केशव पण्डित सीरीज
चैलेन्ज माँ के दूध का
गौरी पण्डित
बेहद काले-कलूटे और ताड़ जैसे लम्बे शालार ने कुर्सी के साथ बंधे अतुल मेहरा के चारों ओर एक परिक्रमा सी की...और इसके उपरांत उसके गाल पर एक झन्नाटेदार थप्पड़ मारते हुए वो नाग की मानिंद फुंफकारा –
“हरामजादे...तेरी ये जुर्रत कि तूने हमारे बॉस की शान में गुस्ताखी की...हमारे आदमियों को भला-बुरा कहा और हमारी कम्पनी का हुक्म मानने से इंकार कर दिया! मैं तुझे जिंदा धरती में गाड़ दूंगा-मैं तेरे जिस्म की बोटी-बोटी काटकर कुत्तों को खिला दूंगा! ऐसी मौत दूँगा कि उसे देखकर तेरी आत्मा भी कांप जायेगी !” मारे गुस्से के उसकी आँखों से चिंगारियां सी निकल रही थीं।
यूं मुस्कराया अतुल मेहरा मानो शालार ने कोई बचकानी बात कह दी हो।
“शालार,” वो घृणा से बोला— “मौत का मुझे कोई डर नहीं है—देश के लिये मर-मिटने वाले वीर क्रांतिकारी श्रीमान दलपत राय का पौत्र हूँ मैं ! मेरी रगों में गर्दिश करने वाला खून उस शख्स का है...जो हँसते-हँसते फांसी के फंदे पर तो झूल गया...मगर अंग्रेज सरकार के आगे नत-मस्तक नहीं हुआ।”
शालार उसे कहरभरी नजरों से घूरता रहा।
“मैं भी नहीं झुकूंगा शालार ! तुम चाहो तो मेरी बोटी-बोटी काट सकते हो...जिंदा जला सकते हो मुझे...लेकिन मैं ऐसा कोई काम नहीं करूँगा...जो देश, समाज और मानवता के हित में न हो....।”
शालार के जबड़े कस गए।
सुर्ख आँखों में खून के कतरे-से नजर आने लगे।
“तुम्हारे आदमी आये थे मेरे पास,” अतुल मेहरा कहता रहा—“जानते थे वो कि मैं यहाँ की मैडिकल ऐसोसिएशन का अध्यक्ष हूँ। वो चाहते थे कि मैं यहाँ के सभी डॉक्टरों एवं दवाई विक्रेताओं से तुम्हारी कम्पनी की दवाइयों को प्रयोग करने और बेचने की सिफारिश करूँ...मगर मैंने साफ इंकार कर दिया। जानता था...जो लोग नकली दवाइयां बनाते हैं...वो दवाइयों के नाम पर जहर बेचते हैं। हमारे देश में प्रतिवर्ष हजारों रोगी इसलिए मौत के शिकार हो जाते हैं...क्योंकि उन्हें असली के नाम पर नकली दवाइयां मिलती हैं ! मैं अपने शहर में ये धंधा नहीं होने दूंगा ! मेरे रहते कोई इस शहर में ज़हर का व्यापार नहीं कर सकता...कोई खिलवाड़ नहीं कर सकता इस शहर के लोगों की जिंदगी से...!”
अतुल मेहरा इससे आगे भी कुछ कहता...किन्तु तभी गुस्से से भरे शालार ने उसके चेहरे पर ऐसी चपत जमायी कि उसका निचला होंठ फट गया और वो घुटी-सी चीख का साथ कुर्सी सहित नीचे गिर पड़ा।
गुस्से की ज्यादती की वजह से शालार का काला चेहरा कोयले की मानिंद दहक रहा था। उसके मुँह से भेड़िए जैसी गुर्राहट निकली-
“साले...मैं भी देखता हूँ...तू कितना बड़ा देशभक्त है और मानवता का कितना बड़ा पुजारी है। मैं तेरी खाल खींचकर भूसा भर दूंगा...।”
कहते ही शालार ने चाकू निकाल लिया। कमरे में चार नकाबपोश भी थे...जो दरवाजे के निकट खड़े थे।
अतुल के होंठ से लहू की धारा फूट रही थी...मगर खौफजदा नहीं था वो। गुस्से और अपमान की वजह से उसकी आँखें अवश्य सुलग रही थीं।
शालार चाकू को मजबूती से पकड़े हुए उसकी ओर बढ़ा। मगर इससे पहले कि वो उसका इस्तेमाल कर पाता...कमरे में कहीं छुपे स्पीकर से किसी की भारी एवं खुरदरी आवाज सुनायी दी—“नहीं शालार...इसे कुछ मत कहना...।”
शालार ने चौंक कर छत की ओर देखा।
“तुम जानते हो...बातों के भूत जब लातों से भी नहीं मानते तो उनके लिये कुछ और सोचना पड़ता है !”
“यस बॉस !”
“मेहरा के परिवार में कौन-कौन हैं?”
“इसकी बूढ़ी माँ, पत्नी, दो बच्चे और एक युवा बहन !” शालार ने बताया।
“उन लोगों को यहाँ ले आओ...और उन्हें इसी के सामने कत्ल कर दो !”
“ओ०के० बॉस !”
“नहीं !” अतुल मेहरा घबराकर चिल्लाया—“उन लोगों को यहाँ मत लाना...मत लाना ! मैं...मैं हाथ जोड़ता हूँ।”
शालार ने उसकी इस बात पर वहशी किस्म का ठहाका लगाया।
¶¶
दरवाजा खोलते ही शराब का एक तेज भभका ममता के नथुनों से टकरांया...तो वो जल्दी से पीछे हट गयी और अंदर दाखिल होते अपने पति रजत को चौंकने वाली निगाहों से देखने लगी।
रजत ने अंदर आते ही दरवाजा बंद किया और इसके उपरांत ममता के कंधे पर हाथ रखकर वो बोला
“हैलो डार्लिंग...!”
“तुमने,” ममता फिर पीछे हट गयी और बोली—“तुमने ड्रिंक की है राजन?”
“सॉरी ममता,” राजन ने ब्रीफकेस रखा और सोफा चेयर पर बैठते हुए बोला–“बात ये है कि आज मैं बहुत खुश था ! बस...क्लीनिक बंद किया और विजय बार में चला गया। वहाँ दो मित्र और मिल गये और...पीने का दौर चल पड़ा...!” कहते हुए उसने मेज पर पांव फैला दिये और सिगरेट सुलगाने लगा।
ममता उसे पढ़ने वाली निगाहों से देख रही थी।
“तुम देखना ममता...जल्दी ही वो दिन आयेगा...जब हमारे पास सब कुछ होगा। अपनी गाड़ी, “अपना बंगला और अपना हॉस्पिटल ! मेरी गिनती भी शहर के बड़े डॉक्टरों में होने लगेगी। हम अपनी बेटी रिचा को भी डॉक्टर बनायेंगे...
“क्यों...कहीं से कुबेर का खजाना मिलने वाला है?”
“कुबेर का खजाना !” कहते हुए रजत ने ठहाका लगाया—“ममता डार्लिंग...कुबेर का खजाना भी नसीबवालों को ही मिलता है ना...ऊपर वाला जब देता है...तो छप्पर फाड़कर देता है। यकीन नहीं होता...तो इधर आओ और मेरा ब्रीफकेस खोलकर देखो। अरे देखो तो ममता रानी...!”
ममता ने आगे बढ़कर ब्रीफकेस खोल दिया।
अंदर सौ-सौ के नोटों की कई गड्डियां रखी थीं। ममता ने उन्हें देखा और चौंककर यों एक झटके से पीछे हट गयी...मानो उसने ब्रीफकेस में छुपे किसी सर्प को देख लिया हो। आँखें हैरत से फटने लगीं और फिर उसकी संवालियाँ निगाहें अपने पति की ओर घूम गयीं।
रजत गर्व से मुस्करा रहा था।
“पूरे एक लाख हैं ममता डार्लिंग !”
“हाँ”, ममता बोली–“ये तो मैं भी देख रही हूँ कि एक लाख से कम नहीं हैं...लेकिन इतना रुपया मिला कहाँ से तुम्हें?”
“ऊपरवाले ने दिया है !”
“ऊपरवाला यों ही बैठे-बिठाए किसी को कुछ नहीं देता...कुछ भी पाने के लिए कुछ-न-कुछ जरूर करना पड़ता है। मैं ये जानना चाहती हूँ कि तुमने ये रुपया पाने के लिए क्या किया है? तुम्हें ये 'रुपया यों ही नहीं मिला होगा...!”
रजत ने कुछ न कहा।
कुर्सी की पुश्त से सटा वो सिगरेट का धुआँ उड़ाता रहा।
ममता की बेचैनी बढ़ गयी। रजत को झिंझोड़ते हुए वो चिल्लायी–“जवाब क्यों नहीं देते तुम?”.
“ममता...समझदार लोग आम खाते हैं...पेड़ नहीं गिनते ! क्या ये बात कम खुशी की है कि हमने जीवन में पहली दफा इतनी बड़ी रकम देखी है?”
“नहीं राजन !” ममता ने घृणा से कहा–“मेरे लिए ये बात खुशी की नहीं है। तुम यदि दस-बीस लाख भी लेकर आते...तब भी मुझे खुशी नहीं होती बल्कि दुख होता मुझे। ये सोचकर दुख होता कि संभवतः तुमने अपने आदर्शों का गला घोंट दिया है...बेच दिया है अपने आपको ! और...ये सब मैं कभी सहन नहीं कर सकती रजत...कभी सहन नहीं कर सकती मैं...!”
“हाँ,” तड़प कर उठा राजन और आक्रोश से चिल्लाया–“घोंट दिया है मैंने आदर्शों का गला...बेच दिया है मैंने अपने आपको...।”
“रजत!”
“और जानती हो...मैंने ऐसा क्यों किया? क्योंकि तंग आ चुका था मैं झूठे और खोखले आदर्शों से...घृणा होने लगी थी मुझे स्वयं से...और बेमानी लगने लगा था मुझे ये शब्द ! कोई मोल नहीं है झूठे, मक्कार और फरेबी जमाने में आदर्शों का। पागल और बेवकूफ समझा जाता है आदर्शवादी लोगों को–“
“ये...ये झूठ है रजत !”
“ये सच है ममता...और इसका जीता-जागता उदाहरण है वो शख्स...जो इस वक्त तुम्हारे सामने खड़ा है...डॉक्टर रजत ठाकुर एम०बी०बी०एस० ! क्या है मेरे पास सिवाए इस डिग्री के...किराये का मकान और किराये की दुकान...! गाड़ी तो दूर...एक स्कूटर भी नहीं खरीद सका। और...एक मेरा पड़ोसी है...डॉक्टर बाबू खाँ...न कोई डिग्री और न ही कोई डिप्लोमा...डॉक्टर हैदर अली के पास कम्पाउंडर था वो...और आज उसके पास सभी कुछ है। अपना फ्लैट...अपनी गाड़ी...बेटा विदेश में पढ़ रहा है ! मेरी तरह वो भी अपने पेशे के प्रति ईमानदार और आदर्शवादी होता तो भूखों मरता ! और तुम...तुमने भी तो पत्रकारिता में डिप्लोमा लिया था...तीन अखबारों में काम भी किया..मगर फिर नौकरी छोड़ दी। इसीलिए तो....क्योंकि तुम आदर्शवादी थी...तुम अपनी कलम के माध्यम से सच्चाई का पर्दाफाश करना चाहती थीं...जो कुछ देखती थीं...वो ही लिखना चाहती थीं। मगर सम्पादकों को ये सब पसंद न था...और नतीजा ये हुआ कि तुम्हें पत्रकारिता से ही नफरत हो गयी...”
ममता खामोश थी।
“ममता,” रजत बैठ गया और सिगरेट का धुआं उड़ाकर बोला–“सच तो ये है कि आज के इस युग में सिद्धांतों का कोई मोल नहीं रह गया है...नहीं चल सकती जिंदगी की गाड़ी आदर्शों और सिद्धांतों के सहारे...नहीं कमाया जा सकता पैसा। इसके लिए लूट-खसोट और बेईमानी जरूरी है...बेचना जरूरी है अपने आपको...।”
“तो फिर...ये क्यों नहीं कहते कि तुमने अपने आपको बेच दिया है?”
“हाँ ममता...मैंने बेच दिया है अपने आपको...खून कर दिया है मैंने अपने सिद्धांतों और आदर्शों का! नफरत होने लगी थी मुझे अपने आपसे...नाली में रेंगने वाले कीड़ों की तरह जीना मुझे पसंद न था...ऊब गया था मैं ! मेरा मन दौलत और शौहरत की दुनिया में उड़ने के लिए मचल रहा था। यही कारण था कि आज जब मुझे अवसर मिला तो...!”
“बिक गये तुम?”
“हाँ...बिक गया मैं...”
“खरीददार कौन था?” ममता ने पूछा। उसकी झील सी गहरी आँखों से नफरत की चिंगारियां छूट रही थीं।
“एक बूढ़ा आदमी...।”
“नाम?”
“नाम नहीं बताया !”
“लेकिन काम तो बताया होगा !”
“काम भी कोई खास नहीं है !”
“फिर भी...”
“मुझे उसकी कम्पनी की दवाइयों का प्रचार करना है और अपने मरीजों को भी उसी की कम्पनी की दवाइयां देनी हैं !”
“दवाइयां नकली होंगी?”
“कह नहीं सकता !” रजत ने अंतिम कश लेकर सिगरेट ऐश ट्रे में डाल दी और बोला–“लेकिन उस एजेंट का कहना है कि यदि मैं उसके लिए काम करूँगा...तो वो मुझे काम के बदले में प्रतिमाह एक लाख रुपया देगा...।”
“और...तुम तैयार हो गये...एक लाख रुपया पेशगी भी ले लिया...क्यों?”
“ममता...मैंने कहा न...मैं अभावों से भरा जीवन जीते-जीते थक गया था...ऊब गया था मैं अपनी जिंदगी से मुझे भी वो सब चाहिए था...जो दूसरों के पास है...।”
“अपने सिद्धांतों का गला काटकर...है ना?” ममता की आवाज में कड़वाहट थी।
“ममता...तुम...!”
“रजत...तुम जानते हो...मैंने तुम्हें क्यों चाहा था...ऐसा कौन सा रूप था तुम्हारा...जो हमेशा-हमेशा के लिए मेरे दिल में समा गया था और मैंने मन-ही-मन तुम्हें अपना देवता मान लिया था...पुजारिन बन गयी थी मैं तुम्हारी...? तुम्हारे आदर्शों और सिद्धांतों की वजह से राजन...सिर्फ तुम्हारे गांधीवादी विचारों की वजह से ! मगर आज...तुमने मेरी उम्मीदों पर पानी फेर दिया राजन...तुमने अपने आदर्शों का खून करके मेरे प्यार का खून कर दिया...तोड़ दिया मेरे दिल को...।”
कहते-कहते ममता के होठों से सिसकियां फूट पड़ी।
रजत ने उसे रोते देखा...तो उसके अन्तर्मन में पीड़ाओं का एक तूफान उमड़ पड़ा।
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