बारूद का खिलाड़ी
सुनील प्रभाकर
(जेम्स विलियम्स सीरीज)
धर्मवीर गादी की आंखें खुलीं तो आंखें सिकुड़ी हुई थीं। इसका कारण वह आहट की आवाज थी।
ये स्वाभाविक था। उसकी आंखें हल्की-सी आहट पर खुली थीं। उसे अच्छी तरह याद था कि जब वह सोया था तो वाल क्लॉक रात के साढ़े बारह बजने का ऐलान कर चुकी थी और एक नींद तो वह सोया ही था।
इसलिये कम-से-कम दो-ढाई बजे का वक्त था—और इस वक्त आहट...?
इसका अर्थ उसके जैसा अण्डरवर्ल्ड का शातिर बखूबी लगा सकता था—यही वजह थी कि वह न केवल चौंका था वरन् वह खिड़की की ओर घूम भी गया था।
स्पष्ट था कि आहट खिड़की पर से उभरी थी।
साथ ही उसका हाथ तकिये के नीचे रखे माउजर की ओर रेंगा। रात को सोने से पूर्व वह तकिये के नीचे माउजर रखना न भूलता था।
किन्तु खिड़की पर दृष्टि पड़ते ही उसकी आंखों में हैरानी के भाव उभर आये।
खिड़की की चौखट पर एक साया मौजूद था—जिसके हाथ में लम्बी नाल का रिवॉल्वर था जिसका रुख उसके सीने की ओर था।
"मोंटो, तू...!" धर्मवीर गादी का हाथ ठिठका था—"तू यहां...! अधिक चढ़ गई क्या?"
"ऐसी बात नहीं है उस्ताद...! मैंने अभी चखी भी नहीं।"
"क्या...?" धर्मवीर गादी ने पलकें झपकायीं थीं—"फिर तू यहां क्यों आ गया? वह भी इस पोज में?"
"मेरा इस पोज में यहां आना जरूरी था बाप...!" मोंटो का भिंचा स्वर उभरा —"कारण यह कि मेरा निशाना सच्चा है। कभी चूकता नहीं—नींद में भी अगर मैं मशगूल रहते हुए गोली चला दूं तो वह अपना लक्ष्य ढूंढ लिया करता है।"
"तू कहना क्या चाहता है?"
"यही कि मेरा लक्ष्य मेरे सामने हैं—और इसी लक्ष्य को भेदने के लिये मुझे यहां भेजा गया है बाप...!"
"लक्ष्य...! कहां है लक्ष्य?"
"ये रहा...!" उसने धर्मवीर गादी के सीने की ओर इशारा किया था—"इसी लक्ष्य को भेदना है मुझे...!"
"अबे तू होश में तो है...?" गुर्रा पड़ा था धर्मवीर गादी—"तू...तू...मेरा पिद्दी का शोरबा...! मेरे हुक्म का गुलाम और तू मुझे ही शूट करेगा। तू...तू होश में तो है?"
"जब अपना बॉस ही अपने रास्ते का कांटा बन जाये तो उसे समाप्त कर देना ही उचित होता है और यही करने मैं आया हूं।"
"क्या बकता है मोंटो...? तेरा दिमाग तो ठीक है? ये क्या अनर्गल प्रलाप...!"
"ये अनर्गल प्रलाप नहीं वरन् सच्चाई है बाप...! अलविदा...! अब हमारी मुलाकात कभी नहीं होगी। कारण यह कि आप इस दुनिया से कूच कर रहे हैं, जबकि मेरा अभी ऐसा कोई इरादा नहीं।"
"मोंटो होश में आ...! तूने मुझे मार दिया तो मैं...तो चला जाऊंगा किन्तु इन्दर तेरी खाल खींच लेगा। वह...!"
"क्या खूब कही! इन्दर उस्ताद की याद दिलाकर अच्छा ही किया। तो फिर सुनो उस्ताद! इन्दर के कहने पर ही मैं तुम्हें शूट कर रहा हूं। बस अब विदा...!"
प्रत्युत्तर में धर्मवीर गादी का हाथ तेजी से तकिये की ओर रेंगा।
कदाचित् वह खतरा भांप चुका था।
"स्टॉप बॉस...! तकिये की ओर बढ़ता हाथ रोककर गोद में रख लो...!"
किन्तु धर्मवीर गादी ने अपना हाथ रोका नहीं। कारण यह कि उसका हाथ तकिये के इतना निकट पहुंच चुका था कि उसे छूने-सा लगा था।
एक झपाके से ही उसका माउजर हाथ में आ जाना था।
किन्तु मोंटो उससे कहीं अधिक फुर्तीला साबित हुआ।
"पिट्ट...! पिट्ट...!"
उसका रिवाल्वर गूंजा।
धर्मवीर गादी की आंखें वेदना व आश्चर्य से कोरों तक फैलीं—साथ ही वह गोलियों के जोर से हवा में उठा और फिर नीचे गिर गया।
गिरते ही हाथ-पांव निस्पंद!
सीने में ठीक दिल वाले स्थान पर समाई गोलियां अपना काम कर चुकी थीं।
उसकी लाश यथास्थान पड़ी छत को घूर रही थी।
छाती से खून की धार निरन्तर फूट रही थी।
मोंटो अपने स्थान से हिला और धर्मवीर गादी की लाश के निकट आया। उसके हाथ में थमे रिवॉल्वर की लम्बी नाल अभी भी सिगरेट पी रही थी।
उसने धर्मवीर गादी की आंखों में झांका।
उसकी आंखें अभी भी फैली हुई थीं।
आंखों में हैरानी के गहन भाव थे। यूं जैसे मरते समय उसे यकीन ही न आ रहा हो कि वह मर रहा है।
मोंटो चन्द पलों तक उसे देखता रहा, फिर उसने सिर पर लगी छोटी-सी गोल टोपी उतारकर हवा में लहरायी।
यूं जैसे वह धर्मवीर गादी की आत्मशान्ति की प्रार्थना कर रहा हो।
फिर वह घूमा।
खिड़की की ओर।
उसने रिवॉल्वर जेब में डाला और दो बार हौले-से ताली बजायी।
फौरन चार आदमी खिड़की के निकट प्रकट हुए।
"यस...!"
"काम हो गया।"
"स...सच...? गादी साहब नहीं रहे?"
"यस! सबूत सामने है। उस्ताद इज नो मोर...!"
"ओह...!"
"इसे उठाओ और फौरन ले चलो। कोई यहां आ गया तो गजब हो जायेगा। सुबह हमें स्वयं ही इसकी तलाश में निकलना है।"
"ओह गॉड...!"
और फिर!
वे चारों जुट गए।
उन्होंने धर्मवीर गादी के सीने के सुराख में ढेर सारी रूई ठूंसी और फिर बह रहा खून साफ करने लगे। मोंटो ने सहमति में गर्दन हिलाई और घूम गया खिड़की की ओर...!
उसके साथी लाश उठाने लगे। सब कुछ तेजी से योजनाबद्ध तरीके से हो रहा था।
¶¶
"सुनते हो जी! अपना मुन्ना अब बड़ा गया।"
"मुन्ना...!" हवलदार भुलक्कड़ सिंह चौका था—"कौन-सा मुन्ना भागवान? मुन्ना तो मुन्ना ही रहता है—कभी बड़ा नहीं होता और जो बड़ा हो जाये वह मुन्ना नहीं होता।"
"तुम्हारा दिमाग खराब है। मैं राजीव की बात कर रही हूं।"
"रा...राजीव...! कौन राजीव?"
"अपना बेटा राजीव...!" रजिया झल्लाकर बोली थी—"अपने बेटे को भी भूल गए?"
"ओह...! अपने राजीव की बात कर रही हो? अब मुझे याद आया—आज से बीस साल पहले मैंने व तुमने एक बेटे को जन्म दिया था। वो पुरानी बात हो गई न...इसलिये...!"
"हमने नहीं केवल मैंने—तुमसे सिर पर पुलिस की टोपी तो सम्भलती नहीं, पेट में बच्चा कहां से सम्भलेगा?"
"ओह...ओह...!" हवलदार भुलक्कड़ सिंह ने समझदारों की तरह गर्दन हिलायी थी—"क्या हो गया अपने राजीव को—कहां चला गया?"
"चला नहीं गया—वह बड़ा हो गया। अब हमें उसकी शादी की फिक्र करनी चाहिये।"
"शादी...! यानि कि खानदानी झंझट?"
"क्या?"
"हां भागवान...! शादी की फिक्र क्या करनी—शादी तो बेफिकी में ही होती है। फिक्र का दौर तो शादी के बाद शुरू होता है।"
"तुम...तुम...!"
"रहा सवाल मेरे बेटे का, तो मैं उसे इस खानदानी झंझट में नहीं फंसाऊंगा।"
"खानदानी झंझट...?"
"शादी!"
"ओह...!"
"मेरे बाप के बाप इस झंझट में फंसे अर्थात् शादी कर डाली और उम्र भर परेशान रहे—उम्र भर दौड़ते रहे—दिन-रात हल्कान होते रहे किन्तु कुछ हासिल नहीं कर पाये। ये मिलेगा—वो मिलेगा—करते-करते परलोक सिधार गए। किन्तु जाते-जाते वे अपने बच्चों को भी वही शादी रूपी झंझट सौंप गए। वे भी उम्र भर कुढ़ते-खपते रहे—और जाते-जाते विरासत के रूप में उन्हें भी शादी के झंझट में फंसा गए। पुश्त-दर-पुश्त आनुवंशिक रोग की तरह ये झंझट हमारे गले में पड़ती रही और हम स्वयं इस चक्कर में पड़ गए।"
"आपका...आपका दिमाग खराब है?"
"मैं ठीक कह रहा हूं गुझिया बेगम...! अब तुम क्या चाहती हो कि हम भी अपने बेटे को इसी झंझट में फंसा दें?"
"गुझिया नहीं रजिया...!" रजिया बुरा-सा मुंह बनाकर बोली थी।
"वही...!" भुलक्कड़ सिंह अपनी ही झोंक में बोला था—"जरा सोच...! उम्र भर हम दौड़ते रहे—ये होगा—वो होगा—ये मिलेगा—वो मिलेगा। मिला क्या खाक...! लोग कहते हैं कि आशा ही जीवन है—किन्तु यही आशा की बच्ची उम्र भर दौड़ाती है। एक आशा पूरी नहीं होती कि कई आशायें जन्म ले लेती हैं—और इन्सान संसार की मरीचिका में भटकता-दौड़ता रहता है—किन्तु हासिल कुछ नहीं कर पाता। यही वजह है कि लगभग हर व्यक्ति का बुढ़ापा...!"
"और कुछ हो या न हो—किन्तु आप जरूर सठिया गए हैं। हाय राम! न जाने कैसी-कैसी बातें कर रहे हैं?"
"ये ऐसी-वैसी बातें नहीं हैं। हम शादी के लिये राजीव पर जोर नहीं देंगे। हमने शादी की—उम्र भर परेशान रहे—उसी प्रकार हम अपने बच्चे को परेशान नहीं देखेंगे।"
"क्या बकते हो?" रजिया चिल्लाई थी—"जमाना खराब है—अगर बेटे के साथ कोई ऊंच-नीच हो गई तो?"
"बेटों के साथ कोई ऊंच-नीच नहीं हुआ करती। ठीक उसी प्रकार जैसे मैंने तुम्हें चाहा था—किन्तु जब तुम्हारे मां-बाप को पता चला तो उन्होंने हल्ला मचाना शुरू कर दिया। किन्तु जब न तुम मानी और न मैं—और हमारा राजीव तुम्हारे पेट में आ गया तो उन्हें हमारी शादी करनी पड़ी। परिणाम स्वरूप तुम जाकर मन्दिर में नमाज पढ़ आती हो और मैं मस्जिद में जाकर पूजा...!"
"स्टॉप...! मैं मस्जिद में नमाज और तुम मन्दिर में पूजा।"
"ओह...! नहीं...!"
"अब अपनी बकवास बन्द करो—भूल गए कि आज रात ड्यूटी है?"
"ओह...ये तो मैं भूल ही गया था। लाओ, मेरी टोपी लाओ। मैं चलता हूं। ये पुलिस की नौकरी भी अजीब चीज है—न दिन देखती है न रात—बस ड्यूटी...!"
"आप जैसों की यही दशा होती है। वर्दी मिले बीस-पच्चीस साल हो गए—किन्तु अभी तक कोई भी ऐसा कारनाम अंजाम नहीं दिया—जिससे कि तुम्हें प्रमोशन मिल सके—कांस्टेबल भरती हुए थे और किसी प्रकार हवलदार बन गए। इससे आगे न तो सरकने का इरादा है न ही सरकोगे—क्योंकि अब आगे खिसकने की उम्र न रही—क्योंकि जब अब तक प्रमोशन के लायक कोई काम नहीं किया तो अब भी नहीं करोगे। अब तो बुढ़ापा है—अब तो केवल रो सकते हो कि उम्र भर दौड़ते रहने से कुछ भी हासिल नहीं होता।"
"मुझे गुस्सा मत दिलाओ भागवान...! मैंने कई काम बहादुरी के किये किन्तु करके उन्हें भूल गया—इसी से मुझे प्रमोशन नहीं मिला। मेरा नाम ऊपर गया भी तो लोग नाम देखकर बिदक गए...और...!"
"खैर छोड़िये...और जाइये। हम मां-बेटे अब गरीबी में ही जीवन बिताने के अभ्यस्त हो चुके हैं। इसलिये...!"
रजिया झल्लाई-सी घूम गई।
भुलक्कड़ सिंह बाहर की ओर चल पड़ा।
उसकी नाइट ड्यूटी थी, इसलिये उसके रुकने का प्रश्न ही नहीं उठता था।
¶¶
मारूति वैन की रफ्तार किसी भी कीमत पर सौ किलोमीटर प्रति घण्टा से कम नहीं थी।
वह ठीक बन्दूक से छूटी गोली की तरह अपने लक्ष्य की ओर झपट रही थी।
लक्ष्य निकट आया।
वह एक सन्नाटे में डूबा चौराहा था।
वैन चौराहे के निकट ठिठकी।
पल भर के लिये।
उसका एक पिछला दरवाजा खुला और चन्द हाथों ने कोई चीज धकेलकर नीचे गिराई।
वह एक मानवीय शरीर था।
तदुपरान्त!
वैन के दरवाजे जिस प्रकार खुले थे, उसी प्रकार बन्द हो गए और वैन की गति बढ़ गई।
पहले की तरह!
और फिर!
वैन यह जा—वह जा...!
चौराहा सन्नाटे में डूबा हुआ था।
थोड़ा बहुत ट्रैफिक था वहां—गाड़ियां पल भर के लिये चमकती फिर आंखों से ओझल हो जातीं।
वैन जिस लेन में रुकी थी—वो लेन रात गहराते ही वीरान प्रायः हो जाया करती थी।
गिरने वाला मानवीय शरीर प्रतिरोध रहित था। स्पष्ट था कि उसमें जान नहीं थी।
जी हां! वह एक लाश थी।
जिसे नीचे गिराने के बाद वैन द्रुत वेग से भागती चली गई थी।
थोड़ी ही देर में वैन यूं गायब हो चुकी थी कि अगर उस लाश को जीवित कर दिया जाता तो वह भी वैन का अता-पता नहीं बता सकती थी।
उस समय रात अधिक नहीं बीती थी। कुल रात के दस बजे थे।
अन्धेरी रात—चौराहे पर लगे बल्ब फ्यूज...! इन्हीं परिस्थितियों का फायदा उस वैन के सवारों ने उठाया था।
उस चौराहे पर या तो किसी पुलिस मैन की ड्यूटी अभी तक लगी न थी या फिर वे अभी पहुंचे न थे।
फिलहाल! रात तेजी से आगे सरक रही थी।
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