चौबीस घण्टे की जंग
राकेश पाठक
“क्या बांच रहे हो बेटे?”
बीस-बाइस वर्षीय कामदेव के अवतार सरीखे, खूबसूरत गोरे-चिट्टे व लम्बे कद के अमरकान्त ने पत्र की तह करके जेब के हवाले किया और बस की सीट के ऊपर लगे पाइप से सिर टिका कर बोला—“ऐसे ही, सुनीता महाजन के खत को पढ़ रहा था प्रोफेसर साहब—।”
सफेद हो चले बालों वाले अधेड़ कृष्ण देव के सुर्ख व रोबदार चेहरे पर झुंझलाहट भरे भाव उभरे—वो काली, चमकीली तथा ब्लेड की धार जैसी पैनी आंखों से लड़के को घूरते हुए, चेतावनी भरे लहजे में फुसफुसाया—“शटअप ब्वाय! हम पहले भी ताकीद कर चुके हैं कि हमें प्रोफेसर मत कहो। कानून वाले हमारी टोह में लगे रहते हैं। दूसरी बात ये कि हम प्रोफेसर कृष्ण देव को वर्षों पूर्व दफन कर चुके हैं। हथियारों की नोक से मुजरिमों के सीनों पर मौत लिखने वाला, भला स्टुडेण्ट्स को शान्ति व अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाला प्रोफ़ेसर कैसे हो सकता है?”
“आ...आई एम सॉरी, अंकल। कभी-कभार चमड़े की जुबान फिसल ही जाती है—।”
“तो चिकनाई वाली चीजें क्यों खाते हो भई—?”
“अब नहीं खाऊंगा अंकल—।” कहने पर अमरकान्त ने दोनों कानों की लौ पकड़ ली।
कृष्ण देव बरबस ही मुस्कुरा दिया, फिर रिस्टवाच पर नजरें मार कर बोला—“सुबह के सात बज गए। धूप खिलने लगी है। हम विजय नगर कब पहुंचेंगे?”
“विजय नगर आने वाला ही है अंकल। पीछे एक किलोमीटर वाला स्टोन लगा था।”
एक मिनट पश्चात् ही लग्जरी डीलक्स बस विजय नगर में दाखिल हुई।
एक मिनट बाद बस रोडवेज में दाखिल हुई।
जब कत्ल की मशीन कहे जाने वाले अमरकान्त और चाणक्य वाली सूझबूझ वाले कृष्ण देव ने बस से उतरकर विजय नगर की धरती पर पांव रखे तो घड़ी में वक्त हुआ था—
सात बज कर दो मिनट।
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ऑटो रिक्शा ने कृष्ण देव और अमरकान्त को सात बज कर आठ मिनट पर! आशीर्वाद विला' पर पहुंचा दिया।
अमरकान्त ने ब्रीफकेस उठाया—कृष्ण देव ने चालक को किराया दिया।
कोठी के मेन गेट पर मौजूद बन्दूकधारी अधेड़ गार्ड ने दोनों को सवालिया नजरों से घूरा।
“हम फुलत सिटी से आये हैं भाई...।” कृष्ण देव ने कहा—“जाकर अपनी मालकिन सुनीता को बोलो—वो समझ जाएंगे कि हम कौन हैं?”
“बंशी, अरे, ओ बंशी।” गार्ड ने वहीं खड़े-खड़े किसी को पुकारा।
“क्या बात है फौजी चाचा?” भीतर से एक छोटे कद का युवक दौड़ा हुआ आया और फिर उसने दोनों अजनबियों को सवालिया नजरों से घूरा।
“भीतर जाकर मेमसाहब को बोल कि फुलत सिटी से दो साहब आये हैं। वो अपना नाम नहीं बतला रहे हैं।”
बंशी नामक ठिगना कद का युवक बिना पेन्दी के लोटे की तरह ही लुढ़कता हुआ-सा भीतर चला गया।
दो मिनट बाद वो तो नहीं लौटा।
एक पच्चीस-छब्बीस वर्षीय अनिंद्य सौन्दर्य की मलिका पधारी।
चन्द्रमा की चांदनी-सी उजली वो सिन्दूर मिले मक्खन जैसी त्वचा वाली।
मानो स्वयं ब्रह्मा जी ने अपने हाथों से खूबसूरत मूर्ति को बनाकर उसमें प्राण फूंक दिए हों।
पूरी पीठ को बाढ़ के पानी की तरह घेरकर सुघड़ उभारों को स्पर्श करते रेशमी व काले केश।
पूनम के चांद-सा दमकता चेहरा।
किसी देवी के हाथ में थमी कमान जैसी भंवें, गंगाजल की-सी पावनता लिए झील-सी गहरी आंखें, लम्बी-पतली व सुतवां नाक।
ओस से भीगी गुलाब की पंखुड़ी-से कोमल, गुलाबी व छोटे-छोटे होठ।
लम्बी व गड्ढेदार ठोड़ी पर नन्हा-सा तिल—मानो खीर के कटोरे में पड़ा इलायची दाना।
कुदरती कारीगरी का अद्भुत प्रदर्शन करती लम्बी, पतली व सुडौल गर्दन।
हाथों तथा पैरों की पतली, सुडौल व छुई-मुई सी उंगलियां।
शिख से नख तक खूबसूरत।
लेकिन उसकी सूनी मांग, बिन्दिया विहीन मस्तक, मंगलसूत्र की कामना करता गला और चूड़ियां को सिसकती कलाईयां मानो उस पर हुए अत्याचार की दास्तान कह रहे थे।
उसके जिस्म पर कफन सरीखी लिपटी सफेद साड़ी मानो विधाता से इन्साफ मांग रही थी।
आंखों में श्रद्धा भाव लिए हुए वो झुकी और कृष्ण देव के जूतों को स्पर्श करके दाएं हाथ को सिर पर फेरा।
सीधे होकर दोनों हाथ जोड़कर अमरकान्त का मूक अभिवादन किया।
“बंशी ने फुलत सिटी का नाम लिया तो अपने भाग्य पर विश्वास नहीं हुआ...।” मानो कोई कोयल शहद चाट कर ही कूकी—“आंखों को विश्वास नहीं होता है। ये मेरा अहोभाग्य कि आपने मेरी फरियाद कबूल की और मेरी मदद को चले आये। आइए, पधारिए—अपने चरणों की धूल से मेरे घर को पवित्र कर दीजिए। मैं ही सुनीता महाजन हूं।”
“लेकिन सुनीता बेटी...।” कृष्ण देव उसकी श्रद्धा से भावविभोर होकर बोला—“तुम्हें क्या मालूम कि हम कौन हैं? शायद हम लोग हो न हों, तुम्हें जिनकी प्रतीक्षा हो।”
“भीतर तो चलिए आप दोनों। मालूम पड़ जाएगा कि मैंने आपको बिना परिचय के ही कैसे पहचान लिया है?”
अमरकान्त और कृष्ण देव ने एक दूसरे को सवालिया नजरों से देखा—मानो पूछ रहे हों कि भीतर क्या है, जो सुनीता महाजन ने उन्हें पहचान लिया?
¶¶
ठक...ठक...ठक।
विजया ने कोहनियों के ऊपर से कटे हाथों से मैगजीन का पन्ना पलटा ही था कि 'ठक-ठक' की आवाज पर चौंक कर गर्दन घुमाई।
“तु...तुम...!” वो उठी तथा हैरानी के साथ बोली—“ये...ये तुम हो राजेश?”
सांवला...लेकिन आकर्षक व्यक्तित्व का वो युवक बेंत के सहारे लंगड़ाते हुए आगे बढ़ा और विजया से दो फुट की दूरी पर पहुंचकर ठिठका।
बायां हाथ विजया के कन्धे पर रखा तथा उसकी खूब बड़ी, चमकीली, नशीली-सी आंखों में झांकते हुए बोला—“राजेश रस्तोगी, एक्स पुलिस ऑफिसर। कोई शक?”
“ना...नहीं, कोई शक नहीं...।” भावातिरेक विजया भर्राए स्वर में बोली—“लेकिन आज तुम्हारी बगलो में बैसाखियां नहीं हैं। भले ही हाथ में बेंत है, लेकिन तुम दोनों टांगों से चलकर आये हो राजेश। ये सब कैसे हो गया राजेश?”
“ये सब जयपुर में बनी कैलीबर लैन्स की मेहरबानी है विजया। तुम्हें सरप्राइस देने के लिए ही मैं बिना बताए ही जयपुर चला गया था। वहां डॉक्टर ने जयपुरी पैर फिट कर दिया। थोड़े दिनों बाद ही में बेंत के बिना ही चल सकूंगा। हां, थोड़ी लंगड़ाहट जरूर रहेगी। लेकिन डॉक्टर का कहना है कि मैं एक दिन बिना बेंत या किसी सहारे के दौड़ भी सकूंगा। ले...लेकिन...।”
“लेकिन? ये क्या राजेश—तुम अचानक ही सीरियस कैसे हो चले?”
“लेकिन मेरे दौड़ने, न दौड़ने से क्या फर्क पड़ता है विजया...।” राजेश रस्तोगी बुझे-से मन से बोला—“अब मैं कानून की वर्दी पहनकर मुजरिमों के पीछे तो तोड़ नहीं सकूंगा। काश...काश कि उन गुण्डों की गोली मेरे पैर में ना लग कर सीने में लग...।”
विजया ने तड़पकर राजेश रस्तोगी के होठों पर अपना हाथ रख दिया और बोली—“ना-नहीं राजेश—ऐसी अशुभ बातें ना करो। मत भूलो कि तुमने मेरे दिल के बदले अपनी बाकी की जिन्दगी मेरे नाम कर दी है। या तुम अपने वादे से मुकर रहे हो?“
“ना-नहीं पगली—अब मेरा सब तुम्हारी अमानत है। लेकिन जुर्म के जंगल में कानून की दहाड़ लगाने वाले शेर को अगर पिंजरे में कैद कर दिया जाए तो वो जीते जी मर जाता है—।”
“होता है, ऐसा ही होता है राजेश...।” विजया छोटे, दूध से चिट्टे व मोतियों से दमकते दांतों से अधर को चबाकर बोली—“पानी में रहने वाले को अगर गर्म रेत पर डाल दिया जाए तो वो मछली की तरह ही छटपटाता है। मैं भी अपने दोनों हाथों के साथ वर्दी को गंवा कर ऐसे ही तड़पती थी—तन्हाईयों में खून के आंसू रोती थी। लेकिन वक्त मरहम बनकर हर जख्म को सुखा देता है। इन्सान का मिजाज पानी की तरह होना चाहिए कि हालात के रंग जैसा ही हो जाए। मुझे देखो, मैं तो कुछ भी नहीं कर सकती हूं। फिर भी मुस्कुराने की चेष्टा करती हूं।”
“डोन्ट वरी विजया...।” राजेश रस्तोगी विजया के कटे हाथों को थाम कर बोला—“अब राजेश रस्तोगी के दोनों हाथ विजया के हाथ हैं। वैसे मैंने जयपुर में डॉक्टर को तुम्हारे बारे में बताया था। वो बोल रहा था कि किसी दिन तुम्हें जयपुर ले आऊं। वो तुम्हें कृत्रिम हाथ लगा देगा। जिनसे तुम वो काम कर सकोगी, जिनमें उंगलियों की जरुरत ना पड़ती हो। कृष्ण देव अंकल और अमरकान्त भाई नहीं आये क्या?”
“परसों आये थे। भारत नगर में उन्होंने जो होटल खोला था, उसमें शॉर्ट सर्किट की वजह से आग लग गई थी...।”
“ओह नो।”
“होटल ठेके पर था। मालिक ने दूसरा होटल बनवा कर देने को कहा है। दोनों कल सुबह ही चले गये थे।”
“क्या उन्हें सुनीता महाजन वाला खत दिया था?”
“मैं नहीं चाहती थी कि वो दोनों मारामारी करें और खतरे मोल ले। इसलिए खत को छिपा गई थी। लेकिन अमरकान्त के हाथ लग गया था। मुझे नहीं लगता वो रुक पाएगा। अंकल को भी अपने साथ खींच ले जाएगा।”
“डोन्ट वरी विजया। वो दोनों भले ही कानून की नजर में मुजरिम हो। लेकिन वो दीन-दु:खियों के रखवाले और मुहाफिज हैं। जालिमों का संहार करके वो मेरी समझ में कानून की मदद कर रहे हैं। वो सही मायने में धर्मयुद्ध लड़ रहे हैं। धर्मयुद्ध करने वालों का भगवान भी साथ देता है। मजलूमों की दुआएं भी उनको सपोर्ट देती हैं। लिहाजा तुम उन दोनों की फिक्र मत किया करो। क्या वो मुझे याद कर रहे थे?”
“हां, दोनों ही। अमरकान्त तो तुम्हारे घर भी गया था। लेकिन तुम वहां थे ही नहीं। ना जाने कहां गायब रहते हो तुम?”
“वो...वो क्या है कि पुलिस वाली आदत इतनी आसानी से नहीं जाने वाली। भेष बदलकर इधर-उधर जाता हूं और मुजरिमों की खोज-खबर पुलिस को देकर दिल बहला लेता हूं। यानी पुलिस के लिए मुखबिरी करता हूं। शादी की बाबत बात की थी?”
“नहीं—।”
“ना- नहीं?” राजेश रस्तोगी का चेहरा मुरझा गया।
“बुद्धू...।” विजया मुस्कुरा कर बोली—“मुझे बात करने की जरूरत ही नहीं। अंकल और अमरकान्त ने ही मुझसे कहा कि अगर हम दोनों एक-दूसरे को पसन्द करते हों तो वो हमारी शादी कर डालें।”
“ओह, सच।”
“बिल्कुल सच।”
“तो तुमने क्या कहा?”
“मैंने हामी भर दी...।” कहने पर विजया ने लजाकर चेहरा झुका लिया और पांव के दोनों अंगूठों से फर्श को खुजलाने लगी।
“ओह, विजया। तुमने तो तबीयत गार्डन-गार्डन यानी बाग-बाग कर दी। इसी बात पर तुम्हें चाय बना कर पिलाता हूं। फिर मुझे जाना है। किसी जगह स्मगलिंग का माल आने की भनक लगी थी। अगर मैंने वो माल पकड़वा दिया तो कमीशन के रूप में काफी रकम मिलेगी। शादी के लिए बैंक बैलेन्स तो बनाना ही पड़ेगा भई। शादी के बाद बाल-बच्चे भी तो होंगे।”
“धुत्त...धुत्त...बेशर्म कहीं के। टाइम क्या हुआ है?”
“सात बजकर दस मिनट।”
“प्लीज, टी०वी० खोल दो। रंगोली आयेगी।”
राजेश रस्तोगी टी०वी० ऑन करके किचन में चला गया।
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