयंकर क्या होता है—?” बाल सुलभ जिज्ञासा मुखर हो उठी—“अमावस्या जैसे ही निकट आती है, हमें मछली मिलनी बन्द क्यों हो जाती हैं?”
“क्योंकि हम शिकार पर नहीं जा पाते।”
“शिकार पर क्यों नहीं जा पाते?”
“क्योंकि ये दिन उसके होते हैं—इस रात को 'वो' आता है—और मनमाना खून पीकर चला जाता है।”
“वो...वो कौन है...?”
“व...वो...!” अधेड़ हकलाया फिर लरजे स्वर में बोला था—“वो...जिसकी पदचाप सुनते ही हवाएं सहम जाती हैं। झींगुर अपनी आवाज को समेट लेते हैं। उजाले की झलक भी सन्नाटे की आगोश में सिमटकर मृत्यप्राय हो जाती है।”
“प...पिताजी...!”
“वो जब आता है, उल्लूओं व भूखी चीलों की फौज उसकी अगवानी करती है और भेड़ियों का झुण्ड—भेड़ियों की फौज दुम दबाए उसके पीछे कतारबद्ध चला करती है।”
“ल...लेकिन मैंने तो श्यामू से सुना था कि ये इक्कीसवीं सदी है और इस सदी में ये सब नहीं हो सकता और...!”
“इन सब बातों को भूल जा—ये सब किताबी बातें हैं। ये इक्कीसवीं सदी है—और इस सदी में ही ऐसा हो रहा है—सरेआम हो रहा है। यही कारण है कि इन दिनों सूर्य देव जैसे ही अन्तःस्थल की ओर सरकते हैं। लोग अपने-अपने घरों में दुबक जाते हैं क्योंकि हर कोई जानता है कि बाहर मौत है—भयानक मौत...! हर कोई इन्सान भयंकर-से-भयंकर मौत मर सकता है। किन्तु 'उसके' हाथ नहीं मरना चाहता, कारण ये कि वो जानता है कि उसके हाथों मरने के बाद उसकी रूह सदियों-सदियों तक सुकून न पा सकेगी।”
“आपका ये 'उसका' और 'वो' क्या ड्रैकुला से भी भयंकर है?”
“उससे भी कई गुना भयंकर—खतरनाक—दिल को दहला देने वाला—इसलिए मैं कहता हूं कि चुपचाप सो...जा और...!”
उसका वाक्य अधूरा रह गया।
कारण ये कि तभी दूर कहीं उल्लू चीखा था।
अपनी डरावनी आवाज में...!
उसके साथ ही नजदीक से दूर तक भौंक रहे आवारा कुत्ते यूं चुप हो गये जैसे बिजली का बटन ऑफ कर दिया गया हो—!
झींगुर तक सहम गये थे।
अधेड़ अपनी तेज हो चुकी धड़कनों की परवाह न करते हुए अपनी समस्त चेतना को उधर केन्द्रित किए रहा—तभी एक साथ कई उल्लू चित्कार की मुद्रा में चीखें—साथ ही निकट ही कहीं मादा भेड़िया अपनी डरावनी आवाज में रो पड़ी।
उल्लू की चीख साथ-साथ पंखों की भद्दी फड़फड़ाहट गूंजी और मादा भेड़िये का स्वर यूं घुट गया जैसे रो रहे नवजात शिशु का गला किसी शैतानी हाथ ने भींच दिया हो।
कद्दावर अधेड़ व्यक्ति का शरीर जोर से कांपा—चेहरे पर कई भाव थिरके, फिर सहम कर कहीं लुप्त हो गये।
तभी!
पंखों की 'फट्...फट्' का भयावह स्वर उभरा।
साथ ही गूंजी चोंचों की किटकिटाहट...! ऐसा लगता था जैसे भूखी चीलों का पूरा झुण्ड भोजन न पाने की सूरत में बस्ती के निवासियों के खून का प्यासा हो उठा हो।
पंखों की फड़फड़ाहट पुनः गूंजी और फिर अजीब अन्दाज में लुप्त हो गयी।
वातावरण डरावना हो उठा।
इतना डरावना कि कद्दावर व्यक्ति की तो बात दूर...नन्हा गोलू रोमांच से भर उठा।
एक अजीब-सा डरावना रोमांच! किन्तु...!
वो बच्चा था।
बच्चे आग से खेलने का हौसला रखते हैं—ये जानते हुए भी कि आग उसे जला देगी।
अगले ही पल उसने अधेड़ की ओर दृष्टि उठाई तो उसकी आंखें फैल गयी।
अधेड़ के चेहरे का रंग बदल रहा था।
चेहरे की सुर्ख रंगत एक अजीब-सी भयावह सफेदी में बदलती जा रही थी।
“आ गया...वो आ गया...!” सहसा वो थर्राये स्वर में बोला—“वो आ गया—बस्ती में आ गया...! कोई नहीं बचेगा—हर ओर मौत होगी—उफ्! खिड़कियां बन्द कर दूं...!”
वो एक खुली खिड़की पर लपका—वो जरा-सी खुली हुई थी। उसने उसे निःशब्द बन्द किया और चटखनी चढ़ा दी।
बच्चा सहम गया।
उसके पिता में इतनी ताकत थी कि एक ही घूंसे का वार भैंसे के सिर पर करके उसे बेहोश कर सकता था—इसका प्रदर्शन वो कर चुका था। कई बार...!
उसके पिता जैसा शक्तिशाली आदमी इतना भयभीत...।“
उफ्...!
वो सहम गया।
“किट्...किट्...किट्...!”
तभी साएं...साएं करते सन्नाटे में अजीब किटकिटाहट गूंजी।
गोलू चन्द पलों तक तो स्तम्भ-सा खड़ा रहा, फिर उसने कनखियों से अपने पिता की ओर देखा।
उसका पिता बगल की दूसरी खिड़की की ओर लपक रहा था।
उसने देखा कि उसके पिता का ध्यान उसकी ओर न था और वो खिड़कियों को चैक करने में मशगूल था।
गोलू विपरीत दिशा की ओर की एक खिड़की की ओर लपका।
दबे पांव!
संयोग अच्छा था। खिड़की खुली हुई थी।
उसने खिड़की के बाहर दृष्टि डाली।
अगले ही पल उसकी आंखें फैल गईं।
पहाड़ी की ओर से नन्हे-नन्हे जुगनू युक्त एक मानवीय आकृति जैसी परछाई कलाबाजी करते हुए उधर ही आ रही थी।
ऊपर चीलों व उल्लूओं के पंखों की फट्...फट्...और उनकी अंगारों जैसे किन्तु नश्तर की तरह बेंधती आंखें चारों ओर घूम रही थीं।
खूनी अन्दाज में!
उस रहस्यमयी आकृति के आगे-पीछे अगल-बगल भेड़ियों का झुण्ड था।
ढेर सारे भेड़िये, पालतू जानवरों की तरह सिर उठाए चल रहे थे।
काफी पीछे गली के कुत्ते कतारबद्ध चल रहे थे।
सिर झुकाए।
उनकी दुमें पिछली टांगों के बीच घूमकर पेट में चिपकी हुई थीं।
गोलू की आंखें जुगनूओं युक्त परछाई जैसी आकृति पर टिकी हुई थीं कि उसके पिता के मुंह से घुटी-घुटी चीख निकली।
कदाचित् उसने गोलू को झांकते हुए देख लिया था।
“न...नहीं...!” वो दबे-दबे अन्दाज में चीखा था—“नादान लड़के...! उस आकृति की ओर मत देखना वरना तुम्हें कोई नहीं बचा सकेगा।”
“लेकिन मैं उसे देख चुका।”
“नहीं...!” अधेड़ चित्कार-सा कर उठा—“ये तूने क्या किया बेवकूफ...? उफ्! अब क्या होगा? हे प्रभु...! मेरे बच्चे को बचा लो। इसके प्राणों की रक्षा करो भगवान...!”
वो दीवार से लटकी मुरली माधव की तस्वीर की ओर झुका था।
तभी!
पंखों की फड़फड़ाहट व दांतों की किटकिटाहट का स्वर उभरा। ऐसा लगा था जैसे वो अत्यन्त निकट आ पहुंची हो।
“ब...बेकार...है...कोई नहीं बचा सकता। भगवान कहे जाने वाले मुरली माधव भी नहीं...मैं व्यर्थ में इनके सामने गिड़गिड़ा रहा हूं।”
गोलू अचम्भित था।
¶¶
“बड़े साहब! एक आवश्यक पत्र आया है।”
“अच्छा! किस बेवकूफ का है?”
“जी, आपका!”
“किस गधे ने लिखा है?”
“आपके पिता रेशम सिंह ने!”
प्रत्युत्तर में इंस्पेक्टर लोहा सिंह ने फाइल पर से दृष्टि उठाकर सामने खड़े हवलदार को कुपित भाव से घूरा।
“मेरा नाम भुलक्कड़ सिंह है हुजूर! आपके थाने में नया-नया ट्रांसफर होकर आया हूं।” हवलदार विनीत स्वर में बोला था—“अगर आपकी कृपा रही तो वर्षों साथ निभेगा वरना ऊपर वाला म...मेरा मतलब ऊपर के अधिकारी...!”
“हवलदार भुलक्कड़ सिंह...!” लोहा भन्नाए स्वर में बोला था—“इससे पहले तुम कहां थे?”
“दरोगागंज पुलिस स्टेशन में हुजूर! इंस्पेक्टर हवा सिंह के साथ! किन्तु वे दो माह की छुट्टी पर हैं। इसलिए समय नहीं कटा तो ट्रांसफर कराकर इधर चला आया।”
“बेहतर होगा कि अब ट्रांसफर कराकर यहां से भी निकल लो।”
“स...सर...!”
“मेरे पिता का इन्तकाल हुए बारस वर्ष हो चुके हैं बेवकूफ! और इन्तकाल के बाद पत्र लिखने की कोई सुविधा ही नहीं बन पाई आज तक...!”
“क...क्या कह रहे हैं हुजूर...? इस पर तो यही नाम लिखा हुआ है। इस पर एक हफ्ता पहले की तारीख पड़ी हुई है। इस लिफाफे के अन्दर कागज की कई तहें मौजूद हैं—जाहिर है कि उन्होंने आपको एक लम्बा-चौड़ा पत्र लिखा है। नाम के मुताबिक रेशम जैसे मुलायम अल्फाजों से युक्त पत्र—किन्तु आप हैं कि इस पत्र के वजूद को ही लोहे की आरी से काटने पर आमदा है। स...सॉरी...गुड़...गड़प...आपका शुभ नाम भी ऐसा ही कुछ...!” उसका वाक्य अधूरा रह गया। कारण ये कि इंस्पेक्टर लोहा सिंह उसे कड़ी दृष्टि से घूर रहा था।
“स...सॉरी सर...!” भुलक्कड़ सिंह हड़बड़ाए स्वर में बोला था—“मैं झूठ नहीं कह रहा। ये देखिए मैं लिफाफा साथ ही लाया हूं। ये देखिए...! यहां लिखा है आपका पिता...रेशम सिंह...!”
लोहा सिंह ने सरसरी दृष्टि डाली तो चौंक गया।
हवलदार की बात सच थी।
उसने लिफाफा पकड़ा—राइटिंग पर गौर किया तो पाया कि लिफाफे पर उसके पिता की राइटिंग नहीं थी। जबकि एक सप्ताह की तारीख साफ-साफ लिखी हुई थी।
अजीब-सी उत्सुकता में लोहा सिंह ने लिफाफा खोला तो उछल पड़ा। आंखें फट पड़ी।
भीतर उसके पिता की राइटिंग मौजूद थी।
उसके कानों में सीटियां-सी बज उठीं। उसके पिता रेशम सिंह को दिवंगत हुए बारह साल का वक्त बीत चुका था। तो फिर ये पत्र...?
उसे अपने कान की लवें सनसनाती हुई महसूस हुई।
उसने देखा।
कागज के दो पन्ने वहां मौजूद थे—पत्र के रूप में तह किए हुए।
ऊपर वाला पत्र, जिसकी राइटिंग लिफाफे पर लिखे पत्र से हूबहू मेल खाती थी, किन्तु उसके लिए नितान्त अपरिचित्-सी मौजूद थी, उसका मजमून कुछ इस प्रकार का था—
प्रिय इंस्पेक्टर!
मेरा नाम पीटर परेरा है। मैं एक प्रसिद्ध फोटोग्राफर हूं। प्राकृतिक दृश्य मुझे लुभाते हैं—उनमें एडवेंचर के पुट हो तो क्या कहना! यही वजह है कि मैं सुंदर दृश्यों की तलाश में समुद्र तट पर टापुओं में भटकता फिरता हूं।
जहां सूर्योदय व सूर्यास्त का दृश्य बड़ा ही लुभावना होता है।
कैमरे में कैद मनमोहक चित्रों को मैं बड़ी-बड़ी फिल्मों का विज्ञापन कम्पनियों को भेज देता हूं। चूंकि मैं कोई कड़का...जरूरतमन्द—सड़कछाप फोटोग्राफर नहीं—इसलिए चित्रों की मुझे अच्छी कीमत मिल जाती है। कुल मिलाकर मेरे पास वो सब कुछ है, जिससे एक कलाकार पूरी तरह से सन्तुष्ट होते हुए ईश्वर को शुक्रिया अदा कर सकता है, क्योंकि मेरे विचार से भोजन और यौवन इन्सान की बुनियादी जरूरतें हैं। इसके अतिरिक्त वो जो भी हासिल करता है या पाने की चेष्टा करता है वो उसकी उच्चाकांक्षा ही होती है। मेरे पास रहने को छत—खाने को रोटी—एक छोटा-मोटा व्यवसाय—और मेरी ऐलिन...! माई लव...स्वीट ऐलिन...! मेरी सब कुछ...! आई मीन मेरी प्रेमिका...मेरी प्रेरणा—ओह...मैं कहां की बातें ले बैठा। मुझे उन्हीं बातों का जिक्र करना चाहिए, जो हमारी मुलाकात का कारण है।
एक शाम मैं खूबसूरत दृश्य की तलाश में समुद्र तट की रेत फांक रहा था। सूर्यास्त में कुछ देर थी, इसलिए मैं समुद्र तट पर चक्कर काटते हुए उस स्थान का चुनाव करने की चेष्टा में भागम-भाग कर रहा था, जहां से सूर्यास्त का नजारा सबसे अधिक दिलकश होने का अनुमान था। मेरी तलाश पूरी हुई।
एक स्थान का चुनाव मैंने किया, वहीं कैमरा सैट करने लगा। सागर शान्त था, निकट ही मछुए ने अपना जाल डाल रखा था। हम दोनों अपने-अपने कार्य में तन्मयता पूर्वक लगे हुए थे। तभी मछुए के साथी की दृष्टि सागर में किसी नाचती चमकती चीज पर पड़ी। उसका साथी सागर में कूद गया—उसका साथी उसे रोकने के लिए आवाज देता रहा—किन्तु जब उसने छलांग लगा दी तो वो भी आंखों में उत्सुकता के भाव भरकर उस चीज को घूरने लगा, जिस पर सूर्य की किरणें नाच रही थीं। वो लौटा। उसके हाथ में एक बोतल भी। हालांकि बोतल पाकर उसके चेहरे पर हताशा उभरने वाली थी किन्तु मैंने देखा तो लगा कि उसकी आंखों की उभरी चमक गहरा अर्थ रखती है। किनारे पर पहुंचकर वो अपने साथी का ध्यान आकृष्ट करते हुए चीखा। मैं स्वयं को रोक न सका। निकट पहुंचकर मैंने उसे बोतल का कार्क खोलने की चेष्टा करते हुए पाया। उसमें कागज का एक मुंड़ा-तुड़ा पुलन्दा मौजूद था और ऊपर एक हीरे की अंगूठी मौजूद थी। हीरे की वही अंगूठी उसके आकर्षण का केंद्र थी। मुझे देखकर उन्होंने बोतल छुपानी चाही तो मैंने उसे समझाया कि मेरी उस अंगूठी से कोई दिलचस्पी नहीं—मैं जानना चाहता हूं कि किसी ने इसमें अंगूठी क्यों रखी? वे कागज कैसे हैं?
मेरे दिमाग में सुगबुगाहट-सी हो रही थी। पुरातन काल में आपदाओं में लोग अक्सर बोतलों में संदेश भरकर भेजते थे, इस तरह से संदेश भेजने के किस्से मैंने सुने थे। बोतल का कार्क बड़ी मजबूती से बन्द था। बोतल मछुआरे ने मुझे इस शर्त पर दी कि मैं अंगूठी उसे तत्काल दे दूंगा—कागजात से उसका कोई वास्ता नहीं।
मैं तो चाहता ही यही था।
मैं फौरन राजी हो गया तथा बोतल खोली तो उसमें एक कागज के पुलन्दे के साथ अंगूठी—हीरे की अंगूठी के नीचे एक चिट रखी मिली—जिस पर लिखा था—प्रिय महोदय! इस बोतल को खोलने का बहुत-बहुत शुक्रिया! महोदय! अगर आपको इस अंगूठी की जरूरत हो—तो ये आपको बतौर पारिश्रमिक पेश है। शर्त ये है कि आपको इसके साथ मौजूद कागजों का पुलिन्दा मेरे बेटे लोहा सिंह तक पहुंचाना होगा। वो एक पुलिस इंस्पेक्टर है तथा पिछले छः सालों से मोतीगंज पुलिस स्टेशन में तैनात है। पढ़ते-पढ़ते लोहा सिंह ने झुरझुरी-सी ली।
इस पुलिस स्टेशन में हमें बारह साल हो चुके थे—तो क्या ये पत्र छः साल पूर्व लिखा गया है? अर्थात पूरे छः वर्ष तक ये बोतल सागर की लहरों पर नृत्य करती रही है। उसने सोचा।
तभी उसे याद आया कि उसके पिता का इन्तकाल हुए भी लगभग बारह साल का वक्त बीत चुका था किन्तु ये पत्र तो सीधे उसे सम्बोधित लगा करके लिखा गया था!
राइटिंग हूबहू उसके पिता रेशम सिंह की थी।
वो रोमांच से भर उठा।
चन्द पलों तक वो अजीब-सी सनसनी में डूबा बैठा रहा, फिर सहसा वो चौंका।
उसे किसी की उपस्थिति का अहसास हुआ।
उसने देखा हवलदार भुलक्कड़ सिंह था।
उसी पोज में खड़ा वो भी उधर ही देख रहा था।
“तुम अभी गये नहीं...?” लोहा सिंह ने उखड़े स्वर में कहा था।
“आपका आदेश नहीं मिला था सर...! इसलिए...!”
“यहां आने के लिए मैंने आदेश दिया था...?”
“नहीं...!”
“फिर जाने के लिए मेरे आदेश की प्रतीक्षा में क्यों खड़े हो—? इतने आज्ञाकारी तो नहीं लगते तुम।”
“स...सर...!” भुलक्कड़ सिंह का स्वर आहत था।
“दरोगागंज का पुलिस इंस्पेक्टर हवा सिंह छुट्टी पर गया तो तुम्हारा वक्त काटना मुश्किल हो गया तो तुमने इधर की दौड़ लगा दी?”
“स...सर...आप...!”
“हवा सिंह के बाद पूरे डिपार्टमेन्ट में मैं ही सबसे बड़ा पागल नजर आया था, जो तूने इधर ही की दौड़ लगा दी...?”
वो बदस्तूर सामने देखता रहा।
“अब यहां से जा भी...!” लोहा सिंह फुंफकारा था—“अब क्या मेरी खोपड़ी भी साथ लेकर जाएगा?”
“जो आज्ञा सर! किन्तु मैं यहां आया किसलिए था—? ओह...! याद आया...वो बेवकूफ को मिलने वाला पत्र—गधे का लिखा हुआ...!”
“शटअप...!” लोहा सिंह इतने भयंकर भाव से गुर्राया कि हवलदार भुलक्कड़ सिंह एक ही छलांग में कमरे के बाहर हो गया। लोहा सिंह उखड़ी-उखड़ी दृष्टि से उधर घूरता ही रह गया जिधर भुलक्कड़ सिंह निकलकर गया था।
तदुपरान्त!
वो पुनः लिफाफा रूपी भानुमति के पिटारे की ओर आकृष्ट हो गया।
¶¶
1 review for Simple Product 007
Additional information
Book Title | दबे पांव : Dabe Panv by Sunil Prabhakar |
---|---|
Isbn No | |
No of Pages | 288 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
Related products
-
- Keshav Puran : केशव पुराण
-
10048
-
- Changez Khan : चंगेज खान
-
10048
admin –
Aliquam fringilla euismod risus ac bibendum. Sed sit amet sem varius ante feugiat lacinia. Nunc ipsum nulla, vulputate ut venenatis vitae, malesuada ut mi. Quisque iaculis, dui congue placerat pretium, augue erat accumsan lacus