भाषण नहीं राशन दो
(अमरकान्त कृष्णदेव सीरीज)
राकेश पाठक
“अम्मा भूख लगी है—रोटी दो... मां...।”
रोटी की मांग करने वाले बच्चे के वस्त्र विहीन जिस्म की तुलना किसी कंकाल से ही हो सकती थी—वो कंकाल सरीखा ही तो था।
गोश्त व खून नदारद था।
हड्डियां थीं और हड्डियों के ढांचे पर काली, मैली-कुचैली और झुर्रियोंदार खाल मानो किसी अनाड़ी कारीगर ने बेतरतीबी के साथ मढ़ दिया था।
“रोटी नहीं है अभी...।” बच्चे की भूखी व कमजोर मां सूखे व पपड़ीदार होठों पर जिव्हा फेरते हुए बोली—“थोड़ी देर पहले ही तो चावल का मांड पिलाया था नासपीटे।”
“कल शाम को कुछ भी खाने को नहीं मिला था अम्मा—आज सुबह आधी कटोरी मांड दिया था—अब शाम हो रही है—बड़े जोरों की भूख लगी है—अगर खाने को कुछ नहीं मिला तो भूखा मर जाऊंगा।”
“फिर मर जा ना नाश गए—मेरी छाती पर मूंग क्यों दल रहा है तू।” मानो कोई ज्वालामुखी ही फटा था, मां की आंखों से आंसुओं की गंगा-यमुना बह निकली—वो बच्चे की पीठ पर दो हाथ मारते हुए भर्राए गले से चीखी—“जब देखो रोटी-रोटी, भूख, हाय मर गया—तुझे रोटी के सिवाय कुछ सूझता ही नहीं है—इलाके में सूखा पड़ा है—अनाज का एक दाना भी पैदा नहीं हुआ है—इन्द्र भगवान ने बारिश की एक भी बूंद ना डालकर ना जाने किस जन्म का बैर निकाला है—सूखे की वजह से किसी ने भी हमें काम नहीं दिया। मजदूरी पर जाते तो थोड़े पैसे और अनाज कमाकर ही लौटते—घर में एक भी पाई नहीं है कल सुबह से मैं और तेरा बापू पानी पीकर ही पेट की आग बुझाने की कोशिश कर रहे हैं—कम्बख्त—पड़ोसन से मुट्ठी भर चावल मांग कर लाई थी—चावल के सारे दाने तेरे और तेरे भाई बहनों के पेट में जाकर हजम हो गए—अब कहां से लाऊं रोटी? सड़कों पर जाकर भीख मांगूं या कोठे पर बैठकर पेशा करूं मैं? भूख लगी है तो जाकर कहीं डूब मर—भूख की पीड़ा से बच जाएगा।”
“सीता, ये क्या कर रही है तू।” लम्बे, मरियल और दाढ़ी वाले मर्द ने सीता के 'चंगुल' से बच्चे को निकाला और उसे सीने से लगाते हुए बोला—“हमारा बच्चा तो वैसे ही भूख से बिलबिला रहा है—दिन भर में कई मर्तबा दूध पीने वाले और कई रोटियां खाने वाले का भला आधी रोटी से क्या होगा री? भूख से बेहाल बच्चे को पीटकर पाप क्यों कमा रही है? अगर यही हाल रहा तो ये दो-चार दिन में वैसे ही मर।”
“ना—नहीं।” सीता ने बच्चे को झपटने वाले अंदाज में छीनकर सीने से कस लिया और जार-जार रोते हुए बोली—“भगवान के लिए ऐसी अशुभ बात मुंह से मत निकालिए जी—ये मेरे जिगर का टुकड़ा है—नौ महीने तक इसे अपनी कोख में रखा था—अपने खून से इसकी जिन्दगी को सींचा है—इसके बदले मैं मर जाऊंगी—मगर कहीं से खाने-पीने का जुगाड़ नहीं हो पाया, तो मैं दूध के बदले अपना खून पिला दूंगी—रोटियां नहीं मिली तो अपने बच्चों को अपना जिस्म नोंच-नोंच कर खिला दूंगी जी—भूख और तंगहाली ने मेरा भेजा फिरा दिया था—तभी मेरा हाथ उठ गया और मैं कुतिया की तरह भौंकती चली गई—भगवान मेरे हाथों को तोड़ डाले—मेरी काली जुबान में कीड़े डाल दे।”
“गलती तेरी नहीं है सीता।” वो आंखों में भर आए आंसुओं को पौंछते हुए भर्राए कण्ठ से बोला—“ऐसे हालात में कोई भी पागल हो जाए—पिछले साल से बारिश नहीं हुई है—खेत, खलिहान सूख गए हैं—जमीन में दरारें पड़ने लगी हैं—अनाज नहीं हो रहा है—किसान और मजदूर परेशान हैं—घर-घर में भूख, तंगहाली है—बस्ती के तमाम लोग परेशान हैं—कल लीला चाची ने भूख से तंग होकर बच्चों के साथ कुएं में कूदकर आत्महत्या कर ली—बाकी लोगों को भी ऐसा ही करना होगा—भूख और प्यास से तड़प-तड़प कर मरने से बेहतर है कि इंसान आत्महत्या कर ले—दिन भर लोगों के पैरों में नाक रगड़ी मैंने लेकिन किसी ने भी काम नहीं दिया—रामू चोरी करने गया था, एक बोरी अनाज की उठाकर भागा था लेकिन भूख-प्यास ने पहले ही दम निकाल दिया था—सड़क पर गिरा और मर गया—पुलिस अनाज की बोरी उठा ले गई—अगर कल भी काम नहीं मिला तो मैं रात को चोरी करने जाऊंगा—नतीजा कुछ भी निकले—मैं अपने बच्चों को भूख से बिलबिलाता नहीं देख सकता हूं।”
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राशन की दुकान पर भारी भीड़ जमा थी।
राशन कार्ड और खाली झोले लिए हुए मर्द और औरतें चिल्ला रहे थे—
“राशन दो—हमें गेहूं या चावल दो।”
“अरे ये लाला किसी को भी राशन नहीं देने वाला है।” एक विक्षिप्त-सा दिखाई पड़ने वाला अधेड़ चिल्लाकर बोला—“इलाके में अकाल पड़ा है—इस साल अनाज नहीं हुआ है—इसलिए ब्लैक में बिक रहा है—लाला डिपो से माल उठाकर गोदाम में जमा कर रहा है—बाजार में महंगे दामों पर बेचकर 'हुंडी' बनाएगा—हम गरीब कल के मरते आज मर जाएं, लाला की बला से—दुकान के भीतर गेहूं और चावलों की बोरियां भरी पड़ी हैं लेकिन हमारे वास्ते नहीं हैं—ब्लैक में बेचने के वास्ते हैं—वो आएगा और बोल देगा कि राशन का माल आया ही नहीं। लो आ गई कार—साथ में पुलिस की जीप भी आई है—नौकर ने फोन कर दिया होगा ना कि यहां पर गरीबों और भूखों की भीड़ मरने-मारने पर उतारू है—दीया बत्ती करो, लाला की आरती उतारो—शायद उसे हम भूखों-नंगों पर तरस आ जाए—कहां से आएगा तरस—ऊपर वाले को नहीं आ रहा है, जो हमें पेट देकर भूख का जुगाड़ करना ही भूल गया है।”
नई इम्पाला कार का दरवाजा शोफर ने खोला—भैंसे जैसा मोटा ताजा 'लाला' बाहर निकला, जिसका मटके जैसा पेट था।
“लालाजी—लालाजी।” लाला बुरा-सा मुंह बनाकर घृणा भरे लहजे में बोला—“होली पर नहाए होंगे—बदबू आ रही है कपड़ों से—राशन नहीं है—अकाल पड़ा है—खेतों में कुछ उगाही नहीं है तो गवर्नमेन्ट राशन कहां से भेजेगी।”
“लोगों को बेवकूफ मत बनाओ लाला।” विक्षिप्त नजर आने वाला अधेड़ बढ़ी हुई दाढ़ी खुजलाते हुए बोला—“सूखा हमारे इलाके में ही है, पूरे देश में नहीं—दूसरे इलाकों में बारिश भी हुई और फसल भी—सरकार के पास पूरा स्टॉक है—वो हर डिपो पर राशन भेजती है—तुम्हारे जयनगर रोड वाले गोदाम पर इतना अनाज भरा पड़ा है कि फुलत सिटी के तमाम लोग दस साल तक भी खाएं तो खत्म नहीं होगा—तुम्हारी दुकान में भी अनाज की कई बोरियां रखी हैं।“
लाला के चेहरे का रंग उड़ गया—फिर उसने काले व भूरे दरोगा की तरफ देखा।
दरोगा ने इशारा समझकर सिर को जुम्बिश दी और साथ आए कॉन्स्टेबलों को धीमे से कुछ कहा। फौरन ही कॉन्स्टेबलों ने उस दाढ़ी वाले को पकड़ लिया और उसे मारने-पीटने लगे।
“हड्डियां तोड़ डालो हरामी की।” दरोगा आंखों पर लगा काला चश्मा उतारते हुए चीखा—“सीधे-सीधे लालाजी पर झूठा इल्जाम लगाकर लोगों को भड़काने की कोशिश करता है—कुछ दिन लॉकअप में सड़ेगा तो अक्ल ठिकाने लग जाएगी—पागल की।”
“मारो—पागल को मारो।” वो पिटते हुए चीखा—“सच बोलने वाले को पागल ही तो कहा जाता है आज के टाइम में—लाला ने मोटी रकम दी होगी—मुझे मारकर लाला के एहसान का बदला चुकाओ वर्दी वालों—कानून के मुहाफिजों का है यही तो काम रह गया है—आह।”
सिर पर तेज डण्डा लगने की वजह से वो बेहोश हो गया—कॉन्स्टेबलों ने उसे उठाकर जीप में फेंक दिया।
“हजूर—माई बाप।” एक बुढ़िया लाला के पैरों में गिर पड़ी और फरियाद करने लगी—“बच्चे भूख से तड़प रहे हैं—पिछले महीने भी राशन नहीं दिया था—इस बार तो दे ही दीजिए।”
“राशन नहीं है, परे हट बुढ़िया।”
“ऐ मोटे लाला, मेरी मां को दुत्कार मत।” एक पन्द्रह वर्षीय लड़का बुढ़िया को सहारा देते हुए बोला—“तेरे से खैरात मांगने नहीं आए हैं हम—राशन कार्ड सरकारी है और राशन भी सरकार देती है—तुम सिर्फ सरकार के नौकर हो—हम राशन लेंगे तो पैसा भी देंगे।”
“बड़ा आया पैसे देने वाला।” लाला लड़के को फाड़ खाने वाली नजरों से घूरते हुए बोला—“अगर पैसे ही हैं तो यहां क्यों ऐसी-की-तैसी कराने आया है—बाजार जाकर राशन खरीदो।”
“ये-ये बच्चा है लालाजी—इसे बड़ों से बात करने की तमीज नहीं है।” बुढ़िया हाथ जोड़े हुए बोली—“बाजार में तो गेहूं और चावल के दाम राशन के दाम से दस गुना हैं—पायजेब बेचकर थोड़े से पैसों का ही बन्दोबस्त हुआ है।”
“ये ऐसे राशन नहीं देगा भाईयों,” एक युवक चिल्लाकर बोला—“ये सारा राशन ब्लैक में बेच देगा लेकिन हम ऐसा नहीं होने देंगे—दुकान में माल है—चलो उठा लो।”
“हां, चलो—वर्ना हमारे बीवी-बच्चे भूखे मर जाएंगे।”
भीड़ लाला की दुकान की तरफ बढ़ी।
“ये—ये मेरी दुकान को लूट लेंगे दरोगा जी।” लाला हड़बड़ाकर चीखा—“दुकान को आग लगा देंगे—ये सब गुंडे और बदमाश हैं—इन्हें रोको दरोगा जी।”
“लाठीचार्ज ऽ ऽ ऽ।” चीखा दरोगा।
कॉन्स्टेबलों ने लाठियां सम्भाली और भीड़ पर अन्धाधुन्ध बरसाने लगे—वो औरतों और बच्चों को भी नहीं बख्श रहे थे।
चीखो-पुकार होने लगी।
भगदड़ मच गई।
जैसे चीटियों के झुण्ड पर तारपीन का तेल डालते ही वो तिड़ी-भिड़ी होने लगती हैं, वैसे ही राशन की तलबगार भीड़ जिधर भी रास्ता दिखा, उधर ही भागने लगी।
लेकिन फिर बस्ती के कुछ मर्द लाठियां और ईंट-पत्थर लेकर आ गये और पुलिस वालों का मुकाबला करने लगे।
दरोगा ने जब देखा कि गंगा उल्टी बहने लगी है तो उसने होलेस्टर से रिवॉल्वर निकाल ली और एक युवक के सीने पर गोली चला दी।
“आह ऽ ऽ ऽ।” वो युवक दोनों हाथों से सीने को भींचे हुए जमीन पर गिरा और तड़पने लगा।
“गोलियां चलाओ।” दरोगा दूसरे लोगों पर फायरिंग करते हुए चीखा—“सालों ने पुलिस वालों पर हमला किया है—एक भी जिन्दा नहीं बचना चाहिए।”
कॉन्स्टेबलों ने भी राइफल सम्भालीं।
धांय-धांय ऽ ऽ ऽ।
“आह-आह ऽ ऽ ऽ।”
गोलियां खाकर भूखे गरीब गिरने लगे।
लोग-बाग ईंट-पत्थर व लाठियां फेंक कर जान बचाने की गरज से इधर-उधर भागने लगे।
¶¶
“ज- जगन सेठ।”
गैण्डे जैसे डील-डौल वाले तथा बदसूरत जगन सेठ ने आगन्तुक युवती को देखा तो उसकी आंखों में हवस के कीड़े गिजगिजाने लगे।
सत्रह-अट्ठारह वर्षीय युवती कुछ दिन पूर्व काफी खूबसूरत होगी लेकिन भूख की बिजली ने उसके रूप यौवन के आशियाने को उजाड़-सा दिया था—उसका गोरा-चिट्टा रंग फीका पड़ने लगा था—सांचे में ढला हुस्नो-शबाब मुरझाया फूल बना हुआ था—बादाम-सी आंखों की चमक विलुप्त थी और नीचे स्याह धब्बे से उभर आए थे—कश्मीरी सेब जैसे कपोल, सूखे संतरों जैसे हो गए थे—गुलाब की पंखुड़ी से होंठ सूखी हुई मुनक्का जैसे ही हो चले थे।
उसके कपड़े फटे हुए थे।
जगन सेठ ने उसके फटे कपड़ों से झांकते सीने के उभारों पर गिद्ध दृष्टि गड़ा दी और भद्दे अंदाज में होठों पर 'सर्प-जिव्हा' फिराते हुए बोला—“दूर क्यों खड़ी रह गई तू चमकी—? ओह, समझे हम—उस रोज हमने तुझे एक रात के लिए अपने पास आने को कहा था तो तू हमारे मुंह पर थूक कर चली गई थी—कोई बात नहीं—हम तेरे से नाराज नहीं हैं—बेझिझक होकर अपनी परेशानी बता—हम तेरी हर तरह से मदद करेंगे।”
“ज-ग-न सेठ।” उसके होंठ फड़फड़ाए।
“हां, बोल—चमकी।”
“वो—घर में अनाज का एक दाना भी नहीं है—फूटी कौड़ी भी नहीं है—मेरे भाई-बहन भूख से तड़प रहे हैं—मां बीमार है और दवा नहीं है—सुबह तक कोई भी नहीं बचेगा।”
उठा जगन सेठ—चमकी के करीब पहुंचा—चमकी की परिक्रमा करके उसके जिस्म की नाप-तोल की मानो कोई कसाई देख रहा था कि शिकार में कितना गोश्त है?
“हमारे होते कोई नहीं मरेगा।” वो चमकी की पीठ पर हाथ फिराते हुए बोला—“तेरी मां के इलाज को फुलत सिटी का सबसे बड़ा डॉक्टर भेजेंगे हम—लाला दुलीचंद को फोन कर देंगे तो वो तेरे घर साल भर का राशन भेज देंगे लेकिन बदले में हमें क्या देगी तू।”
“मैं? मेरे पास तो कुछ भी नहीं है सेठ।”
“कितनी नादान है तू।” जगन सेठ ने चमकी को पकड़कर अपनी तरफ घुमाते और उसके सीने के उभारों को घूरते हुए बोला—“हुस्नो-शबाब की दौलत है तेरे पास—बस, एक बार हमें अपने हुस्नो-शबाब के समन्दर में डूब जाने दे—फिर तेरे घर डॉक्टर और राशन पहुंच जाएगा—आगे भी कोई तकलीफ नहीं होने देंगे तेरे को—क्या बोलती है—?”
“जब यहां आई हूं तो।”
“ओह, समझ गए हम।” जगन सेठ दोनों हाथों से उसके वस्त्रों को नोंचते हुए बोला—“अब आई ना तू लाइन पर—चल बिस्तर पर चलते हैं।”
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