अदालत में कड़ा यमराज : Adalat Mein Kharda Yamraj
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अमरकान्त-कृष्णदेव सीरीज़ का धमाकेदार उपन्यास।
Adalat Mein Kharda Yamraj
Rakesh Pathak
बारह घण्टे बारह कत्ल
क्राइम स्कूल
मेरा शेर सबका बाप
अदालत में कड़ा यमराज
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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अदालत में कड़ा यमराज
—“भूत....भूत ऽऽऽऽ।”
हुलिये से ही नौकर मालूम पड़ रहा वह बूढ़ा अमरकान्त को देखते ही खौफजदा हो कर चीखा।
उसकी आंखें फैलने लगी।
चेहरा पीला—फक्क पड़ गया।
जिस्म मलेरिया के मरीज की तरह ही थर-थर कांपने लगा।
“भूत, कौन भूत?” अमरकान्त सकपकाया।
“तु....तुम....।” वह बुरी तरह कांप रही उगंली को अमरकान्त की तरफ उठा कर बोला—“न-नहीं, तुम जि....जिन्दा नहीं हो सकते हो....मरा हुआ आदमी भला कैसे....मैंने तुम्हारी लाश देखी थी—अर्थी को कन्धा भी दिया था—श्मशान घाट में चिता जलते हुये देखी थी....फिर तुम भला....हे भगवान....भूत....।”
वह पलट कर गिरता पड़ता भाग निकला।
—“पागल....।” अमरकान्त ने मुस्करा कर लापरवाही से कन्धे उचकाये और चल दिया।
एक नाई ग्राहक की हजामत बना रहा था कि अमरकान्त को देख कर इतने जोरों से चौंका कि ग्राहक का गाल कट गया।
—“हाय....काट दिया....खून....ये क्या किया तूने?”
—“उमेश बाबू....वो देखिये....उधर....।”
ग्राहक ने सड़क की तरफ देखा तो चिहुंकते हुये बोला—“अरे ये, ये तो....लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है? ये तो मर गया था—हे भगवान ....भू....भूत।”
अमरकान्त ने दोनों की बातें सुनी तो उसकी खोपड़ी घूमने लगी।
—“पा....पापा ऽऽऽऽ।” तभी किसी बच्चे की चीख ने उसे चौंकाया।
कोई दस साल का बच्चा था वह, जो कि स्कूल की यूनिफॉर्म में यानि सफेद शर्ट, काली पेन्ट व लाल कोट तथा लाल टाई में था।
वह बच्चा अपाहिज था। पोलियों से उसकी दायीं टांग मारी गई थी। उसने कमजोर टांग को सहारा देने के लिये चमड़े का घुटने तक ऐसा जूता पहना हुआ था कि जिसमें लोहे के मजबूत तार भी लगे थे। फिर भी वो टांग को उठा नहीं पा रहा था, उसे घिसटते हुये ही चल पा रहा था।
बड़ा ही खूबसूरत लड़का था वह। अंग्रेजों के जैसा ही गोरा रंग था। सुनहरे बाल थे। गोल-मटोल चेहरा। झील-सी नीली आंखें थी। नन्हें-नन्हें व फूल की पंखुड़ियों से कोमल होंठ।
—“पा....पापा....मेरे पापा....।” वह अमरकान्त की लम्बी टांगों की कोहली भर कर फूट-फूट कर रोते हुये बोला—“मैंने मम्मी से भी कहा था कि पापा ने मुझे पैरों से चलने वाली कार लाने का प्रॉमिस किया है—वो सुसाइड नहीं कर सकते—मेरी बात सच निकली—आप जिन्दा हैं—जल्दी से घर चलिये—दादी मां और मम्मी आपको देखेंगी तो बहुत खुश होंगी वो—दोनों आपकी तस्वीर के सामने बैठी रोती ही रहती हैं—ना कुछ खाती, ना कुछ पीती हैं—बुआ जी भी आती हैं तो खूब रोती हैं।”
अमरकान्त का मस्तिष्क अन्तरिक्ष में घूमने लगा।
ये माजरा क्या है?
पहले बूढ़ा डर कर भागा—फिर नाई और उसका ग्राहक उसे देख कर चौंके।
अब ये बच्चा मुझे ‘पापा’ बोल रहा है?
क्या लफड़ा है बाप?
—“सुनो बेटे।” बच्चे को अपनी टांगों से अलग करके वह झुका और उसके आंसू पौंछते हुये बोला—“तुम्हारा नाम क्या है?”
वह बच्चा चौंका और हैरानी से नीली आंखों से चौड़ा कर बोला—“ये, ये आप कैसी बात कर रहे हैं पापा—आप मेरा नाम पूछ रहे हैं? क्या आप मुझे पहचान नहीं पा रहे हैं? मैं आपका बेटा घुंघरू हूं....चिराग जैन।”
—“मेरा बेटा।” अमरकान्त बड़बड़ाया—“मेरी तो अभी शादी भी नही हुई है—फिर ये दस साल का बच्चा कहां से पैदा हो गया? मैं भगवान थोड़े ही हूं कि हवा में ही हाथ घुमा कर कोई जीव पैदा कर दूंगा?”
—“पापा....आप कुछ बोलते क्यों नहीं?”
—“सुनो बेटे।” अमरकान्त कोमलता से बोला—“तुम गलतफहमी के शिकार हो रहे हो—मैं तुम्हारा पापा नहीं हूं—मेरा नाम तो....।”
—“रूपेश जैन हैं आपका नाम—ना जाने आप कैसी बात कर रहे हैं पापा—ऐसी बातें तो शराब पीने वाले ही करते हैं—जबकि आप तो शराब पीते ही नहीं—हमारे बूढ़े नौकर ने एक दिन शराब पी ली थी तो आपने उसे नौकरी से निकाल दिया था।”
—“बेटे....मैं रूपेश जैन नहीं।”
—“अरे, रूपेश तुम।” तभी भीड़ से निकल कर एक काले सफारी सूट वाला युवक हैरानी के साथ बोला—“हे भगवान....ये क्या चमत्कार है—कही मैं ख्वाब तो नहीं देख रहा हूं? तुमने तो कुछ दिन पहले सुसाइड कर ली थी।”
—“क्या बकते हो मिस्टर—भला मैं सुसाइड क्यों करने लगा? ना जाने क्या हो रहा है? जिसे भी देखो वो ही मुझे देख कर चौंक रहा है—डर रहा है—हैरानी जाहिर कर रहा है—देखिये साहेबान, आप लोगों को जरूर कोई गलतफहमी हुई है—मैं रूपेश जैन नहीं हूं—ये हो सकता है कि किसी रूपेश जैन से मेरी शक्ल-सूरत मिलती हो।”
—“नहीं, झूठ ना बोलिये पापा।” घुंघरू उर्फ चिराग जैन नामक लड़का फफकते हुये बोला—“हमसे कोई गलती हो गई हो तो हमें माफ कर दीजिये—भगवान के लिये घर चलिये—आपको बाहुबली भगवान की कसम—पार्श्र्वनाथ के भी नाथ जी और भगवान महावीर की कसम—सभी तीर्थकरों की कसम है आपको पापा—मेरे साथ घर चलिये—सुनिये अंकल....।” वह काले सफारी सूट वाले से बोला—“ना जाने मेरे पापा को क्या हो गया है? ये मुझे भी नहीं पहचान रहे हैं—इन्हें घर पर ले चलिये ना।”
—“अरे, ये तो रूपेश भाई हैं।” तभी एक अधेड़ वहां चला आया और आश्चर्य व अविश्वास से बोला—“ये क्या चमत्कार है भाई—मैं हफ्ते भर बाद बाहर से लौटा तो मालूम पड़ा कि रूपेश भाई ने सुसाइड कर ली थी—लेकिन ये तो जिन्दा खड़े हैं।” सफारी सूट वाला बोला—“खुद को रूपेश जैन ही नहीं मान रहे हैं—अपने बेटे घुंघरू को भी नहीं पहचान पा रहा है ये—मुझे तो एक ही बात लगती है।”
—“क्या?”
—“कौन-सी बात?”
—“मुझे तो लगता है कि।” वह अमरकान्त से नजरें चुराते हुये बोला—“खुदकुशी करने को नदी में छलांग लगाई थी तो सिर पर ऐसी चोट लगी कि ये अपनी याद्दाश्त ही खो बैठे हैं।”
—“ओह....।”
—“हां, ये ही लगता है।”
—“रूपेश साहब को किसी ने नदी में कूदते हुये देखा था।” हाथ में उस्तरा लिये हुये नाई बोला—“फिर ना जाने किसकी लाश मिली थी, जिसे इनकी लाश समझ लिया गया था—जबकि ये तो जिन्दा है—मैं इन्हें भूत समझ बैठा था और ग्राहक का गाल ही काट बैठा।”
—“भगवान की लीला अपरम्पार है।” एक पुजारी टाइप का बूढ़ा मनकों वाली माला फेरते हुये बोला—“जाको राखे साईयां मार सके ना काई—ये तो ऊपर वाला ही जाने कि रूपेश सेठ जी ने आत्महत्या की कोशिश क्यों की? लेकिन भगवान ने बचा लिया—शायद भगवान को इस अपाहिज बच्चे पर तरस आ गया होगा—शायद ये याद्दाश्त खो बैठे हैं—जिस प्रभु ने सेठ जी को बचाया है, वो ही इनकी याद्दाश्त भी लौटायेंगे—यूं भीड़ लगा कर तमाशा बनाने से कोई लाभ नहीं होगा भाइयों—इन्हें घर पहुंचाओ—इनके घर वाले तो शौक मना रहे होंगे—इन्हें देख कर बेचारों की जान में जान आ जायेगी।”
—“हां, इन्हें घर ले कर चलते हैं।”
अमरकान्त की खोपड़ी भिन्नाने लगी।
किस अजाब में फंस गया वो।
ना जाने किस रूपेश जैन ने आत्महत्या की होगी? लेकिन लोग उसे ही रूपेश समझ रहे हैं। ये सभी झूठ तो बोल नहीं रहे होंगे, ना ही ये कोई एक्टिंग कर रहे होंगे।
यानि रूपेश जैन मेरा ही हम शक्ल था।
क्या करूं?
इन लोगों को डांट-फटकार कर भगा दूं?
—“नहीं, ये गलती ना कर अमरकान्त....। उसका मस्तिष्क मानो कानो में फुसफुसाया। तू इस अजनबी शहर में अपने दुश्मन को ढूंढ कर उसे कत्ल करने के इरादे से आया है? जिसे यहां के रहस्यमयी गैंगस्टर यमराज ने पनाह दी हुई है—यमराज ही नहीं, तेरा शिकार रवि ही नहीं, बल्कि उसका बाप एस.पी. चन्द्रकान्त और होम मिनिस्टर ब्रजमोहन, डी. एम. भूषण तिवारी तथा सेठ रुपचन्द्र भी ये सोच सकते हैं कि तू इन्तकाम लेने के लिये अमरपुर पहुंच सकता है—उन्हें ना सिर्फ रवि को तेरे से बचाना है, बल्कि तेरे से समीर, विजय और ललित के कत्लों का बदला भी लेना है—वो लोग तेरी तलाश में होंगे और यहां भी तेरे लिये जाल बिछा सकते हैं—तुझे कोई ठिकाना तो चाहिये ही—तू कहीं हुलिया और नाम बदल कर रहेगा तो कोई शक भी कर सकता है—जबकि तू यहां पर रूपेश जैन बन कर रहेगा तो कोई तेरे पर शक नहीं करेगा—रूपेश बन कर तू आसानी से अपने दुश्मन को ढूंढ कर उससे बदला ले सकेगा।”
—“न-नहीं, ये गलत है।” उसका दिल बोला—“मैं रूपेश नहीं हूं—अगर रूपेश बनूंगा तो ये धोखाधड़ी होगी, चीटिंग होगी—ये बच्चा और इसके घरवाले मुझे रूपेश के रूप में पा कर खुश होंगे—लेकिन जब हकीकत खुलेगी तो उनका दिल टूटेगा और तू इनकी नजरों से गिर जायेगा।”
—“तू एक बार रूपेश के घर चल कर देख तो सही अमरकान्त—रूपेश ने नदी में कूद कर खुदकुशी की थी—कोई ख्वामखाह तो खुदकुशी करेगा नहीं—जरूर वह किसी मुसीबत में फंसा होगा—हो सकता है कि उस मुसीबत से उसके घरवाले भी बाबस्ता हो—तू उनकी मुसीबत दूर करके पुण्य का ही काम करेगा—शायद रूपेश के घरवाले किसी संकट में हो—अगर ऐसी कोई बात ना हुई तो तू उन्हें हकीकत बतला कर या चुपचाप ही वहां से निकल जाना—चल कर देख तो कि माजरा क्या है? वो तुझे देख बहुत खुश होंगे।”
—“चलो रूपेश भाई।” काले सफारी वाला उसकी बांह थाम कर बोला—“मैं तुम्हारा दोस्त अतुल जैन हूं—शायद तुम याद्दाश्त खो बैठे हो, तभी तुम मुझे पहचान नहीं पा रहे हो—हम कई साल तक एक साथ कालेज में पढ़े हैं।”
—“लेकिन मैं।”
—“प्लीज, यार—अपने बेटे की तरफ देख—बेचारा, कैसे रो रहा है—ये तुम्हें जिन्दा देख कर खुश भी है और तुम्हारे बदले व्यवहार पर दुखी भी है—भाभी का रो-रो कर बुरा हाल है—तुम्हारी बूढ़ी मां मरीज है—कई बार दौरे पड़ चुके हैं—उन्हें बहुत तगड़ा शॉट लगा—डॉक्टर से बात हुई थी मेरी—वो बोल रहा था कि मां जी की जान भी जा सकती है—वो तुम्हें देखेंगी तो उनकी जिन्दगी बच जायेगी।”
—“अब क्या सोच रहा है तू अमरकान्त।” ना जाने कौन अमरकान्त के कान में फुसफुसाया—“रूपेश की बूढ़ी मां बीमार है—वो बेटे के गम में दम तोड़ सकती है—तू रूपेश बन कर उसे जिन्दगी दे सकता है—ये पुण्य का काम है अमरकान्त—अगर किसी झूठ या धोखे से किसी की जान बचती है तो ये पाप नहीं होगा।”
—“ले-लेकिन रूपेश की बीवी?”
—“उसे मुनासिब मौका देख कर हकीकत बतला देना तू—ताकि वो किसी धोखे में ना रहे—ताकि उसके धर्म पर कोई आंच नहीं आये—रूपेश के रूप में तुझे नया नाम और नई शख्शियत मिल जायेगी—तुझे तेरे मकसद में कोई दिक्कत नहीं आयेगी—हो सकता है कि तेरी वजह से रूपेश के परिवार की कोई मदद हो जाये, वो किसी मुसीबत से निकल जाये—घर चल कर वहां के हालात तो देख—फिर जैसा भी मुनासिब समझे, कर लेना।”
—“ले-लेकिन क्या रूपेश बनना इतना आसान है—मुझे तो कुछ भी मालूम नहीं—किसी को जानता-पहचानता नहीं हूं—कहीं भी गलती होने पर मेरी पोल खुल जायेगी और....।”
—“नहीं खुलेगी—इस सफारी सूट वाले का ख्याल है कि तेरी याद्दाश्त चली गई है—समझ कि तेरी याद्दाश्त चली गई है—फिर तुझे कोई दिक्कत नहीं होगी—कल को अगर ये बात खुल भी गई कि तू रूपेश नहीं है, तो भी तू गुनहगार नहीं माना जायेगा—क्योंकि तू बोल देगा कि तेरा याद्दाश्त गुम है और तुझे रूपेश समझ लिया गया था तो इसमें तेरी क्या गलती है?”
—“किस सोच में पड़ गये रूपेश भाई?”
और उसकी तन्द्रा भंग हुई।
—“प्लीज, घर चलो ना।”
—“हां, पापा....घर चलो।” घुंघरू नामक लड़का गिड़गिड़ाया—“आप मेरे अच्छे पापा हैं ना?”
अमरकान्त ने रूपेश के घर चलने का फैसला कर लिया। ये तकदीर पर छोड़ दिया आगे क्या होना है?
जाहिर है कि किसी ने दौड़ लगा कर रूपेश के घर ये खबर पहुंचा दी थी कि रूपेश जिन्दा है और घुंघरू वगैरा के साथ घर आ रहा है।
रूपेश की बूढ़ी मां सरस्वती तथा बीवी दिव्या घर के बाहर खड़ी थी।
खबर लगने पर अड़ौसी-पड़ौसी भी चले आये।
—“दादी मां....मम्मी....।” अमरकान्त का हाथ पकड़ कर आ रहा घुंघरू दूर से ही चिल्लाया—“देखो तो कौन हैं? मेरे साथ पापा हैं—पापा तो जिन्दा है—हमने गलत समझा था कि....ना जाने वो किसकी लाश थी।”
—“रु....रूपेश।” सरस्वती दोनों हाथ फैला कर लपकी और अमरकान्त की कोहली भर कर मारे खुशी के रोते हुये बोली—“हे भगवान ये तो करिश्मा हो गया—पिछले जन्म में मैंने, बहू ने और घुंघरू ने पुण्य के काम किये होंगे—तभी भगवान ने तुम्हें वापिस भेज दिया—तुम खत लिख कर चले थे कि फैक्ट्री के नुकसान की वजह से आत्महत्या करने जा रहे हो—किसी ने तुम्हें नदी के पुल से कूदते हुये भी देखा था—फिर किसी की लाश मिली थी—तुम अगूंठी और चैन तो घर पर ही उतार गये थे—उस लाश के जिस्म पर कपड़े नहीं थे—मछलियां गोश्त तक खा गई थी—कद काठी से ही उसे तुम्हारी लाश समझ लिया था—हम पर तो जैसे गमों का पहाड़ ही टूट पड़ा था बेटा—इतने दिनों तक कहां रहा बेटा? क्या तूने हमारे बारे में नहीं सोचा कि हम पर क्या बीत रही होगी? अरे....जवाब नहीं देता बेटा—कुछ तो बोल।”
अमरकान्त को सूझ ही नहीं रहा था कि क्या बोले?
—“आन्टी....प्लीज।” काले सफारी वाले अतुल जैन ने सरस्वती को पकड़ कर अमरकान्त से अलग किया और धीमें से उसके कान में बोला—“रूपेश भाई की याद्दाश्त गुम हो गई है—वो अपना अतीत भूल चुका है—नदी में कूदा था तो सिर पर कोई गुम चोट लगी होगी—वह किसी को पहचान नहीं पा रहा है—घुंघरू को भी नहीं पहचाना था—मैं जबरदस्ती लाया हूं।”
—“न-नहीं।”
—“घबराइये मत मां जी—हांलाकि इस बीमारी का कोई इलाज नहीं होता है—लेकिन धीरे-धीरे रूपेश को सारी बातें याद आ जायेंगी—ये ही बहुत है कि वो जिन्दा है और वो घर पर लौट आया है—मैं ये बातें भाभी को भी बतला देता हूं।”
लेकिन तब तक विधवा के भेष वाली दिव्या अमरकान्त के सामने पहुंच चुकी थी। अमरकान्त ने जब दिव्या को देखा तो ठगा-सा रह गया।
कोई तीस वर्षीय थी दिव्या।
दूध से उजले तथा सांचे में ढले जिस्म वाली।
मानो किसी कलाकार ने वर्षों की मेहनत के बाद मन्दिर के लिये किसी देवी की प्रतिमा बनाई हो और भगवान ने खुश हो कर उसमें प्राण फूंक दिये हो।
नख से सिख तक रूप-सौन्दर्य की अनुपम कृति।
सावन की काली घटाओं जैसी पीठ पर फैले रेशमी केश।
गोल भरा हुआ चेहरा, सुर्ख कपोल।
बिन्दिया विहीन उजला व अर्धचन्द्राकार मस्तक।
काजल से भी कजरारी, हीरों से भी चमकीली और कमल पंखुड़ी सी आंखें....स्वाप्निल-सी।
पतले, छोटे, सुर्ख, कोमल व रसीले होठ।
खूबसूरत ठोडी पर नन्हा-सा तिल।
सचमुच ही वह वीनस की जीती-जागती प्रतिमा थी।
उसने बोझिल व लम्बे बालों वाली पलकें उठा कर अमरकान्त को देखा तो अमरकान्त धड़कनें तीव्र हो चलीं।
—“क्यों....क्यों किया था आपने ऐसा।” मानो कोई कोयल कूकी—“सुसाइड नोट लिखा और अपनी जान खोने चले गये थे—हरेक इन्सान की जिन्दगी में सुख-दुःख और नफे-नुक्सान तो आते ही रहते हैं—इसका मतलब ये तो नहीं कि वह संघर्ष की बजाय मौत का रास्ता चुन ले—मैंने कहा था ना कि ‘णमोकार’ मन्त्र का जाप करिये—सारी दिक्कतें दूर हो जायेंगी—परन्तु आप तो बहुत कमजोर निकले—हम सबको छोड़ने का निर्णय ले लिया—ये तो सोचते कि हमारा क्या होगा? बूढ़ी और बीमार मम्मी जी का क्या होगा? मुझ पर क्या गुजरेगी—घुंघरू का क्या हाल होगा? ऐसा निर्णय लेने से पहले हमें जहर दे देते ना।”
—“प्लीज, भाभी।” आलोक उसके करीब आ कर धीमे से बोला—“रूपेश की याद्दाश्त चली गई है।”
—“क....क्या” वह तड़फ कर बोली—“ये, ये क्या बोल रहे हैं आप आलोक भइया?”
—“ये सच है भाभी—रूपेश को अतीत की बाबत कुछ याद नहीं है—ये हमें नहीं पहचान पा रहा है—लेकिन घबराइये मत—भगवान ने चाहा तो जल्दी ही सब याद आ जायेगा—जब आप लोग अतीत की बात करेंगे तो इसे धीरे-धीरे याद आने लगेगा—इसको भीतर ले जाओ—भीड़ और शोर-शराबे से ये डिस्टर्ब होगा।”
—“आइये ना।” वह अमरकान्त का हाथ पकड़ कर बोली—“भीतर चलिये ना।”
कोमल व गर्म स्पर्श।
अमरकान्त चुपचाप दिव्या, घुंघरू तथा सरस्वती के साथ बड़े बंगलेनुमा घर में प्रविष्ट हुआ।
भीतर भव्यता तथा शानो-शौकत के दर्शन हुये। हरेक सामान, फर्नीचर वगैरा बेशकीमती था।
फर्श पर ईरानी कालीन बिछा था।
अमरकान्त ने हॉल में अपनी तस्वीर लगी देखी तो चौंक गया। लेकिन फिर उसे ध्यान आया कि वो रूपेश का हमशक्ल है और वह तस्वीर रूपेश की ही होगी, जिस पर फूल माला चढ़ी थी—घी का दिया व अगरबत्तियां जल रही थीं।
दिव्या ने तस्वीर से माला हटा दी।
अमरकान्त की नजरें दिव्या के चेहरे पर चिपकी थीं और वह उसके व्यवहार को नोट कर रहा था।
—“गड़बड़ी है अमरकान्त।” वह अपने आप से ही बोला—“इस औरत का व्यवहार नॉर्मल नहीं है—एक औरत छः दिन पहले विधवा हुई—उसका संसार ही उजड़ गया—अचानक ही उसका पति जिन्दा हो कर लौटा—लेकिन वो ना तो मारे खुशी के रोई—ना ही मारे खुशी के पागल हुई—उसने कोई आश्चर्य, बौखलाहट वगैरा भी जाहिर नहीं की—ऐसा लगता ही नहीं कि इसका मुर्दा पति जिन्दा हो कर लौट आया है? गड़बड़ी है—राज की बात है—मालूम करना होगा कि माजरा क्या है? ये वास्तव में इतनी भोली, मासूम, देवी है या इसका कोई और भी रूप है?”
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Additional information
Book Title | अदालत में कड़ा यमराज : Adalat Mein Kharda Yamraj |
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Isbn No | |
No of Pages | 248 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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