बून्द-बून्द में मां का नाम : Bund Bund Mein Maa Ka Naam by Sunil Prabhakar
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दुश्मन की घुसपैठ देश में इस कदर हो चुकी थी कि वो भारतीयों के साथ दूध-पानी की तरह घुलमिल गए थे। दुशमन यहीं से अपने नापाक इरादों को कम्फर्टेबिली अंजाम दे रहा था। भारत मां का दामन चाक हो रहा था मगर वो खंजर गायब था जो मां के दामन को चाक कर रहा था।
मगर...।
वो उन शमशीरों को भूल गया था जो भारत मां की हिफाजत में हर वक्त तैनात हैं। अगर दुश्मन के दिल में भारत मां की तबाही का मंसूबा और नफरत है तो यहां के जियालों के रक्त की बूंद-बूंद में मां का नाम और मां के नाम पर न्यौछावर हो जाने का जज्बा है।
बून्द-बून्द में मां का नाम : Bund Bund Mein Maa Ka Naam
Sunil Prabhakar सुनील प्रभाक
Ravi Pocket Books
BookMadaari
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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बून्द-बून्द में मां का नाम
सुनील प्रभाकर
उन चारों की ओर देखते हुए अभिनव शर्मा सहमा-सा खड़ा था। उसकी सिट्टी-पीट्टी गुम हो चुकी थी। भय और आतंक ने उसको जड़ बना दिया था। उसका गला एकदम खुश्क हो गया था। कई बार वो बोलने की कोशिश कर चुका था मगर आवाज थी कि गले के बाहर ही नहीं आ रही थी। बस आंखें फैलाए चारों को देखे जा रहा था जो यमदूत बने उसको घेरे हुए खड़े थे।
समय था दिन का। लगभग डेढ़ बज रहे थे। धूप चारों तरफ पसरी हुई थी। नवम्बर का अन्तिम सप्ताह। हवा में ठण्डक। लेकिन अभिनव शर्मा का शरीर पसीने से तर था। उसमें इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि चेहरे पर बह आये पसीने को पोंछ लेता।
वो लंच के लिए ऑफिस से निकला था कि निकलते ही उन लोगों ने घेर लिया था। चलती-फिरती भीड़-भाड़ वाली सड़क थी। ट्रैफिक की रेल-पेल और उसका शोर माहौल में व्याप्त था लेकिन अभिनव शर्मा को कुछ भी नहीं सुनाई दे रहा था। चिल्ला सकता था। लोगों को एकत्र कर सकता था। मगर उसकी जो हालत थी उसमें कुछ भी करने लायक स्थिति उसकी नहीं थी।
“चल कार में बैठ जा।” उन चारों में से एक ने ठण्डे स्वर में आदेश दिया—“तुझे बॉस ने बुलाया है।”
“ये साला तो कुछ बोल ही नहीं रहा है।” दूसरे ने कड़वे स्वर में कहा।
“बोलती बन्द हो गयी है पट्ठे की।” तीसरा बोला।
“बोलेगा, जरूर बोलेगा। तोते की तरह बोलेगा।” चौथा शख्स हौले-से मुस्कुराया—“हम लोगों से नाराज है इसलिए नहीं बोल रहा है। बॉस के सामने बोलेगा। जब बॉस बातचीत करेंगे तब बोलने लगेगा। चल आजा।”
उसने अभिनव शर्मा की बांह थामी और पास खड़ी कार की ओर बढ़ा। बाकी तीनों भी उसे घेरे रहे।
अचानक उसकी चेतना को झटका-सा लगा। आतंक ग्रसित जड़ता टूटी। उसने झटका देकर बांह छुड़ा ली।
“मैं नहीं जाऊंगा।” वो सूखे स्वर में बोला—“मुझे नहीं पता तुम लोग कौन हो। मैं तुम लोगों को नहीं जानता।”
“पटवर्धन साहब को तो जानता है तू?” पहले शख्स ने कठोर स्वर में कहा।
“उनको जानता हूं।”
“महीना भर पहले तेरे घर आये थे हम लोग—तब तूने हम चारों को देखा था। बात की थी। चाय-पानी करवाया था। तब तूने नहीं कहा था कि हमें नहीं जानता है।”
अभिनव शर्मा कुछ नहीं बोला।
“मुझे जाने दो।” उसने कसमसाकर कहा—“मैं...।”
अचानक उसका बोलना थम गया।
उसके कमर में कोई कड़ी चीज चुभने लगी।
उसने सकपकाकर देखा तो भय से उसकी आंखें और चौड़ी हो गयीं।
“य...ये क्या है?” वो हकलाया।
“रिवॉल्वर—। इसमें छह गोलियां हैं। कभी गोली अगर तेरे भीतर घुस गयी तो तू यहीं छिपकली की तरह-पट्ट से गिरेगा।” उसने क्रूरता पूर्वक कहा—“अगर अपनी भलाई चाहता है तो चुपचाप बिना कुछ बोले—ना-नुकुर किए चला चल। हम तुझे मारना नहीं चाहते—अगर तू नहीं माना तो गोली मारनी पड़ेगी।”
अभिनव शर्मा ने होठों पर जुबान फिराई।
उसके प्राण गले में आ टिके।
गले की घण्टी ऊपर-नीचे हुई।
“हरामजादे!” सहसा एक ने कहर भरे स्वर में कहा—“बैठता है कार में या यहीं पलटा दूं?”
और ऐसा लगा उसे जैसे हवा के जोर से कार के भीतर घुस गया हो।
उसकी समझ में कुछ नहीं आया। जब समझ में आया तो अपने को दो लोगों के बीच कार की पिछली सीट पर सैंडविच बना पाया। कार भागती चली जा रही थी।
¶¶
रजनी शर्मा बी०ए० थर्ड ईयर की तेज-तर्रार छात्रा थी।
लम्बी, छरहरी, खूबसूरत तथा मजबूत जिस्म की रजनी शर्मा जब आखिरी पीरिएड अटैण्ड करके क्लास से बाहर आयी, दिन के साढ़े बारह बजे थे।
वो धीरे-धीरे चलती हुई गेट की ओर बढ़ी।
वो सोच रही थी कि बी०ए० कम्प्लीट करके कोई न कोई तकनीकी ट्रेनिंग ज्वाइन करके अपने पैरों पर खड़ी होने का प्रयास करेगी। वो इन्टीरियर डेकोरेटर... फैशन डिजाइनिंग या फिर कम्प्यूटर इंजीनियर बनने का प्रोग्राम सोच रही थी। अपने विचारों से उसने मां-बाप को भी अवगत करा दिया था। परिवार में मां-बाप के अलावा एक छोटा भाई था—जो हाईस्कूल में था। चार प्राणियों का उसका परिवार सुखी और प्रसन्न था।
गेट से दस-बारह मीटर दूर थी कि एकाएक सांवले रंग का लम्बा-तगड़ा युवक सामने आ गया—“हैलो रजनी!”
वो ठिठकी। युवक की ओर कठोर दृष्टि डाली।
“क्या बात है?”
“तुमसे कुछ बात करनी है।” वो धूर्ततापूर्वक बोला।
“कैसी बात?”
“वही जो परसों...।”
“देखो रंजीत।” रजनी ने धैर्यपूर्वक कहा—“परसों तुमने जो भी कहा था, उसका मैंने तुमको दो टूक जवाब दे दिया था। अब उस सम्बन्ध में मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी है—न गुंजाइश है। और कोई बात हो तो बोलो।”
रंजीत का सांवला चेहरा और भी सांवला हो गया। उसकी आंखों में एक खतरनाक चमक उभरकर लुप्त हो गयी। रजनी सपाट दृष्टि से उसका चेहरा देखती रही। मगर मन-ही-मन वो हल्की-सी भयभीत थी। ये दूसरी बात थी कि अपने भीतर के भय को उसने जाहिर नहीं होने दिया था।
“तुम जानती हो क्या कह रही हो?”
“ऑफकोर्स।”
“फिर भी?”
“फिर भी।” रजनी ने तीव्र स्वर में कहा—“फिर भी मैं मना कर रही हूं। तुमको जानने के बाद भी मना कर रही हूं। मुझे पता है कि तुम किसके बेटे हो, तुम्हारे बाप का क्या रुतबा है, कितनी पहुंच और उस पहुंच के बल पर वो क्या कर सकते हैं। अब भी सौ बार... हजार बार, लाख बार मेरा इंकार है।”
रंजीत ने होंठ काटे।
उसके जबड़े के मसल्स उभर आये थे। जाहिर था रजनी के बाद से उसके भीतर गुस्से का लावा उबल रहा था। उस लावे को वो कैसे रोके था—वही जानता था। शायद रजनी की जगह कोई और होता तो अब तक उसने अपने स्वभाव के मुताबिक कदम भी उठा लिया होता।
“नतीजा जानती हो?”
“क्या कर सकते हो तुम?” रजनी ने भावहीन दृष्टि से उसकी आंखों में झांकते हुए कहा—“जबरदस्ती करोगे? रंजीत साहब, अभी मुझे जाना ही नहीं है ठीक से। मुझे पता है कॉलेज की कई लड़कियों के साथ तुमने क्या किया है। उनमें से दो ने आत्महत्या कर ली। तीन ने कॉलेज छोड़ दिया। तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगड़ा। पुलिस ने केवल खानापूर्ति के लिए, दिखावे के लिए हाथ-पैर मारे मगर तुम्हारे बाप के प्रभाव के कारण खामोश हो गयी। तुम एकदम सेफ, स्वतन्त्र घूम रहे हो। कॉलेज के लड़के तुमसे डरते हैं—अधिकांश—तुम्हारी चमचागिरी में लगे रहते हैं।”
“मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं।”
“तुम चाहते हो—मैं नहीं चाहती। वैसे भी मैं शादी करने के मूड में नहीं हूं अभी। मुझे पढ़ाई करके अपना भविष्य बनाना है। अपने पैरों पर खड़ा होना है। कुछ इच्छाएं तथा महत्वाकांक्षाए हैं मेरी—सपने हैं—उनको साकार बनाना है।”
“वो शादी के बाद भी हो सकता है।” रंजीत ने शान्त स्वर में कहा।
रजनी मुस्कुराई। उसकी उस मुस्कान में उपेक्षा के साथ-साथ चिढ़ाने वाला भाव भी था।
“मैंने तो समझा था तुम होशियार और समझदार होगे—लेकिन तुम तो एकदम गावदी निकले। रंजीत—प्यार, मोहब्बत, चाहत ऐसे शब्द है जिनका शायद तुमको अर्थ तक नहीं मालूम है। बाप की ताकत, पहुंच और पैसा—इन तीनों ने तुमको खुदगर्ज, ऐय्याश और वासना का गुलाम बना दिया है। लड़कियों को पटाना, उनसे खेलना और मतलब निकल जाने के बाद दूध की मक्खी की तरह दूर फेंक देना तुम्हारी फितरत बन चुकी है। प्यार कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो बाजार में बिकने वाली हो। इसे बलपूर्वक हासिल करने की बात दिमाग से...।”
“बेकार है रजनी बहन।” तभी पीछे से आवाज आयी—“कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं हो सकती। बारह साल नलकी में रखने के बाद भी। ये शख्स शब्दों की भाषा नहीं समझता है।”
रंजीत तेजी से घूमा।
उसका चेहरा क्षणभर में ही दहकता अंगारा हो गया था।
¶¶
“तू?” रंजीत ने दांत पीसे।
“दिखाई नहीं देता, मैं ही हूं।”
आस-पास लड़के-लड़कियां खड़े थे। सभी मुस्कुरा रहे थे। कई चेहरे ऐसे थे जिनकी आंखों में क्रोध, घृणा और नफरत का भाव स्पष्ट नजर आ रहा था।
रंजीत का धैर्य और विवेक जैसे उसका साथ छोड़ गये।
उसकी सौम्यता गायब हो गयी थी। रजनी शर्मा के साथ बातचीत में जो मीठापन था—वो सिरे से नदारद हो गया। उसका वास्तविक चेहरा पलभर में सामने आ गया था।
“तू यहां क्या कर रहा है?”
“रजनी बहन के साथ जो प्रेम भरे डायलॉग तुम बोल रहे थे—उनको सुन रहा था। यार—ऐसा लग रहा था जैसे तुम्हारे भीतर मजनूं की आत्मा घुस गयी हो।”
“हरामजादे।”
“छोटा। बड़े तो तुम हो।”
“अपने लिए बहुत बुरा कर रहे हो तुम।” रंजीत हिंसक स्वर में बोला—“इतना बुरा जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते।”
दिलीप शाण्डिल्य ने बबूना का कन्धा दबाकर उसे बोलने से रोक दिया। उसकी जगह स्वयं बोला—“तुम क्या और कितना बुरा कर सकते हो—इसे हम दोनों जानते हैं। मगर, इस बात का ख्याल रखना कि जितना बुरा तुम कर सकते हो उससे कई गुना ज्यादा बुरा तुम्हारा हो सकता है।” सहसा उसका स्वर कड़ा हो गया—“काफी देर से तुम्हारी बकवास हम दोनों ही नहीं—बाकी साथी भी सुन रहे थे। भई क्या है तू और तेरा बाप? इस शहर का मालिक? हमारा अन्नदाता? या भगवान? हम दोनों का क्या करेगा तू? रजनी का क्या करेगा? जबरदस्ती करेगा?”
“इसका पता जल्दी चल जाएगा।” वो जाने के लिए मुड़ा।
“कितनी जल्दी कालिया?” बबूना ने छेड़ा।
रंजीत ठिठका।
भस्म कर देने वाली निगाहों से दोनों को घूरा।
“ऐसे देखने की जरूरत नहीं है।” बबूना ने आराम से कहा—“क्योंकि इससे हमारा कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। वैसे तुम्हारे चमचे कहां हैं? आज दिखाई नहीं दे रहे हैं।”
“साले कुत्ते।” वो गुर्राकर झपटा बबूना की ओर—“तुझे अभी सबक सिखाना पड़ेगा।”
ये दूसरी बात थी कि जितनी तेजी से वो बबूना की तरफ झपटा था, उससे ज्यादा तेजी से अपना चेहरा हथेलियों में दबाकर पीछे हटना पड़ा।
दिलीप शाण्डिल्य के एक पंच ने ही उसका हुलिया बिगाड़ दिया था।
छात्रों में इस नये मोड़ ने सनसनी पैदा कर दी।
जो भी हुआ था अप्रत्याशित था।
मारपीट की नौबत भी आ सकती है, किसी ने सोचा भी नहीं था। दिलीप या बबूना ने भी नहीं।
“सब लोग अपने-अपने घर जाओ।” दिलीप ने वातावरण को तनाव मुक्त बनाने का प्रयास किया—“किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। रंजीत जैसे लोगों के साथ ऐसा ही व्यवहार किया जाना ठीक होता है।”
रंजीत ने चेहरे पर से हाथों को हटाया।
उसका दायां गाल सूज गया था तथा नीला निशान भी नजर आया था।
“ये तुमने बहुत बुरा किया दिलीप।”—इस बार उसका स्वर ठहराव लिए था—“अपने लिए बहुत बुरा किया है। मुझ पर हाथ उठाना तुमको बहुत भारी पड़ेगा।”
“कितना भारी पड़ेगा—”बबूना बोल पड़ा—“दस-बीस किलो या एकाध कुन्तल? खैर खैरियत चाहते हो तो यहां से तिड़ी हो लो। वर्ना इतनी ठुकाई होगी कि अपनी पहचान तक भूल जाओगे।”
रंजीत जाने के लिए मुड़ा।
“मेरी बात चेतावनी के रूप में और सुनते जाओ।” दिलीप शाण्डिल्य ने गम्भीर स्वर में टोक दिया।
वो ठिठक गया।
बोला नहीं। खा जाने वाली नजर से देखता रहा।
“इस समय तुम्हारे साथ जो कुछ हुआ है—संयोग ही है कि उसका कारण बन गया। यूं ही तुम्हारी हरकतें, व्यवहार तथा कॉलेज में की जा रही बदमाशी और गुण्डागर्दी से प्राचार्य और चीफ प्रोक्टर तक परिचित हैं, लड़के-लड़कियों की बात ही छोड़ दो। अब अगर तुम कॉलेज में रहना चाहते हो तो ये आखिरी मौका है तुम्हारे लिए क्योंकि इसके बाद तुम्हारा बाप—जिसे तुम बहुत पावरफुल समझते हो—जिसके बल पर ये सब करते हो—तुमको बचा नहीं पाएगा।”
“तुम...।” उसने कहना चाहा।
“कुछ भी कहने सुनने की आवश्यकता नहीं है।” दिलीप शाण्डिल्य ने हाथ उठाकर उसे बोलने से रोक दिया—“मुझे जो कहना था—कह चुका। अब चुपचाप यहां से फूट लो। गो अवे फ्रॉम हियर एट अदरवाइज यू विल बी बीटेन बाई मी। गेट लॉस्ट!”
अपमान, कुछ भी न कर पाने की विवशता ने उसका चेहरा उसके भीतर उबाल खाते क्रोध के कारण विचित्र सा बना दिया था। वो दस सेकण्ड तक उसे देखता रहा फिर पलटकर पार्किंग साइड की तरफ बढ़ गया था।
लड़के-लड़कियां सन्नाटे में डूबे खड़े रहे।
उनके चेहरों पर डर व चिन्ता का मिला-जुला भाव था।
यहां तक कि रजनी शर्मा भी परेशान-सी खड़ी थी। बात बढ़ गयी थी। थोड़ी नहीं बहुत ज्यादा बढ़ गयी थी।
“आओ रजनी।” दिलीप शाण्डिल्य ने उसके चिन्तित चेहरे पर नजर डाली—“तुमको घर पर ड्रॉप करता निकल जाऊंगा।” फिर लड़के-लड़कियों की ओर देखा—“यार तुम सब तो ऐसे सहमे खड़े हो जैसे कोई भयंकर घटना हो गयी हो। कोई जरूरत नहीं चिन्ता करने की—सब ठीक हो जाएगा।”
“रंजीत कोई न कोई गड़बड़ जरूर करेगा।” एक लड़का बोला—“उस जैसा शख्स खामोश नहीं रह सकता।”
“अगर करेगा तो उसका नतीजा भी भोगेगा।”
“रजनी को तो परेशानी हो जाएगी। मामला तो इसी के कारण बढ़ा है।” एक लड़की ने कहा।
“मेरे कारण क्यों बढ़ा है?” रजनी का चेहरा तमतमा गया—“मैं उसे बुलाने तो नहीं गयी थी। वही जाने कहां से आकर बकवास करने लगा था। तुम्हारी क्या मंशा है—उसकी बातें—जो बकवास थी—सुनती रहती? जो कहता मान लेती? ये जानते हुए भी कि वो कितना गन्दा, नीच और कमीना है?”
उस लड़की ने मुंह सिकोड़ लिया—“अब क्या करोगी?”
“जब समय आयेगा तो देखा जाएगा। उसका आतंक कॉलेज में इसीलिए है कि कोई उसका मुंहतोड़ जवाब नहीं देता। कोई उसके गलत कामों का विरोध नहीं करता। सभी को पता है—सबने देखा भी है किसी भी लड़की से छेड़खानी करना, नाजायज शब्दों का इस्तेमाल करना, धमकी देना, किसी को भी पीट देना—ये सब क्या है? किसे नहीं पता कि कॉलेज की कितनी लड़कियों का जीवन तबाह और बर्बाद किया है उसने—मगर उसकी करतूतों की सजा क्या मिली? कुछ भी तो नहीं। प्रिंसिपल कोई एक्शन लेते नहीं प्रोफेसर डरे सहमे रहते हैं। मैनेजमेन्ट खामोश बना हुआ है। यानी वो जो चाहे करे—दूसरा उससे गलत कामों का विरोध करे तो वही गलत ठहराया जाए? तुम सब भी कमाल के हो! अभी उसने मेरे साथ अभद्रता की तो तुम सब चूहे बने रहे। दिलीप भाई ने मुंह तोड़ जवाब दिया तो उसे ही समझाने लगे?”
“हमारा ये मतलब नहीं था।” लड़का सकपकाकर जल्दी से बोला सफाई में—“मुझे तो ये लगा कि इस घटना के बाद तुम्हारे लिए खतरा बढ़ गया है। बदला लेने के लिए वो किसी सीमा तक जा सकता है।”
दिलीप हंस दिया धीमे से।
“दोस्तों—न तो रजनी बहन को कुछ होगा, न हमें। अलबत्ता ये जरूर हो सकता है कि कोई गलत हरकत करने के बाद वो कॉलेज आने का रास्ता ही भूल जाए। उसका बाप जीवानन्द पटवर्धन कितना बड़ा, कितना ताकतवर और कितनी पहुंच वाला है हमें पता है। ये भी पता है कि वो है वास्तव में क्या है। जरूरत पड़ी तो उसके बाप को भी सबक सिखाया जा सकता है। आओ रजनी बहन।”
वे तीनों गेट की ओर बढ़ गये।
¶¶
“गयी भैंस पानी में।” एक लड़के ने ठण्डी सांस ली।
“जाती है तो जाए।” दूसरा बोला—“हम उसे पानी में जाने से रोक तो नहीं सकते।”
“कैसे रोक लेंगे भाई—अभी कोशिश तो की गयी थी—उसका नतीजा क्या निकला?”
“रंजीत को हम समझा नहीं सकते। जिसको समझाने का प्रयास किया उसका जवाब सबने सुन लिया है।”
“यानी कुछ न कुछ होकर रहेगा।”
“लगता तो ऐसा ही है।”
“हम तमाशबीन रहेंगे।”
“और कोई रास्ता नहीं है। दिलीप भाई तो मानने से रहे। वो किसी भी मामले में अमूमन अपनी टांग नहीं फंसाते हैं और फंसा देते हैं तो हटाते नहीं हैं।”
“मुझे तो रजनी की चिन्ता है।” उस लड़की ने कहा।
“उसका जवाब भी सुन लिया तुमने।” दूसरी लड़की ने कहा—“वो भी एक नम्बर की जिद्दी है।”
उसी समय रंजीत अपनी गाड़ी लेकर आ गया।
उसकी गाड़ी देखते सबके सब ऐसे खामोश हो गये जैसे जन्म से ही गूंगे हों। वो अकेला नहीं था। उसके साथ चार लड़के भी थे।
रंजीत ने सभी को घूरा।
“यहां क्यों खड़े हो तुम लोग?”
“खड़े कहां हैं—हम लोग जा रहे हैं।”
“मैं सब समझता हूं।” रंजीत ने दांत पीसे—“तुम सब मन-ही-मन खुश हो रहे होगे कि अच्छा हुआ साला मारा गया—बेइज्जती हुई, नीचा देखना पड़ा।”
“हमारे दिल में ऐसी कोई बात नहीं है।”
“फिर क्या है हरामी?” उसके स्वर में दरिन्दगी भर गयी—“क्या है फिर?”
उस लड़के ने होंठ भींच लिए।
“एक बात याद रखना तुम लोग।” उसने सर्द स्वर में कहा—“अगर किसी ने भी मेरे खिलाफ जुबान खोली और मुझे मालूम हो गया तो उसकी खैर नहीं। मैं क्या कर सकता हूं तुम सबको पता है। और शाण्डिल्य का तो बुरा समय शुरू हो गया है। उसे और ठिगने को ऐसा सबक दूंगा कि जीवन में फिर कभी किसी के बीच में बोलने लायक नहीं रहेंगे। और वो हरामजादी रजनी—उसकी तो ऐसी गत बनेगी कि किसी लायक नहीं रहेगी।”
इस बार भी कोई नहीं बोला।
ये और बात थी कि सभी के दिलों में अपार घृणा लहरा रही थी। किंतु बोलता कौन? किसी में इतना साहस नहीं था कि उसके मुंह पर बोल सकता।
रंजीत ने हिकारत भरी दृष्टि डाली उन पर और कार को गेट की ओर बढ़ा ले गया।
¶¶
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Additional information
Book Title | बून्द-बून्द में मां का नाम : Bund Bund Mein Maa Ka Naam by Sunil Prabhakar |
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Isbn No | |
No of Pages | 280 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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