बिना सूंड का हाथी
“चलो....श्रीकांत! तुम्हारी फांसी का समय हो गया है।”
वह पचास वर्षीय पतला-दुबला सांवला शख्स जब चबूतरे से उठा तो उसका समूचा जिस्म बुरी तरह कांप रहा था।
चेहरा पीला।
आंखों में मौत नाच रही थी।
अभी नहाया था वो। उसे जेल की नई वर्दी पहनाई गई थी, जिसकी जेब पर उसका नम्बर ‘चार सौ एक’ अंकित था।
अभी-अभी पण्डित जी उसे गीता का पाठ सुनाकर गए थे—“केवल शरीर मरता है। आत्मा अमर है। जिस प्रकार मनुष्य पुराना वस्त्र त्यागकर नया वस्त्र धारण करता है—उसी प्रकार आत्मा भी पुराना शरीर त्यागकर नया शरीर धारण करती है। यही जीवन-चक्र है। इससे मनुष्य को भयभीत नहीं होना चाहिए।”
पिछली पूरी रात श्रीकांत एक पल भी सो नहीं पाया था। वह टू-इन-वन पर अनूप जलोटा और लता मंगेशकर द्वारा गाये भजन सुनता रहा था।
परन्तु क्या ये सब बातें मौत के उस भय को लेशमात्र भी कम कर सकती थीं, जिसकी निरंतर करीब होती आहट वो स्पष्ट सुन रहा था?
सहसा श्रीकांत फूट पड़ा।
वह बिलखता हुआ बोला—“मेरे साथ अन्याय हो रहा है जेलर साहब! मैं इतनी कठोर सजा का हकदार नहीं था। अदालत ने मेरे साथ नाइंसाफी की है। मैं चींखता रहा—फरियाद करता रहा....लेकिन जज ने मेरी एक ना सुनी और मुझे फांसी पर लटकाने का हुक्म सुना दिया। पिछले आठ साल से मैं जेल का नर्क भुगत रहा हूं। क्या एक इंसान के लिए ये सजा कम है....जो आज मुझे फांसी पर भी चढ़ाया जा रहा है? मैं मरना नहीं चाहता जेलर साहब....मैं मरना नहीं चाहता....।”
“मरना कौन चाहता है श्रीकांत?” जेल की उस फांसी के कैदियों के लिए बनाई गई स्पेशल सेल में अभी-अभी आये जेलर शरद यादव ने धीर-गम्भीर स्वर में कहा—“लेकिन जो जैसा जुर्म करता है, कानून उसको वैसी ही सजा देता है। तुमने एक सोलह बरस की नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार किया और उसकी हत्या भी कर दी। तुम घटना स्थल से रंगे हाथों पकड़े गए। सारे सबूत तुम्हारे खिलाफ थे। एक चश्मदीद गवाह ने चींख-चींख कर तुम्हारे खिलाफ गवाही दी थी। अदालत को इससे ज्यादा और क्या चाहिए था? लिहाजा तुम्हें फांसी की सजा मिलनी थी—और वही मिली। अगर कानून तुम्हारे साथ रिआयत बरतता तो समाज में न जाने कितने श्रीकांत पैदा हो जाते। श्रद्धा चौहान जैसी न जाने कितनी मासूम लड़कियों की इज्जत और जिन्दगी खतरे में पड़ जाती।”
“मैं मानता हूं कि मैंने श्रद्धा चौहान नाम की उस लड़की के साथ बलात्कार किया था लेकिन मैंने जानबूझकर उसका कत्ल नहीं किया था—वो तो मेरे हाथों संयोग से हो गया था। मैं जिस बिल्डिंग में वाचमैन था, वो उसी बिल्डिंग के एक फ्लैट में रहती थी। बहुत सुन्दर थी वो। चढ़ती जवानी, अधखिली कली। मैं जब भी उसे देखता, मेरे अन्दर एक शैतान करवटें लेने लगता। फिर एक रोज, जब वो अपने फ्लैट में अकेली थी, मैं मौका पाकर उसके फ्लैट में घुस गया। फिर मैं जबरन उसके साथ मुंह काला करके हटा ही था कि किसी के कदमों की आहट सुनकर घबरा उठा। घबराहट में मैंने कसकर लड़की का मुंह भींच लिया ताकि वो चींखे ना, और दम घुटने से उसकी मौत हो गई। लेकिन फिर भी मैं बच न सका। आगंतुक ने मुझे रंगे हाथों पकड़ लिया जो कि संयोग से वहां पहुंचा था और....और मुझे फांसी की सजा सुना दी गई।”
“तो इतना जघन्य अपराध करके भी तुम समझते हो कि तुम्हें फांसी नहीं होनी चाहिए थी?” जेलर शरद यादव के लहजे में व्यंग था—“जानते हो, आठ साल पुरानी उस घटना को लेकर आज भी लोग तुम्हारे नाम पर थूकते हैं। इस जेल के बाहर समाज का एक बड़ा वर्ग बड़ी बेसब्री से तुम्हारे फांसी चढ़ने का इंतजार कर रहा है। हालांकि कुछ लोगों ने तुम्हारी फांसी का विरोध भी किया है, क्रूरता बताया है इसे—परन्तु वे वो लोग हैं जो अपनी राजनीति की रोटियां सेंकना चाहते हैं। जबकि सच तो ये है कि सब तुमसे नफ़रत करते हैं। तुम्हारी तरफ से राज्यपाल और राष्ट्रपति महोदय को भी अपील की गई। मगर उन्होंने तुम्हारी अपील को ठुकरा दिया और तुम्हारा फांसी चढ़ना तय हो गया। तुमने एक हंसती-खेलती मासूम बाला को असमय काल के मुंह में पहुंचा दिया है श्रीकांत। वो लड़की जो हर साल अपनी क्लास में फर्स्ट आती थी—स्टेट की बेस्ट एथलीट थी। जिसे लेकर उसके माँ-बाप ने न जाने क्या-क्या सपने संजोये होंगे। वो कल को पी.टी. ऊषा और सानिया मिर्जा की तरह देश का गौरव भी बन सकती थी—और तुमने उस कली को खिलने से पहले ही मसल डाला? तुमने वो काम किया जो शायद कोई दरिन्दा भी करने से पहले कांप उठता। फिर भी तुम कहते हो कि तुम्हारे साथ अन्याय हुआ है—तुम्हें फांसी की सजा नहीं दी जानी चाहिए थी?”
श्रीकांत का सिर झुक गया।
“सर।” तभी एक जेल कर्मचारी वहां हाजिर हुआ—“बाहर कुछ मीडिया वाले आए हैं। वो श्रीकांत की फांसी का लाइव टेलीकास्ट करना चाहते हैं।”
“ये मीडिया वाले भी....उफ्....।” शरद यादव का चेहरा कठोर हुआ। फिर वो एक गहरी सांस लेकर बोला—“उनसे कहो कि जेल के बाहर ही रहें। मुझे इस फांसी को तमाशा नहीं बनाना है। यदि उन्हें करना हो तो श्रीकांत की शवयात्रा को लाइव टेलीकास्ट कर लेंगे। वैसे भी इन न्यूज चैनलों ने पिछले कई रोज से इस फांसी को लेकर कम हो-हल्ला नहीं मचा रखा है।”
जेल कर्मचारी उल्टे पांव वापिस लौट गया।
“जेलर साहब!” थके-थके स्वर में श्रीकांत बोला—“जब आपने मुझसे मेरी आखिरी ख्वाहिश पूछी थी, तो मैंने कहा था कि मैं एक बार अपने बच्चों से मिलना चाहता हूं। क्या उनका कुछ पता चला?”
“मुझे अफसोस है श्रीकांत!” जेलर बोला—“हमने तुम्हारी आखिरी ख्वाहिश का सम्मान करते हुए तुम्हारे बच्चों को खोजने की बहुत कोशिश की, हर संभावित जगह खंगाली। लेकिन वो हमें कहीं नहीं मिले। इस दुनिया की भीड़ में न जाने कहाँ खो चुके हैं वे! इसलिए हम तुम्हारी आखिरी ख्वाहिश पूरी नहीं कर सकेंगे।”
श्रीकांत आह-सी भरकर रह गया।
फिर एक कर्मचारी ने उसके हाथ पीछे करके हथकड़ियां पहना दी थीं....और श्रीकांत अपने अन्तिम सफर पर चल पड़ा।
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“नासिक जेल के बाहर से मैं स्टार-न्यूज रिपोर्टर प्रीति गांगुली आप दर्शकों से मुखातिब हूँ....।” हाथ में माइक थामे वो खूबसूरत-सी न्यूज रिपोर्टर टी.वी. पर कह रही थी—“अब से कुछ देर पहले यानी आज सुबह चार बज कर पच्चीस मिनट पर मासूम लड़की श्रद्धा चौहान के हत्यारे श्रीकांत को फांसी दे दी गई....अभी-अभी श्रीकांत के शव को जेल से बाहर लाया गया है....मेरे पीछे पार्श्व में आप वो मुर्दाघर की बन्द गाड़ी देख रहे हैं....उसमें श्रीकांत का शव पोस्टमार्टम के लिए भेजा जा रहा है....पिछले कई रोज से पूरे हिन्दुस्तान में इस फांसी की ही चर्चा थी....अलग-अलग वर्ग के लोगों की इस फांसी को लेकर अलग-अलग राय थी। कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने फांसी की सजा को एक क्रूरतम सजा बताते हुए राष्ट्रपति महोदय से माफी की अपील की थी, लेकिन....।”
“न....नहीं....।” उस युवती ने चींखते हुए मेज पर रखी व्हिस्की की बोतल सामने चल रहे उन्तीस इंची टी.वी. पर खींच मारी—“तू नहीं मर सकता बापू। वो....वो तेरी जान नहीं ले सकते।” फिर वो पागलों की तरह अपने बाल नोचने लगी। मेज उलट दी। बगल में रखा टेलीफोन उठाकर फर्श पर पटक दिया।
उधर....।
बोतल टी.वी. की स्क्रीन से टकराई। छनाक-की आवाज के साथ स्क्रीन में बड़ा-सा मौखला और उसके इर्द-गिर्द मकड़ी का जाला-सा बन गया। टी.वी. से धुआं निकला। दृश्य गायब।
जबकि उस युवती की पागलों जैसी हरकतें जारी थीं।
उसने पूरे कमरे का सामान तोड़ डाला था।
अन्त में वो सोफे पर गिरकर मीलों लम्बी दौड़ लगाकर आई धावक की तरह हांफने लगी।
फिर सहसा उसका चेहरा कठोर होता चला गया....पत्थर जैसा सख्त एवं खुरदुरा। आंखें उस ज्वालामुखी का दहाना प्रतीत होने लगीं जिससे किसी भी क्षण लावा फूट पड़ने की संभावना हो।
दूसरे क्षण वह चोट खाई जहरीली नागिन की तरह फुंफकार उठी—“तेरी मौत के साथ हम तो अनाथ हो गए बापू। हमारी बदकिस्मती ये है कि हम लोगों के सामने आकर तेरा अंतिम संस्कार भी नहीं कर सकते....तेरी लाश लावारिसों की तरह सरकार को ही फूंकनी पड़ेगा। लेकिन आज मैं तेरी आत्मा को वचन देती हूं कि जिसने तुझे इस अंजाम तक पहुंचाया है....तुझे गिरफ्तार करवाया....तेरे खिलाफ अदालत में खड़े होकर गवाही दी—मैं उसे छोड़ूंगी नहीं....उसका वंश नाश कर दूंगी। वैसे तेरी बेटी इस मिशन पर पहले से लग चुकी है....इसलिए तेरी क्रिया करने मैं लोगों के सामने नहीं आ सकती....भेद खुल जायेगा बापू....सब चौपट हो जाएगा....।”
और फिर वह पागलपन की अवस्था में न जाने क्या-क्या बड़बड़ाती चली गई।
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