Adalat Lagegi Sarhad Par : अदालत लगेगी सरहद पर गौरी पण्डित
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एक ऐसी अजीबो-गरीब अदालत जिसका न्यायाधीश एक खतरनाक अपराधी था। वो आए दिन कानून के रखवालों को एक नई चुनौती देकर कानून को अंगूठा दिखता था। उस शातिर दिमाग के आगे कानून भी पुंग होकर रह गया था।
प्रस्तुत उपन्यास का कथानक भी देश के आज के हालात से पूरी तरह प्रभावित है, समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, वर्दी की आड़ में गुण्डागर्दी, खादी के नाम पर लूट–खसोट और आतंकवाद के धमाकों से थर्राता यह उपन्यास पाठकों के लिए मात्र एक उपन्यास ही नहीं बल्कि उन कड़वी हकीकतों का साफ–सफ्फाक आईना है जिनसे आज प्रत्येक शरीफ भारतवासी त्रस्त है।
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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अदालत लगेगी सरहद पर
“बहुत शानदार चीज है तू। एकदम ताजमहल की माफिक! साली को देखो तो दिल ही नहीं भरता। इतनी कम उम्र में भी गजब के हुस्नो-शबाब की मल्लिका! मेरी पारखी नजरें कहती है कि तू अभी कुंवारी है—बिल्कुल अनछुई। किसी साले मर्द ने भंवरा बनकर अभी तलक तेरी जवानी का रस नहीं चूसा है। मुझे तुझ जैसी लौंडियां ही पसंद हैं। मुझे कली को फूल बनाने में बड़ा मजा आता है। अब तलक पता नहीं कितनी कलियों को मसल चुका हूँ मैं—उनकी एक-एक पंखुड़ी नौंच कर फेंक चुका हूँ। मैं बहुत दिनों से तुझे देख रहा था। जब तू स्कूल जाती तो तेरा पीछा करता। एक बार अपने दिल की बात तेरे सामने रखने की कोशिश की कि शायद तू वैसे ही मान जाए, लेकिन तूने मुझे बड़ी हिकारत से दुत्कार दिया। तब तुझे नहीं मालूम था कि मैं कितना ताकतवर हूँ! मकौड़ा दादा है मेरा नाम। अतः सीधी उंगली से घी निकलता ना देख मुझे उंगली टेढ़ी करनी पड़ी और मैंने अपने गुण्डों से तेरा किडनैप करवा दिया.....हा.....हा.....हा।”
पपीते जैसे चेहरे, उस पर गोभी के पकोड़े की मानिन्द नाक, सुर्ख-सुर्ख आंखें तथा उल्टे तवे की रंगत वाला खतरनाक गैंगस्टर मकौड़ा उर्फ मकौड़ा दादा शराब की चुस्कियां लेता हुआ तथा फर्श पर बंधी पड़ी सोलह-सत्रह वर्षीय शिखा को घोलकर पी जाने वाली नजर से देखता हुआ कह रहा था।
कहकहा समाप्त करके वह आगे बोला—“आज मैं तेरे साथ मुंह काला करूंगा। जी भर कर तेरे इस खूबसूरत और गदराये जिस्म से खेलूंगा। और जब मेरा दिल तुझसे भर जायेगा तो मैं तुझे अपने गुण्डों के हवाले कर दूंगा। अब मेरे इस अड्डे से तू नहीं तेरी लाश बाहर जायेगी। तू किसी को नहीं बतला सकेगी कि तेरे साथ क्या हुआ?”
बचपन को टाटा कहकर जवानी की दहलीज पर कदम रख चुकी थी शिखा!
रंग दूध में मिले जाफरान की मानिन्द था। सीप की मानिन्द बड़ी-बड़ी आंखें। कचौड़ियों से फूले सुर्ख गाल। सुतवां नाक। सुराहीदार गर्दन। गुलाब की पंखुड़ियों की मानिन्द ही नाजुक गुलाबी और रसीले होंठ। तथा वक्ष ऐसे मानो दो बड़े आकार की रसभरी ठोस नारंगियां सीने पर समानान्तर चिपका दी हों।
मकौड़ा की आंखों में वासना के गंदे कीड़ों को गिजगिजाते देख शिखा का सर्वांग कांप उठा। उसके इरादे सुनकर उसका नन्हां-सा दिल परकटे पंछी की मानिन्द सीने के पिंजरे में फड़फड़ाने लगा। कनपटियों पर मानो जहरीले नाग फन पटकने लगे।
उसके जिस्म से ऐसे बेहिसाब पसीना बहने लगा मानो उसे जून की भरी दोपहरी में रेगिस्तान की तपती रेत पर खड़ा कर दिया गया हो।
चेहरा पीला। आंखों में खौफ। मस्तिष्क सांय-सांय कर रहा था उसका।
मकौड़ा लम्बी-चौड़ी मेज के पीछे ऊंची पुश्त वाली कुर्सी पर विराजमान था तथा गिलास में भरी शराब की चुस्कियां ले रहा था। सामने मेज पर शराब की आधी बोतल तथा प्लेट में तन्दूरी मुर्गा रखा हुआ था।
“तुझे देख कर पता नहीं क्यों मुझे तेरे ऊपर दया आ रही है।” मुर्गे की टांग उठाकर उसे अपने काले-पीले दांतों से उधेड़ता हुआ बोला—“चल मैं तुझे एक चांस देता हूँ। तू अपनी मर्जी से खुद को मेरे हवाले कर दे। मैं अपनी प्यास बुझाकर तुझे छोड़ दूंगा। वर्ना मुझे तेरे साथ जबरदस्ती तो करनी ही पड़ेगी। फिर मेरे आदमी भी तब तलक तेरे साथ मुंह काला करेंगे—जब तलक तू दम नहीं तोड़ देगी। अब गेंद तेरे पाले में है—फैसला तुझे करना है कि मेरी बात मानती है या नहीं?”
शिखा का समूचा वजूद तेज अंधड़ में फंसे सूखे पत्ते की मानिन्द कांप उठा। जब उसे कुछ नहीं सूझा तो वह फफक-फफक कर रो पड़ी।
“तू क्या समझती है तेरे इस तरह रोने से मैं पिघल जाऊंगा? तुझे सही-सलामत यहां से जाने दूंगा? मत भूल कि मैं पत्थर हूँ, लड़की— पत्थर! और पत्थर पर किसी के आंसुओं का असर नहीं होता।”
परन्तु शिखा का रोना नहीं रुका।
“जितना मर्जी रो। जितना मर्जी चिल्ला। लड़की! इससे कुछ नहीं होगा।” मकौड़ा बदस्तूर मुर्गे की टांग उधेड़ता हुआ बोला—“तेरी आवाज बैठ जायेगी। तेरा गला सूख जायेगा। तेरी चीखें इस कमरे में दम तोड़ कर रह जायेंगी। कोई तेरी मदद के लिए नहीं आयेगा। तुझे मेरे चंगुल से छुड़ाने कोई नहीं आयेगा। मैं इस इलाके का दादा हूँ। ये मकौड़ा का अड्डा है। मेरी इजाजत के बिना यहां परिन्दा भी पर नहीं मार सकता। पुलिस के बड़े अफसर भी डण्डा मारने की जुर्रत नहीं कर सकते। तेरी जान मेरी मुट्ठी में है। तू मेरे रहमो-करम पर है। तू चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती मेरी नाजुक चिड़िया.....हा....हा....हा.....।”
शिखा की हालत शिकारी के जाल में फंसी हिरणी की मानिन्द होकर रह गई थी। वह स्वयं को बन्धनों से आजाद करने का प्रयास कर रही थी; मगर वह कामयाब नहीं हो पा रही थी।
“मकौड़ा......मुझ पर रहम कीजिये। मुझ पर तरस खाइये। मुझे छोड़ दीजिये। भगवान के लिए मुझे जाने दीजिये।” शिखा जार-जार रोती हुई अपने होने वाले अंजाम के बारे में सोचकर गिड़गिड़ायी—“मुझ मासूम पर दया कीजिये, साहब! मेरे स्कूल से वापस ना लौटने पर मेरे परिवार वालों पर ना जाने क्या गुजर रही होगी! वे मुझे कहाँ-कहाँ नहीं ढूंढ रहे होंगे। मेरी माँ तो रो-रो कर पागल ही हो जायेगी! मैं आपकी बेटी जैसी हूं.....मुझे अपनी बेटी समझकर जाने दीजिये। क्या कोई अपनी बेटी समान लड़की के साथ मुंह काला करता है? अगर आपने मेरी आबरू लूट ली तो मेरे सामने आत्महत्या के अलावा कोई रास्ता नहीं रहेगा। अपनी बेटी मानकर मुझ पर उपकार कर दीजिये। छोड़ दीजिए मुझे। आपका यह उपकार मैं जिन्दगीभर नहीं भूलूंगी।”
“तू मुझे बेवकूफ समझ रही है, लड़की—जो मैं हाथ आया शिकार छोड़ दूंगा?” मकौड़ा खाली गिलास मेज पर पटकता हुआ बोला—“हां! तू मुझे बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रही है; लेकिन तुझे नहीं मालूम मुझ जैसे खतरनाक मुजरिम का मानवता से किसी प्रकार का रिश्ता नहीं होता और उस मुजरिम से रहम की उम्मीद करना बहुत बड़ी बेवकूफी होती है। तेरी ये जज्बाती बातें मेरे चट्टानी रास्तों को नहीं बदल सकतीं। तू मेरी चाहत है। तुझ पर मेरा दिल आ गया है, अगर मैं तुझे छोड़ दूंगा तो मेरा क्या होगा? मेरी वासना की प्यास कैसे बुझेगी? मेरी प्यास कौन बुझायेगा? भले ही तू कुछ भी कह; लेकिन मैं अपना फैसला नहीं बदल सकता। जब से तुझे यहां लाया गया है तब से मेरे भीतर ज्वालामुखी फट रहा है। मेरी नस-नस में लावा-सा दौड़ रहा है। मैं तुझमें समाने के लिए पागल हुआ जा रहा हूं। मैं अपनी इच्छा पूरी करके ही रहूंगा। मै तुझ पर यूं टूट जाऊगा जैसे कोई भूखा कुत्ता मांस पर टूट पड़ता है। तेरे खूबसूरत जिस्म को नोचूंगा। मैं तेरे जिस्म को यूं रौंदूंगा जैसे कोई मदमस्त हाथी ईख को रौंदता है। अब जल्दी से बोल, तूने क्या फैसला किया?”
“ना.....नहीं।” शिखा का स्वर थर्राया—“मैं मर जाऊंगी; लेकिन तुम्हें अपना जिस्म नहीं छूने दूंगी। म.....मैं अपनी इज्जत पर आंच नहीं आने दूगीं।”
“तो तू राजी से मेरी बात नहीं मानेगी। कोई बात नहीं। मुझे उंगली टेढ़ी करनी भी आती है।” मकौड़ा की आंखों में वासना का तूफान ठांठें मारने लगा—“मैं तुझे पाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता हुं। बाज के पंजों में फंसी कोई चिड़िया बच पाई है, जो तू बचेगी? इस वक्त तेरी जान भी मेरी ही मुट्ठी में है। इसे भी तू अपनी मर्जी से नहीं ले पायेगी। मैं तुझ पर जरा भी रहम करने वाला नहीं हूं!” उठकर मकौड़ा वहां मौजूद अपने चार गुर्गे से मुखातिब होकर मदहोशी भरे लहजे में बोला—“मेरी तरफ आंखें फाड़-फाड़ कर क्या रेख रहे हो हरामजादो? इस कुत्तिया के बंधन खोलकर इसके सारे कपड़े उतारकर इसे नंगी कर दो। तभी तो मैं अपना कार्यक्रम शुरू करूंगा। जल्दी अपना काम करो। अब मुझसे सब्र नहीं हो रहा है!”
मकौड़ा के चारों गुर्गे शिखा पर यूं झपटे मानो भूखे शिकार कुत्तों की जंजीरें एक साथ खोल दी गई हों।
शिखा अंधड़ में फंसे तिनके की तरह कांप गयी। उसका नन्हां-सा दिल थैली में बंद कर दिए गए मेंढक की मानिन्द हुड़दंग करने लगा। नसों में बहता लहू फ्रीज होकर रह गया। कानों में घूं-घूं का स्वर गूंजने लगा। हलक सूख गया। आंखों से आंसू तेजी से बहने लगे। होश फख्ता हो गये। चीखती-चिल्लाती शिखा के करीब पहुंचकर चारों अपने काम में लग गए। उनके हाथ बिजली जैसी गति से चल रहे थे। देखते ही देखते उन्होंने शिखा को बंधन मुक्त कर दिया, फिर उसके स्कूल की ड्रेस उसके जिस्म से अलग करने लगे।
“मकौड़ा....मुझे नंगी मत करो। मैं तुम लोगों के आगे हाथ जोड़ती हूं। मुझ पर तरस खाओ....।” शिखा रोने गिड़गिड़ाने लगी—“भगवान के लिए मेरे साथ जुल्म मत करो। मैं तुम लोगों से रहम की भीख मांगती हूं।”
लेकिन जानवरों पर शिखा के रोने-गिड़गिड़ाने का लेशमात्र भी असर नहीं पड़ा। मानो वो बहरे हो चुके थे। शिखा चीखती रही। चिल्लाती रही। जबकि उन्होंने शिखा के जिस्म के सारे कपड़े उतार डाले। शिखा के जिस्म पर सूत का एक तार तक नहीं बचा था।
उसे इस रूप में देखकर मकौड़ा की सांसें फूलने लगीं थीं। कनपटियां भभक उठीं। उसने बोतल उठाकर मुख से लगाई और गटागट गले से नीचे उतार गया। उसने खाली बोतल फर्श पर जोर से पटक दी। अपने कुर्ते की बांह से होंठ पौंछे तथा कुर्सी छोड़कर मेज के पीछे से निकलकर शिखा की तरफ बढ़ा। होठों पर कुत्सित मुस्कान कत्थक कर रही थी।
मासूम शिखा चीखती-चिल्लाती स्वयं को बचाने की वजह से इधर-उधर भागने लगी। लेकिन भाग निकलने के सारे रास्ते तो बंद थे। मजबूर होकर उसने अपने आपको भगवान के हवाले कर दिया तथा आंखें बंद करके दोनों हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना करने लगी—“मुझ अबला की मदद करो भगवान! मुझे वासना के इन भूखे भेड़ियों से बचा। हे सुदर्शन चक्रधारी! तूने भरी सभा में द्रोपदी की लाज बचाई थी। मेरी भी लाज बचा ले मेरे कान्हा!”
“भगवान को याद कर रही है, जानेमन! जरूर कर; लेकिन आज वो भी तेरी लाज नहीं बचा सकेगा।” शिखा की परिक्रमा करता हुआ वह बोला—“तू क्या समझती है कि वो देवकी का पुत्र तेरी लाज बचाने यहां आयेगा? वो कभी नहीं आयेगा। उसने द्रोपदी की लाज जरूर बचाई होगी; मगर तू द्रोपदी थोड़े ही है! अब बहाना बन्द कर, वर्ना काट कर फेंक दूंगा।”
थर-थर कांपती शिखा आंखें बंद किये बराबर बड़बड़ाये जा रही थी। वासना के उस जहरीले जानवर ने शिखा को अपने पाश में कसकर जकड़ लिया, फिर अपनी बदबूदार सांसें उस के चेहरे पर छोड़ता हुआ बोला—“तू इतना घबरा क्यों रही है, जानेमन? मैं कोई राक्षस थोड़े ही हूं कि तुझे चबाकर निगल जाऊंगा। मेरे साथ हमबिस्तर होकर निहाल हो जायेगी तू। हमेशा याद करेगी कि किसी मर्द से पाला पड़ा था। मेरे पास आने के लिए तड़पा करेगी तू।”
शिखा अपनी आबरू बचाने के लिए मकौड़ा से जूझ पड़ी।
मकौड़ा के चारों आदमी चारों तरफ खड़े कहकहे लगा रहे थे, जबकि मकौड़ा ने शिखा को फर्श पर पटक दिया था तथा उस पर छाने की कोशिश करने लगा था।
¶¶
“इस लड़की को छोड़ दे, मकौड़ा!” एकाएक कमरे में एक गुंजीला कर्कश स्वर गूंजा।
मकौड़ा के चारों गुर्गे चौंके।
खुद मकौड़ा भी हड़बड़ा उठा, गूंजने वाले स्वर ने मानो सबके दिमागों का फ्यूज उड़ा दिया था। सबने चौंक कर कमरे में चारों तरफ नजरें दौड़ाईं; किन्तु उसे कोई नजर नहीं आया। वह असमंजस में पड़ गया। उसका दिमाग कुम्हार के चक्की की तरफ घूम कर रह गया।
“कौन हरामजादा है?” मकौड़ा स्प्रिंग की तरह पलटकर खड़ा होता हुआ चीखा—“मेरे काम में डिस्टर्ब करके किसने अपनी मौत को ललकारा है? सामने आ साले कुत्ते!”
सहसा कोई रोशनदान से होता हुआ हवा में कला-सी खाता हुआ मकौड़ा से चन्द गज के फांसले पर आकर खड़ा हो गया। वो एक नकाबपोश था। जिसका जिस्म स्याह रंग के चुस्त लिबास में कसा हुआ था। चेहरे को काले रंग की थैली में छुपा रखा था, जिसकी प्लास्टिक गर्दन के पास कसी हुई थी। नकाब से झांकती आंखों के अलावा उसके जिस्म का एक जर्रा भी दिखाई नहीं दे रहा था। हाथों को काले रंग के दस्तानों में छुपाया हुआ था। पैरों में स्याह रंग के क्रेपसोल के जूते थे। काले लबादे पर सीने की जगह सुनहरी रंग का बड़ा-सा स्पाइडर अर्थात मकड़ा बना हुआ था। वह नकाब से झांकती सुर्ख आंखों से मकौड़ा को देख रहा था।
“कौन हो तुम? मेरी इजाजत के बिना यहां हवा भी नहीं आ सकती।”
नकाबपोश बलगमी स्वर में बोला—“भले ही तेरे इस अड्डे पर तेरी इजाजत के बिना हवा ना आ सकती हो; लेकिन मैं हर उस जगह पहुंच जाता हूं—जहां किसी को मेरी मदद की जरूरत होती है। मैं गुनाहगारों पर जुल्म होते नहीं देख सकता। किसी मासूम पर अत्याचार हो, यह मुझे बर्दाश्त नही है और ऐसे लोगों को मैं बहुत बुरी सजा देता हूं। तेरा जुर्म तो बहुत संगीन है, कमीने। तूने तो एक मासूम की इज्जत की चिंदिया बिखेर दी होतीं; लेकिन आज के बाद तू किसी के साथ ऐसा नहीं कर पायेगा।”
“कौन है तू?”
“मुझे स्पाइडर कहते हैं।”
“स्पाइडर.....यानि मकड़ा....हा.....हा....हा.....तो तू इस लड़की का हिमायती बनकर यहां आया है?” मकौड़ा ने कह कर कहकहा लगया।
“यही समझ ले। साथ मैं तुझे तेरे पापों की सजा भी दूंगा। मासूम लड़कियों की इज्जत से खिलवाड़ करना तेरा खास शौक है। न जाने कितनी लड़कियों को कली से फूल बना चुका है तू। कई लड़कियों को मां भी बनाया होगा और कई मासूम ऐसी भी होंगी, तेरी हवस का शिकार होने के बाद जिन्हें आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा होगा; लेकिन अब तू किसी लड़की की तरफ आंख उठाकर भी देख नहीं सकेगा।”
पलभर के लिए मकौड़ा हड़बड़ाया; लेकिन फिर स्वयं को संभालकर गुर्राये स्वर में बोला—“ओए स्पाडर के बच्चे! मेरी एक बात अपने दिमाग में अच्छी तरह से बिठा ले कि ना तो तू इस छोकरी की कोई मदद कर सकता और ना मुझे सजा दे सकता। मुझे सजा देने वाला तो कोई माई का लाल इस धरती पर पैदा ही नहीं हुआ। मुझे तो इस बात की सख्त हैरानी है कि मेरे अड्डे पर मेरे सामने खड़ा होकर तू इतना बोल कैसे गया? क्या तुझे मौत का जरा भी डर नहीं है? अगर जान की खैरियत चाहता है तो भाग जा यहां से, वर्ना बचना तो दूर, तुझे पछताने का भी मौका नहीं मिलेगा।”
जवाब में नकाबपोश मानो प्रत्येक शब्द को जबड़ों की चक्की में गेहूं की मानिन्द ही पीसते हुए बोला—“लगता है तेरी अक्ल का दिवाला निकल चुका है! ओये मूर्ख आदमी! लड़कियों के साथ वासना का खेल-खेलकर तेरा दिमाग खराब हो चुका है। ओये! अगर मुझे भागना ही होता तो मैं यहां आता ही क्यों? आया हूँ; तो तुझे मकौड़ा से चींटी बनाकर ही जाऊंगा। वैसे कसूर तेरा नहीं है, अपनी गली में तो कुत्ता भी शेर हो जाता है। इस वक्त मैं तेरे अड्डे पर हूँ। इसलिए तू समझ रहा है कि तू अपने इन चमचों से मेरी तिक्का-बोटी करवा सकता है। लेकिन तुझे नहीं मालूम कि तेरी तो पैंन्ट गीली हो जायेगी जो मैंने जरा-सी हुंकार भी भर दी तो। अगर मैंने जोर से फंुफकार भी मार दी तो तू तिनके की तरह हवा में उड़ जायेगा।
मकौड़ा का चेहरा गुस्से से सुलग उठा। कनपटियों की नसें उभर कर जूते तले आये केंचुए की मानिन्द फड़फड़ा उठीं। वह अपने आदमियों से मुखातिब होकर दहाड़ा—“देख क्या रहे हो, हरामजादो! मारो साले को! हड्डी पसली एक कर दो! इसे बतला दो कि मकौड़ा टकराने का क्या अंजाम होता है!”
उसके चारों गुर्गे तो मानो इसी आदेश की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने झपटकर दीवार के साथ रखी हॉकी, डण्डा, मोटर साइकिल की चेन और लोहे की रॉड उठा लीं तथा चेहरे पर खतरनाक भाव लिए स्पाइडर की तरफ बढ़े।
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Additional information
Book Title | Adalat Lagegi Sarhad Par : अदालत लगेगी सरहद पर गौरी पण्डित |
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Isbn No | |
No of Pages | 350 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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