जमीन का खुदा : Zameen Ka Khuda by Sunil Prabhakar
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उसका नाम सत्यानन्द था मगर जीवन के हर पर्दे पर असत्य और अपराध की कीचड़ लड़ी थी। उसके पास सत्ता और शक्ति दोनों थी। यही कारण था कि वो खुद को जमीन का खुदा समझता था। वही खुदा एक गलती कर गया...वो खुद को सचमुच खुदा समझ बैठा।
फिर जब उसका टकराव दिलीप शाण्डिल्य और बबूना से हुआ तो उसको अपनी औकात का शिद्दत से अहसास हुआ। तब उसे पता चला कि जरी खुद को जमीन समझने लगे तो सच की आँधी में उसकी औकात तिनके से ज्यादा नहीं होती।
जमीन का खुदा : Zameen Ka Khuda
Sunil Prabhakar सुनील प्रभाकर
Ravi Pocket Books
BookMadaari
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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जमीन का खुदा
सुनील प्रभाकर
देवराज चोपड़ा ने अपने सामने खड़े, अपने साम्राज्य के खासुलखास और अपने दाहिने हाथ सांवलिया राम की ओर आग उगलती नजरों से देखा। देवराज चोपड़ा का चेहरा पत्थर की तरह सख्त लग रहा था। होंठ भिंचे तथा जबड़े की हड्डियां उभरी हुईं।
उस शानदार केबिन में उन दोनों के अलावा और कोई नहीं था। केबिन में गहरा सन्नाटा छाया था। केवल एयर कण्डीशनर की ध्वनि माहौल में सुनाई दे रही थी। चोपड़ा ने एकाएक लम्बी सांस छोड़ी और कुर्सी की पुश्त से टिक गया। उसके चेहरे पर अब चिन्ता और व्याकुलता के भाव उभर आये थे। उसने उंगलियों में दबी सिगरेट का कश लिया और ढेर सारा धुआं हवा में छोड़ा।
सांवलिया राम खामोश बैठा चोपड़ा की ओर देखता रहा।
तीस-पैंतीस वर्षीय सांवलिया राम वास्तव में नाम के अनुरूप ही था। इकहरे बदन, सामान्य कद, सर्प जैसी गोल चमकदार आंखों वाले सांवलिया राम को देखकर कोई भी उसे सामान्य व्यक्ति ही समझता था क्योंकि उसके व्यक्तित्व में कुछ भी ऐसा नहीं था जो किसी का ध्यान खींच सके। सामान्य तौर पर उसे मौका पड़ने पर एक रास्ता चलता व्यक्ति भी हड़का सकता था। लेकिन, जो लोग उसको जानते थे, उनको पता था कि वो उतना ही खतरनाक था, जितनी मौत।
“जानते हो छोकरी का गायब होना कितना भयानक है?” चोपड़ा ने सिगरेट का कश लिया—“उसके पास इस समय, ये समझ लो कि हम सभी की तकदीर है। ऐसी तबाही है कि दुनिया की कोई भी ताकत हमें बर्बाद होने से नहीं बचा सकती।”
“अपने आदमी उसकी तलाश में पूरा शहर छान रहे हैं चोपड़ा साहब।” सांवलिया राम ने शांत और स्थिर स्वर में कहा—“वो किसी भी कीमत पर बचेगी नहीं—मगर हथेली पर सरसों नहीं जमाई जा सकती। शहर की आबादी पचास लाख है और विस्तार पच्चीस-तीस किलोमीटर। ऐसे में कोई लड़की अगर कहीं छुप जाए तो तलाशना आसान नहीं होगा। समय और मेहनत दोनों लगेंगे। आपको पता है कि हमारे आदमी काम में ढीले नहीं हैं।”
“मेरा तो दिमाग काम नहीं कर रहा है।”
“गलती तो नेताजी की है।”
“है। इस बात को वो भी मानते हैं और मैं भी। लेकिन गलती को पकड़कर बैठा तो नहीं जा सकता।”
“ऐसा है भी नहीं।”
“हरामजादी कहां गायब हो गई है?” दांत पीसे चोपड़ा ने—“एक बार हाथ आ जाए तो उसे ऐसा सबक दिया जाएगा कि उसकी रूह भी गद्दारी करने से पहले सौ बार सोचेगी।”
“मिलेगी हरामजादी, जरूर मिलेगी। हमारे आदमियों के हाथ से बचकर नहीं जा सकती।”
“उसके परिवार में कौन-कौन हैं?”
“केवल मां और छोटी बहन।”
“वे दोनों भी गायब हैं?”
सांवलिया राम का मन हुआ कि चोपड़ा के प्रश्न पर जोर से हंसे, लेकिन हंसा नहीं। हंसने का मतलब था चोपड़ा का मूड और ज्यादा खराब कर देना।
“जाहिर है, अपनी मां बहन को वो हम लोगों के लिए छोड़कर नहीं जा सकती थी। वैसे बिल्डिंग में रहने वालों का कहना है कि वो बहुत घबराई हुई और परेशान थी—साथ ही डरी हुई थी। अगल-बगल के फ्लैट में रहने वालों के प्रश्नों के जवाब उसने गोलमोल दिए थे। किसी को उसने नहीं बताया कि कहां जा रही है? क्यों जा रही है? खास बात ये है कि फ्लैट में उसका काफी सामान है अभी। सम्भवतः कुछ जरूरी कपड़े तथा थोड़ा बहुत जरूरी सामान लेकर गयी है। देखने वालों का कहना है कि सामान ज्यादा नहीं ले गयी है।”
“यानी फ्लैट अभी खाली नहीं किया है?”
“नहीं।”
“ये पता नहीं चला कि मकान से निकलकर किधर गयी है?”
“थ्री-व्हीलर से गयी है।”
“थ्री-व्हीलर का पता नहीं चला?”
“जी नहीं—लेकिन तलाश की जा रही है। हालांकि उसके मिल जाने पर भी कोई आशा नहीं है कि थ्री-व्हीलर वाले से कोई सही जानकारी मिल पाएगी।” सांवलिया राम बोला—“नीलम को आप भी जानते हो और मैं भी। बहुत तेज दिमाग तथा चालाक है वो। नेताजी उसकी खूबसूरती पर लट्टू बने रहे और वो चूना लगाकर चली गयी। सबसे बड़ी बात ये है कि नेताजी उसके ऊपर इतनी जल्दी विश्वास कैसे करने लगे? सिर्फ छः महीने में ही उसने ऐसा विश्वास जमा लिया कि नेताजी की कच्ची-पक्की बातों की उसे जानकारी भी हो गयी? उनकी विश्वासपात्र बन गयी? खूब चरका दिया छोकरी ने।”
“तुम तो नेताजी को ही दोषी ठहराने लगे?” चोपड़ा ने कड़ी नजर से देखा उसे।
सांवलिया राम के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया था।
उसने ठहरी दृष्टि से चोपड़ा की ओर देखा।
देवराज चोपड़ा उसका बॉस था। अण्डरवर्ल्ड का ऐसा शख्स था जिसका अपना अलग दबदबा था। वो पांच साल से चोपड़ा के साथ था और गुजरे पांच वर्षों में चोपड़ा ने अपना दायरा बढ़ाया था। उसकी धमक काफी बढ़ी थी। इस बढ़े दायरे और धमक में सांवलिया राम का मुख्य हाथ था। एक साधारण कारकुन से देखते-देखते सांवलिया राम चोपड़ा का खास यूं नहीं बना था बल्कि अपनी योग्यता, कार्यकुशलता, क्षमता तथा साहस के बल पर बना था। कई बार ऐसे मौके आये थे जब चोपड़ा भारी संकट में फंसा था। तब सांवलिया राम ने अपनी सूझ-बूझ और प्राणों को संकट में डालकर उसे बचाया था। चोपड़ा समझ गया था कि सांवलिया राम काम की चीज है और साल भर के भीतर-भीतर वो उसका दायां हाथ बन गया था। हालांकि पुराने लोगों में नाराजगी हुई थी मगर उनके पास सांवलिया राम का विरोध करने का कोई ठोस कारण या तर्क ना होने के कारण उनको खामोश रह जाना पड़ा था।
“मैं दोषी नहीं ठहरा रहा हूं।”
“फिर?”
“एक औरत की खूबसूरती ने जिस सफाई से नेताजी की आंखों में धूल झोंककर उन्हें बेवकूफ बनाया है, उसको आप क्या कहेंगे?”
चोपड़ा ने पहलू बदला।
उसके पास सांवलिया राम की बात का कोई जवाब नहीं था।
“बात तो तुम्हारी सही है लेकिन सांप निकल जाने के बाद उसकी लकीर पीटने से क्या फायदा?”
“भूलों और गलतियों से ही सबक लिया जाता है बॉस।”
“देखो सांवलिया, नेताजी इस समय बहुत परेशान हैं। एक प्रकार से वो पागलों जैसी स्थिति में हैं। ऐसे में अगर उनको उनकी गलतियां गिनाई जाएंगी तो...।”
“ये मैं आपसे कह रहा हूं, नेताजी से नहीं।”
“इस समय मैं भी उनसे कुछ नहीं कह सकता।”
“जरूरत भी नहीं है।”
उसी समय फोन घनघना उठा।
चोपड़ा और सांवलिया की दृष्टि उस पर चली गयी।
“नेताजी का फोन होना चाहिए।”
“उनको समझाइए कि परेशान ना हों। मैं ना केवल नीलम को ढूंढ निकालूंगा बल्कि वो माइक्रोफिल्म भी उससे प्राप्त कर लूंगा। बस, उसका कोई क्लू भर मिल जाए।”
चोपड़ा ने हाथ बढ़ाकर रिसीवर उठा लिया।
¶¶
गजाधर ठाकुर ने माधव की ओर देखा।
“छोकरी गायब है—लेकिन कहां गायब हो गयी?”
“चोपड़ा के आदमी भी उसकी तलाश में घूम रहे हैं लेकिन उसका कोई पता नहीं लग रहा है।”
“साला बाल नोंच रहा होगा।”
“बहुत ज्यादा परेशान है।”
“और वो हरामजादा नेता?”
“उसकी तो हालत खराब है। उस पर दौरे पड़ रहे हैं।”
“गुड—गुड! हरामी, सारी मलाई अकेले हड़प जाना चाहता था। गजाधर ठाकुर को चूना लगाने के चक्कर में था।” वो वहशी स्वर में बोला—“अब साले को पता चल रहा होगा कि ठाकुर के साथ चालबाजी करने का क्या परिणाम होता है?”
माधव ने गजाधर ठाकुर की ओर देखते हुए कहा—“मैंने आपसे पहले ही कहा था कि नेताजी पर भरोसा मत करिए। मेहनत आपने की। सारे मामले का पता आपने लगाया लेकिन काम हो जाने पर नेताजी ने पीठ में छुरा मार दिया। इन नेताओं पर कभी भरोसा नहीं करना चाहिए।”
ड्राइंग रूम में चहलकदमी करता गजाधर ठाकुर ठिठका। उसका प्रभावशाली चेहरा गुस्से की अधिकता से विकृत हो गया था तथा आंखों में आग-सी दहकने लगी थी।
“नेता को तो मैं वो सबक दूंगा कि साले की सारी नेतागिरी हवा में उड़ जाएगी।” गजाधर ठाकुर ने जलते स्वर में कहा—“दोस्ती के लिए ठाकुर जान भी दे सकता है लेकिन दगाबाज को ऐसी सजा भी देता है कि देखने वालों को भी सबक मिले। अभी तक उसने मेरी दोस्ती ही देखी है—दुश्मनी नहीं। अब उसको पता चलेगा कि दोस्त जब दुश्मन बनता है तो उसका क्या परिणाम होता है। तुम बस किसी तरह छोकरी नीलम का पता लगाओ। उससे कान्टेक्ट करो। अभी वो शहर में ही होगी। इस हरामजादे नेता के बच्चे को ऐसी सीख दूंगा कि किसी के साथ धोखेबाजी ना कर सके।”
“मिलेगी ठाकुर साहब—नीलम जरूर मिलेगी। मेरे आदमी चोपड़ा के आदमियों के पीछे हैं। मेरे आदमियों का काम लड़की को उनके हाथों से छीनना है। चोपड़ा के आदमी जान भी नहीं सकेंगे कि किसने ऐसा किया है।”
गजाधर ठाकुर सोफे में धंस गया।
उसने सामने खड़े माधव की ओर देखते हुए कहा—“इस बार चुनाव होने दो—दस-बीस लाख साले का टिकट कटवाने के लिए, अगर जरूरत पड़ी, तो खर्च कर दूंगा।”
“आप क्यों नहीं खड़े हो जाते?”
“नहीं माधव। नेतागिरी बहुत गन्दी शै है। फिर कुत्ता बनने से कुत्ता पालना ज्यादा ठीक होता है। साले दुम तो हिलाते हैं। हमें इनके जरिए अपना काम निकालना होता है, वो मैं निकाल लेता हूं। भगवान का दिया हमारे पास बहुत है। उसकी कृपा है कि मेरे सारे धन्धे नम्बर एक के हैं। खेत हैं। फार्म हैं। तुमको पता है कि खाने वाले भी ज्यादा नहीं है। लाखों रुपये सालाना की आमदनी है। ऐसे भी टन्टघन्ट करने की क्या जरूरत है? लड़की की शादी कर दी है। लड़का अमेरिका में पढ़ रहा है। दो साल बाद उसी को सारा काम सम्भालना है। इतने छोटे परिवार के लिए हमारे पास जरूरत से ज्यादा है। कोई खराब फैल मुझमें है नहीं। ऐसे में गलत काम करूं तो किसके लिए? मेरे जीवन की कोई बात कम-से-कम तुमसे नहीं छिपी है।”
एकाएक ठाकुर रुका और बोला—“मुझे नहीं पता है कि नेता किस चीज के पीछे पड़ा था। मुझसे उसने इतना भर कहा था कि उसके पास ऐसी चीज आने वाली है जिसकी कीमत करोड़ों में है। वो क्या है? ये उसने नहीं बताया। पूछने पर भी नहीं बताया। इतना बोला कि आने पर बताएगा। अब कह रहा है कि वो चीज आयी भी—छत्तीस घण्टे उसके पास रही भी और वो छोकरी नीलम, जिसे वो अपनी पी०ए० बनाए था, लेकर चंपत हो गयी है। अब भी हरामी कबूलकर नहीं दे रहा है कि वो क्या चीज है? साले को फुटपाथ से उठाकर आदमी बनाया। नेतागिरी का शौक था सो सभासद से लेकर विधायक तक इलेक्शन लड़वाकर जितवाया। हरिजन कल्याण विभाग का मन्त्री बनवाया। दूसरी बार जिताकर नगर विकास मन्त्री बनवाया। थोड़ा हरामीपन करने लगा था विधायक तो बनवा दिया, मन्त्रीपद गोल करवा दिया। अब सिर्फ विधायक भर है। इतना तो मुझे भी पता है कि तिकड़मी बहुत है लेकिन उससे मुझे कुछ लेना-देना नहीं रहा कभी, क्योंकि आज के समय में नेतागिरी बिना तिकड़म के नहीं चलती है। मगर सांप भी अपने बिल में सीधा जाता है। मुझे पता है कि उसकी नाराजगी का क्या कारण है। इस बार मन्त्री बनाने में मैंने कोई मदद नहीं की। उसी से खार खाए है और माधव जानते हो, मन्त्री बनने में मैंने इस बार मदद क्यों नहीं की? इसलिए कि इसके सम्बन्ध देवराज चोपड़ा जैसे खतरनाक अपराधी से हैं। एक जनसेवक जब अपराधियों से सम्बन्ध रखने लगे, उसकी मदद करने लगे तो समझ लेना चाहिए कि वो पथभ्रष्ट हो गया है और गजाधर ठाकुर ऐसों के साथ अपने रिश्ते बनाए रखना पसन्द नहीं करता।”
ठाकुर ने रुककर लम्बी सांस ली थी।
बोलते-बोलते उसका चेहरा लाल हो गया था।
ठाकुर ने सफारी की जेब से सिगार निकाला।
“जरा पानी मंगवाओ माधव। प्यास लगी है।”
माधव भीतर चला गया।
थोड़ी देर बाद एक सांवली स्त्री ट्रे में जग और दो गिलास तथा खाने की प्लेटों में मिठाई और नमकीन रखकर ले आयी। ट्रे मेज पर रखकर वो भीतर चली गयी।
“चल माधव, तू भी कुछ खा ले। लक्ष्मी बहुत समझदार है।” ठाकुर मुस्कुराया—“जानती है कि मैं खाली पानी कभी नहीं पीता।”
माधव मुस्कुराकर सामने वाले सोफे पर बैठ गया।
सहसा उसने ठाकुर से पूछ लिया—“आपको नहीं पता कि नेताजी के पास कौन-सी चीज थी?”
ठाकुर ने सिगार मेज पर रख दिया और छैने का पीस उठाते हुए कहा—“नहीं।”
“उसने कोई संकेत भी नहीं दिया?”
“नहीं, सिवाय इसके कि उसका मूल्य करोड़ों में है। क्या है—ये वही जाने।”
“आप जानना चाहते हैं?”
“क्यों नहीं।”
माधव का चेहरा गम्भीर हो गया था।
“वो माइक्रोफिल्म है ठाकुर साहब।”
“माइक्रोफिल्म?” वो बुरी तरह चौंका था—“क्या मतलब है तुम्हारा?”
“मेरा कोई मतलब नहीं है। मुझे जो मालूम हुआ है वो बताया है।”।
ठाकुर का चेहरा गम्भीर हो गया।
“तुम सच कह रहे हो?” इस बार ठाकुर का स्वर विचलित था—“अगर वो कोई माइक्रोफिल्म है तब तो बहुत गम्भीर बात है क्योंकि माइक्रोफिल्म किसी मामूली चीज के लिए नहीं बनाई जाती है। ये सोचने की बात है कि माइक्रोफिल्म किसकी हो सकती है।” ठाकुर ने माधव की और संजीदगी से देखा—“और नीलम जैसी एक मामूली लड़की ने उसे क्यों चुराया? अपनी जान जोखिम में क्यों डाली? अपनी ही नहीं अपनी मां तथा छोटी बहन को भी भारी खतरे में डाल दिया है। ऐसा क्यों किया उसने? कोई कारण तो होगा?”
माधव की आंखें चौड़ी हो गईं।
उसके दिमाग में खतरे की घण्टी बजने लगी थी।
“आपका इशारा...।” उसने कहना चाहा।
“मेरा इशारा बहुत साफ है। तुमको इस मामले में बहुत गम्भीरता से, पूरी ताकत से लगना होगा। अभी ये मामला पुलिस या दूसरी खुफिया एजेन्सियों के सामने नहीं आया है वर्ना अभी तक धमा-चौकड़ी मच गयी होती। नेता बहुत ही हरामी शख्स है। स्वार्थी, मतलबी, मौका-परस्त और चालबाज शख्स है। मुझसे ज्यादा उसकी फितरत को कोई नहीं जान सकता। जो व्यक्ति अपने बनाने वाले को धोखा दे सकता है, वो कुछ भी कर सकता है।”
गजाधर ठाकुर के चेहरे पर व्यग्रता का भाव नजर आने लगा। बल्कि उसे व्याकुलता का नाम दिया जा सकता था। माधव ने महसूस किया कि मामले को जितना सरल वो समझ रहा था, वैसा नहीं है। ठाकुर की गम्भीरता ने उसे एक नया मोड़ दे दिया था।
“ठीक है ठाकुर साहब।” माधव उठकर खड़ा हो गया था—“मैं चलता हूं। आपने मुझे चौंका दिया है। मैं इस मामले को अभी तक इस रूप में नहीं देख रहा था। मुझे अपने लोगों को नयी राय देनी होगी।”
“मुझे सूचनाएं मिलती रहनी चाहिएं।”
“मैं शाम को आपसे मिलूंगा।”
“होशियार रहना—ये आसान मामला नहीं है। मुझे बेवजह इसमें टांग फंसानी पड़ रही है। सिर्फ नेता की वजह से। मैं अपने साथ गद्दारी करने वाले को कभी माफ नहीं करता।” ठाकुर के स्वर में एक अजीब-सी क्रूरता थी—“मैं इस नेता को बताना चाहता हूं कि ठाकुर जिस पौधे को लगा सकता है। सींचकर पेड़ का रूप दे सकता है, उसे मौका पड़ने पर जड़ से उखाड़ भी सकता है।”
¶¶
“लगता है आज अंकल की डांट खानी होगी।”
“तो खा लेंगे।”
“वैसे देर तो हो ही गयी है।”
“हम लोगों ने जानबूझकर तो देर नहीं की है? ऐसे फंक्शन्स में वैसे भी देर हो जाती है। फिर राजीव जिद भी तो पकड़ गया था। वैसे चिन्ता की कोई बात नहीं है। हमने अलका दीदी को फोन कर दिया था। वो अंकल को बता चुकी होंगी।”
“आखिर तुम दोनों अंकल की डांट खाने से डरते क्यों हो? बड़ों की डांट तो आशीर्वाद होती है।” कार की पिछली सीट से मोहन ने अत्यन्त आराम से कहा—“यूं भी डांट कभी-कभार ही तो सुननी पड़ती है।”
“लो—पण्डित बोला।” दिलीप शाण्डिल्य ने कहा—“ऐसे बोल रहा है जैसे बड़ा फरमाबरदार हो—जबकि सबसे ज्यादा खुराफाती यही है। अंकल से यही हम लोगों की चुगली करता रहता है।”
“गलत—एकदम गलत।” मोहन बोला—“मैं किसी की चुगली नहीं करता। तुम दोनों खुद ही अपने आपको लफड़े में फंसा लेते हो। मुझे देखो—मैं नहीं फंसता किसी चक्करबाजी में।”
“हां-हां... तू—तो गऊ है।” बबूना ने व्यंग से कहा—“एकदम भोला-भाला है। तुझे तो नाक पौंछना भी नहीं आता है। क्या बात है तेरे सीधे होने की।”
मोहन हंसा था।
“हंस ले बेटे, कभी तो फंसेगा।”
“मैं नहीं फंसने वाला।”
“ये तो समय आने पर पता चलेगा।”
“देख लेना—मैं नहीं...।”
कहते-कहते मोहन रुका था।
उसकी आंखें विण्डस्क्रीन से बाहर देखकर फैल गईं।
“अरे...अरे...!” वो लगभग चीखा—“ये क्या हो रहा है?”
दिलीप शाण्डिल्य कार ड्राइव कर रहा था और बबूना उसकी बगल में बैठा था। उन दोनों ने भी सामने सड़क पर नजर आने वाले दृश्य को देखा।
एक युवती बदहवास-सी भाग रही थी और कई लोग उसके पीछे लगे थे।
युवती अभी-अभी एकदम से एक गली से निकलकर सड़क पर भागती हुई आयी थी और संयोग से कार की ओर भाग ली थी। सम्भवतः उसने कार को देख लिया था और शायद उसको लगा था कि कार वालों के कारण उसकी जान बच सकती है।
“कार धीमी करो दिलीप—वर्ना कार से टकराकर घायल हो जाएगी।” बबूना जल्दी से बोला—“वो इधर ही आ रही है।”
दिलीप ने कार को पहले धीमा कर लिया था।
इतनी रात में इस प्रकार एक युवती का बदहवास-सा भागना और कई लोगों का उसका पीछा करना स्पष्ट करता था कि युवती उन लोगों से बचने के लिए भाग रही है। पकड़े जाने से बचने के लिए या जान बचाने के लिए।
“पकड़ो हरामजादी को!” कोई चिल्लाया था—“बचकर ना निकलने पाए।”
दिलीप शाण्डिल्य ने कार रोक दी।
इंजन नहीं बन्द किया।
कार को देखकर युवती के पीछे भागने वाले क्षणभर के लिए ठिठके थे। फिर भाग लिए थे लेकिन युवती तीर की तरह कार के बोनट से आकर टकराई थी—और सड़क पर गिरते-गिरते बची थी।
युवती ने पीछे नजर डाली।
पीछा करने वाले आदमी और तेजी से दौड़ थे।
“मुझे बचाइए।” युवती सम्भलकर कार की ड्राइविंग सीट की ओर आकर आतंकित स्वर में गिड़गिड़ाई—“ये लोग मेरी जान लेना चाहते हैं। प्लीज मेरी मदद करिए।”
“बबूना!” दिलीप ने बगल वाली सीट पर नजर डाली तो चौंक गया। वो अपनी सीट पर नहीं था।
“मोहन!”
वो भी अपनी सीट से गायब था।
“भाई साहब...।” युवती भयभीत हिरनी की तरह बोली—“ये लोग मुझे जान से मार देंगे।”
“तुम कार की पिछली सीट पर आ जाओ।” दिलीप ने सामने देखकर कहा—“हरी-अप—मैं इन लोगों को देखता हूं।”
पीछा करने वाले कार के समीप आ चुके थे।
सबसे आगे वाले व्यक्ति ने, जब वो युवती कार का दरवाजा खोलकर बैठने का प्रयास कर रही थी, उसके ऊपर छलांग लगाई लेकिन वो युवती तक नहीं पहुंच पाया।
दिलीप ने अपनी साइड वाला दरवाजा एकाएक ही खोल दिया था। फलस्वरुप छलांग लगाने वाला व्यक्ति दरवाजे से टकराकर चीखता हुआ दूर जा गिरा था।
दूसरे पल दिलीप कार से बाहर निकल आया।
वे पांच लोग थे।
एक ढेर हो चुका था। चार कार के समीप आकर रुके।
दिलीप ने उन लोगों की ओर देखा। सब-के-सब खतरनाक लग रहे थे।
उन चारों ने खूंखार नजरों से दिलीप को देखा था फिर उनमें से एक ने वहशी स्वर में कहा—“लड़की को कार से बाहर निकाल कर हमारे हवाले कर दो लड़के। ये धोखा देकर घर से भागी है।”
“मैं घर से नहीं भागी हूं।” युवती सहमे स्वर में कार के भीतर से चिल्लाई—“य...ये लोग जबरदस्ती मुझे अपने साथ ले जाना चाहते हैं। ये लोग जिसके पास ले जाना चाहते हैं, वो मुझे जान से मार डालेगा।”
दिलीप ने बबूना और मोहन को उन चारों के पीछे खड़े देख लिया। वो समझ गया था कि मामला गम्भीर है।
जिस आदमी से कार का दरवाजा टकराया था, वो भी उठकर खड़ा हो गया था वो लड़खड़ाता हुआ कार की ओर आ रहा था। सहसा वो दहाड़ा—“देखते क्या हो? हरामजादी को कार से बाहर खींच लो।”
“अबे मूंगफली के छिलके।” मोहन का चिढ़ाने वाला स्वर गूंजा था—“तेरे बाप का राज है ना—ऐसे ही कार के बाहर खींच लोगे और हम लोग खामोश खड़े रहेंगे?”
“देखो, तुम लोगों का इस मामले से कोई लेना-देना नहीं है।” पहले वाला बोला—“बेकार में उलझने से कोई फायदा नहीं है। हम छोकरी को साथ लेकर चले जाएंगे। हमारे बीच में पड़ने से तुम लोगों का ही नुकसान होगा।”
“सॉरी दोस्त।” दिलीप ने इंकार में सिर हिलाया—“अब चूंकि ये हमारी शरण में आ गयी है इसलिए मामला उलझ गया है। मुझे नहीं पता कि तुम लोग कौन हो और इसको क्यों ले जाना चाहते हो? हमने इसे तुम लोगों से जान बचाकर भागते देखा है। जाहिर है कि कोई किसी से जान बचाकर यूं ही नहीं भागता है। मुझे भी लगता है कि तुम पांचों से इसे अपनी जान का खतरा है—इसलिए...।”
“बकवास नहीं।” अचानक, कार के दरवाजे से टकराने वाले के हाथ में रिवॉल्वर चमक उठा—“अगर छोकरी को हमारे हवाले नहीं करते हो तो तुम लोगों की लाशें गिरी पड़ी होंगी।”
सड़क दूर-दूर तक सुनसान पड़ी थी।
वे लोग शहर में ही थे लेकिन ये शहर का दक्षिणी छोर था। दोनों ओर मकानों की कतारें चली गयी थीं। लोग-बाग घरों के भीतर गहरी नींद में थे। रात को दो-ढाई बजे कौन जागने वाला था।
हवा में मजे की ठण्डक थी।
नवम्बर के महीने में सर्दी अपने प्रथम चरण से थोड़ा आगे बढ़ चुकी होती थी।
दिलीप शाण्डिल्य ने हालात का जायजा ले लिया था। वो समझ गया था कि मामला जैसा नजर आ रहा है वैसा था नहीं। वो धीरे से हंसा फिर लापरवाही से बोला—“च...च...यही तुम लोगों ने गड़बड़ कर दी है। शायद तुम लोगों को मालूम नहीं है कि हम लोग किसी की भी धमकियां सुनने के आदी नहीं हैं। अब ये मामला उलझ गया है। तुम लोगों को अगर ये लड़की चाहिए तो पुलिस तक चलना होगा। पुलिस को इत्मीनान दिलाना होगा, प्रमाण देना होगा कि...।”
“तेरी तो...।” रिवॉल्वर वाला गुर्राकर गाली बकते हुए दिलीप शाण्डिल्य की ओर झपटा।
उसी समय बबूना का शरीर हवा में उछला था और तारोंपीडो की तरह रिवॉल्वरधारी की ओर आया था। उन पांचों में से किसी को ये पता नहीं था कि वो कितने खतरनाक लड़कों से जा टकराए थे।
वो व्यक्ति दो ही कदम बढ़ पाया था कि बबूना की लातें उसके शरीर से टकराई थीं। बबूना के शरीर ने कुशल नट की तरह कलाबाजी खाई और उस व्यक्ति के सड़क पर गिरते ही, वो उसके समीप पैरों के बल सीधा आया और रिवॉल्वर उस आदमी के हाथ से निकल गया। उसके बाद जो भी हुआ उसकी कल्पना बाकी के चारों में से किसी को नहीं थी।
वातावरण में एक के बाद एक पांच धमाके हुए। पांच ह्रदय विदारक चीखों ने सन्नाटे को थरथरा दिया। वे सब सड़क पर ढेर हो गये थे।
सब कुछ इतनी जल्दी हुआ था कि उन लोगों को हत्प्रभ रह जाना पड़ा था।
¶¶
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Additional information
Book Title | जमीन का खुदा : Zameen Ka Khuda by Sunil Prabhakar |
---|---|
Isbn No | |
No of Pages | 280 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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