यमराज मेरा यार
होटल नटराज के डायनिंग-हॉल में कुछ खास भीड़ नहीं थी उस वक्त।
बस यहां बीस लोग ही डिनर कर रहे थे।
यूं भी अभी डिनर का वक्त नहीं था। अभी तो शाम के सात ही बजे थे।
ऐसे में इतनी भीड़ होने की उम्मीद भी नहीं थी।
वहां जो डिनर कर रहे थे, वे या तो जल्दी डिनर करने के आदी थे, या फिर वो थेजिन्होंने दोपहर को कुछ खाया ही नहीं था।
उन्हीं में से दो अर्जुन त्यागी और गौरी थे—जो इस वक्त डिनर कर रहे थे।
अभी डेढ़-दो घण्टे पहले ही पहुंचे थे वे इस होटल में।
शामगढ़ में राजशेखर की सत्ता गोल कर उसके सिंहासन पर चौधरी को विराजमान कर दोनों रात को शोभा के यहां रहे थे।
रात को शोभा और गौरी दोनों के साथ एक ही बैड पर अर्जुन त्यागी ने परमानन्द सुख प्राप्त किया था। दोनों ने ऐसे-ऐसे पैंतरे दिखाये थे कि अर्जुन त्यागी का दिल बाग-बाग हो गया था। ऐसे जैसे गौरी और शोभा में मुकाबला हो रहा था कि कौन अर्जुन त्यागी को ज्यादा खुश कर सकता है।
पूरी रात अर्जुन त्यागी बारी-बारी से दोनों को खुश करता रहा था। और जब सुबह अर्जुन त्यागी और गौरी वहां से विदा हुए तो शोभा अर्जुन त्यागी से लिपटकर ऐसे रोई थी मानो वही उसका खसम हो।
अपने खसम को तो वह भूल ही गई थी—जो कुछ रोज के लिये बाहर गया हुआ था।
अब उस बेचारी को क्या मालूम था कि जिसे वह दिल से चाहने लगी थी, वह सिर्फ अपने मतलब के लिये ही किसी औरत से प्यार करता था—और मतलब पूरा होते ही औरत को ऊपर वाले के पास भेज देता था।
इस मामले में शोभा खुशकिस्मत रही थी कि वह बच गई थी।
सुबह नौ बजे ट्रेन में बैठे थे वे और शाम को पाँच बजे यहां राजनगर में पहुंचे थे।
स्टेशन से टैक्सी पकड़कर वे सीधा नटराज पहुंचे, कमरा लिया—एक घण्टा आराम किया और फिर नहा-धोकर सीधा डायनिंग-हॉल में आ पहुंचे।
सुबह से कुछ भी नहीं खाया था उन्होंने। ऐसे में भूख के मारे उनके बुरे हाल हो रहे थे।
गौरी ने चपाती का कौर तोड़ा और उसे चिकन में डुबोते हुए बड़े ही धीमे स्वर में बोली—
“तेरे दाईं तरफ एक आदमी बैठा है। मैं बड़ी देर से देख रही हूं उसे, वह हम पर कुछ ज्यादा ही तवज्जो दे रहा है।”
अर्जुन त्यागी ने रोटी का टुकड़ा मुँह में डालकर उसे चबाते हुए गहरी निगाहों से उधर देखा।
उनसे एक टेबल छोड़कर अगली टेबल पर करीब पैंतीस साल का साधारण कद-बुत का व्यक्ति बैठा था। जिसने जीन्स और टी-शर्ट पहन रखी थी।
उसके बाल छोटे और घुंघराले थे—माथे पर परमानेंटली बल पड़े हुए थे—जो उसे अच्छे भी लग रहे थे। सचमुच वह उन दोनों को ही देख रहा था।
खासकर अर्जुन त्यागी को।
जैसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो।
“लगता है हमें पहचान गया है यह।” वह गौरी की तरह ही धीमी आवाज में बोला।
“फिर?”
“फिर क्या—खाना खाते हैं और बाहर निकल चलते हैं। अगर यह हमारे पीछे लगा तो इसकी बदकिस्मती।”
“ध्यान रखना, कहीं पुलिस का मुखबिर न हो।”
“हो भी सकता है और नहीं भी। तू खाना खा।”
रोटी का टुकड़ा तोड़ते हुए बोला अर्जुन त्यागी और ऐसे दर्शाने लगा—जैसे वह पूरी तरह से लापरवाह हो।
लेकिन भीतर से वह पूरी तरह से सतर्क हो उठा था।
किसी भी खतरे का सामना करने के लिये पूरी तरह से तैयार।
उसकी तरह गौरी भी सावधान हो गई थी।
तभी वह आदमी उस ओर उन दोनों की टेबल की तरफ बढ़ा।
वह उनके करीब आया तो दोनों उसे प्रश्न-भरी नजरों से देखने लगे।
मगर भीतर से वो पूरी तरह से सावधान थे।
वह आदमी मुस्कुराया और एक कुर्सी खींचकर उनके बीच बैठ गया।
“क्या बात है मिस्टर?” तभी गौरी नाराजगी भरे अंदाज में बोली—“पूरा हॉल खाली पड़ा है—देख नहीं रहे, हम खाना खा रहे हैं।”
जरा भी नहीं बौखलाया वह आदमी—बल्कि उसके होंठों पर फैली मुस्कान और भी फैल गई।
“तुम कुछ नहीं कहोगे अर्जुन त्यागी?” उसने अर्जुन त्यागी को देखा।
“अर्जुन त्यागी?” अर्जुन त्यागी के माथे पर बल पड़ गये—“कौन अर्जुन त्यागी? मिस्टर—मेरा नाम रमेश भारद्वाज है। आप किसी और के धोखे में मुझे देख रहे हैं।”
हौले से हँसा वह आदमी—“अगर तुम अर्जुन त्यागी नहीं हो तो मैं डग्गू नहीं हूं।”
“डग्गू?”
“हां, मेरा नाम डग्गू है। वैसे तो मेरा नाम देवेन्द्र है—लेकिन लोग मुझे डग्गू के नाम से जानते हैं।”
“डग्गू हो या बग्गू—हमें उससे क्या लेना, आप प्लीज जाइये और हमें आराम से खाना खाने दें।”
मुँह बनाया अर्जुन त्यागी ने।
“सौ करोड़ का मामला है।”
“क्या मतलब?”
“डेढ़ सौ करोड़ भी हो सकता है।” डग्गू मुस्कुराया—“लेकिन पहले तुम कबूल करो कि तुम अर्जुन त्यागी हो।”
अर्जुन त्यागी ने गौरी की तरफ देखा।
“मामला क्या है?” गौरी बोल पड़ी।
डग्गू ने गौरी की तरफ देखा और मुस्कुराया—“पहले कबूल तो करो।”
“किया।” गौरी गम्भीरता से बोली।
“क्या किया?”
“यही कि यह अर्जुन त्यागी है।”
“और तुम गौरी। अर्जुन त्यागी की जोड़ीदार।”
“वो भी। अब बोलो—मामला क्या है?”
डग्गू ने पहले सावधानी से इधर-उधर देखा—फिर सर को टेबल के ऊपर कर धीमे स्वर में बोला—“दो मूर्तियाँ चुरानी हैं।”
“मूर्तियाँ?”
“राधा और कृष्ण की मूर्तियाँ। अष्ट धातु की बनी वे मूर्तियाँ नौ सौ साल पुरानी हैं।”
“कहां पर हैं वो मूर्तियाँ?”
“एक मन्दिर में।”
“मन्दिर कहां है?”
“सब कुछ यहीं बैठकर बता दूं, क्या?” हौले से हँसा डग्गू—“बस इतना जान लो कि उन मूर्तियों की सुरक्षा-व्यवस्था इतनी तगड़ी है कि हम हर साधन होते हुए भी कुछ नहीं कर पा रहे। सो हमने हारकर उन्हें चुराने का इरादा छोड़ दिया।
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