भाग–1
आत्मा की वापसी
परशुराम शर्मा
बुर्ज पर हवा का तीखा झोंका पड़ा और खिड़की से लटका वह इन्सान गिरता–गिरता बचा। फटाक की ध्वनि हुई और खिड़की का पट टूटकर गिरा, जीवन–मौत के इस खेल में उसे सांस रोक देनी पड़ी।
उसके जिस्म पर काला चुस्त लिबास था।
भयंकर सर्द रात में वह जमीन से लगभग सौ फिट ऊपर लटका हुआ था।
रात्रि का तीसरा पहर जारी हो चुका था, और दूर तक भयानक सन्नाटा छाया था। नीचे अन्धकार और ऊपर बादलों का आकाश।
काफी प्रयास के बाद वह पहरेदारों की नजर बचाकर यहां तक चढ़ पाया था। कुछ देर तक वह सांस रोके लटका रहा, उसके बाद पुन: उसने अपना अभियान जारी कर दिया, वह खिड़की में समाता चला गया।
इत्मीनान के साथ उसने नीचे एक रस्सी बांध कर लटका दी। अन्दर के डरावने अन्धकार को उसने घूरा, और भद्द के हल्की आवाज पैदा करके अन्दर कूद गया। उसने छोटी सी पेन्सिल टॉर्च जला दी।
जेब से एक नक्शा निकाल कर फर्श पर फैला दिया।
नक्शे को देखने के बाद वह दीवार पर टॉर्च का प्रकाश डालने लगा।
धीरे–धीरे उसने इस गोल कमरे का निरीक्षण कर लिया। कमरे में तीन दरवाजे थे जो अलग–अलग दिशाओं में खुलते थे।
तीनों दरवाजे बाहर से बन्द थे।
वह एक दरवाजे के पास रुक गया।
पीठ से थैला उतार कर उसने एक काला औजार निकाला और फिर दरवाजे को खोलने का उपक्रम करने लगा। द्वार लकड़ी का था। काला औजार एक स्थान से लकड़ी को काटने लगा।
धीरे–धीरे उसने इतना स्थान बना लिया कि दूसरे तरफ हाथ डाला जा सके। उसने दूसरी तरफ का ताला खोलने के लिए पेचकस जैसा दूसरा औजार निकाल लिया था।
अभ्यस्त चोर के समान ताला खोलने में वह कामयाब हो गया।
दरवाजा खोल कर वह दूसरी तरफ पहुंचा।
यहां नीचे जाने के लिये सीढ़ियों का क्रम था।
पैरों में चढ़े क्रेपसोल के जूते किसी प्रकार की आवाज उत्पन्न नहीं कर रहे थे, और वह सावधानी से चक्करदार सीढ़ियां उतरता जा रहा था।
फिर उसने एक हाल जैसे भाग में प्रवेश किया। अंधकार अब भी ज्यों-का-त्यों विद्यमान था और इस विशाल इमारत में फ्यूज उड़ाने का काम भी उसी ने किया था।
हॉल में एक किनारे बारीक सी दरार थी, जिससे बहुत धीमा पीला प्रकाश छन रहा था। वह इन्सान उसी दरार के पास रुक गया। तभी उसे हल्की आहट महसूस हुई और पेंसिल टॉर्च बुझाकर वह सावधानी से एक खुले द्वार में समा गया। आहट थोड़ी ही देर में बन्द हो गई।
वातावरण में गहरा सन्नाटा था।
उसने दरार के पास पहुंच कर दरवाजे को देखा, फिर उचक कर उसने ऊपर लगा लोहे का रॉड पकड़ लिया। सीने के बल खिंचकर वह ऊपर लगी जाली तक पहुंच गया। वह जाली किसी रोशनदान की थी।
जाली के अन्दर जो शीशा लगा था वह काले पेन्ट से रंगा गया था।
उसने बहुत सावधानी से जाली को काटना शुरू किया।
बहुत हल्की किर–किर की ध्वनि पैदा होने लगी। करीब दस मिनट में उसने जाली को काट दिया। उसके बाद जाली एक तरफ सटा कर रख दी। शीशे पर हाथ घुमाया और एक दूसरा औजार निकाल कर शीशे में बहुत मामूली सा गोल सुराख बनाने लगा।
शीशे की किरचें उसने अपनी तरफ निकाल लीं।
बने हुए सुराख से उसने आंख सटा दी।
उसकी सुर्ख आंख अब अन्दर का दृश्य देख रही थी।
अन्दर काफी लम्बा–चौड़ा हॉल था।
दीवारों पर कुछ मोमबत्तियां लगी थीं, कुछ मध्य में लटके फानूस में जलकर शोभा बढ़ा रही थीं। हॉल की दीवारों पर राजा–महाराजाओं के जमाने की कलाकारी नजर आ रही थी। एक तरफ पुराना-सा सिंहासन पड़ा था।
फर्श पर बहुमूल्य कालीन बिछी थी।
अनेक मेज, आलमारियां तथा कांच के बड़े बर्तनों में नायाब वस्तुओं का संग्रह था। वह वस्तुएं ऐतिहासिक काम से लेकर अधुनिक काम तक की थी। लगता था जैसे यह संग्रहालय का मुख्य हॉल है।
बीच में सुनहरी चेनों के बीच बहुत सुन्दर रंग–बिरंगे शीशों पर खड़ी थी एक प्रतिमा। प्रभावित करने वाली सुन्दर मूर्ति जो इन्सानी कद के बराबर ही थी। अचानक अगर कोई देखे तो यूं लगता जैसे वह किसी देश की सुन्दर राजकुमारी है।
निगाह झुकी।
प्रीतम का इन्तजार करती बांहें।
होठों पर गोपनीय मुस्कराहट।
प्रतिमा में अनोखी चमक–दमक थी।
उसके कन्धे पर एक उल्लू विराजमान था। उल्लू भी एक बुत था, जिसके नेत्रों में हिंसा, क्रोध और प्रतिशोध की भावनायें झलकती महसूस होती थीं।
कुछ मिनट तक यह इन्सान प्रतिमा को ठगा-सा निहारता रहा। अचानक उसने पलको झपकाईं और अन्य वस्तुओं को निहारने लगा। इस प्रतिमा के निकट ही चार इन्सान बैठे ताश खेल रहे थे।
वह पहरेदार थे।
संग्रहालय के चार हॉलों के चारों रक्षक यहीं बैठे थे।
उस इन्सान ने जेब से एक गोली निकाली और सावधानी के साथ गोली सुराख से अन्दर फेंक दी। सुराख पर उसने हथेली लगा दी ताकि अन्दर का प्रभाव उस पर भी न हो जाये।
गोली फर्श पर लुढ़कते ही फट गई। फटने की कोई ध्वनि नहीं हुई। उससे बारीक धुवें की लकीर उठकर वातावण में फैल गई।
इधर इस इन्सान की निगाह कलाई घड़ी में घूमने वाली सेकिंड की सुई पर जमी थी। वह निश्चित समय का इन्तजार करने लगा। एक मिनट गुजरा, फिर दूसरा मिनट और उसने हाथ हटा दिया।
अन्दर झांका।
चारों पहरेदार लुढ़क गये थे।
उसके होठों पर हल्की-सी मुस्कराहट आकर विलीन हो गई। उसने हाथ मार कर शीशे का एक हिस्सा तोड़ दिया। उसके बाद अन्दर हाथ डालकर सिटकनी खोल दी। पूरा रोशनदान खुल चुका था।
वह अन्दर घुसने का उपक्रम करने लगा।
जल्दी ही वह अन्दर की दीवार पर झूल रहा था।
फर्श पर कूदते ही उसने अपनी हथेली को चूमा और सबसे पहले बाहर निकलने का दरवाजा खोल दिया। यूं द्वार पर पर्दा पड़ा था और एक–दूसरे हिस्से में ठीक प्रतिमा के पीछे नीले रंग का पर्दा फैला था।
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