तू शेर मैं बकरी
'धाय…।’
असावधानीवश हाथ से छूटकर फर्श पर जा गिरे रूमाल को उठाने के लिये मैं नीचे झुकी ही थी कि गोली चली।
मैं उछल पड़ी।
कोई तूफानी चीज मेरी पीठ को हवा देती गुजर गई थी।
जाते समय उसने जिस तपिश का अहसास मुझे कराया था, उससे मैं अच्छी तरह परिचित थी।
जीवन में ऐसे न जाने कितनें अवसर आये थे, जब मैं इन रोमांचक क्षणों से दो-चार हुई थी।
जी हां, वह गोली ही थी, जो मेरी रीढ़ की हड्डी को तपिश देती गुजरी थी। साफ जाहिर था कि ऐन वक्त पर अगर मैं संयोग के अधीन होकर झुक न गई होती तो वो गोली मेरे सीने में घुसकर पनाह का स्थान तलाश कर रही होती।
अगल-बगल खड़े लोग चौंके।
साथ ही मेरे पीछे किसी औरत की घुटी-घुटी-सी चीखें गूंजीं।
किन्तु मुझे उनकी ओर ध्यान देने का अभी वक्त न था।
मैंने स्वयं को फौरन नीचे गिराया।
जिससे कि अगर फायर पुनः हो तो मैं सुरक्षित रह सकूँ।
किन्तु वैसा कुछ न हुआ।
सेकेण्ड मात्र में मेरी गर्दन उधर घूमी, जिधर से फायर हुआ था।
अगले ही पल मेरी आंखें सिकुड़ती चली गई थीं।
एक थम्ब की ओट में मुझे एक दस्ताने-युक्त कलाई सिमटती नजर आई थी।
मैंने फर्श पर पड़े-पड़े ही उधर जम्प लगाई।
स्पष्ट था कि मैं अपने फार्म में आ चुकी थी। या फिर यूं कहा जाये तो उचित होगा, कि मुझे ऐसा करने पर विवश होना पड़ा था।
सच भी था।
मैं उस समय एक क्लब में मौज-मस्ती के इरादे से मौजूद थी।
स्टार क्लब क्या था, उस क्लब का जिसके हॉल में मैं मौजूद थी।
वहां का कैबरे गजब ढा रहा था, इसलिये नौ बजते-बजते वहां की सीटें फुल हो जाती थीं।
कुछ वैसा ही आज भी था। अधिकांश सीटें भर चुकी थीं। जो बची थीं, उनमें से अधिकांश पर 'रिजर्व' की तख्ती रखी हुई थी।
खाली सीट तलाशने के पूर्व मैंने एक पैग गले के नीचे उतारना मुनासिब समझा था कि गोली चलने का हादसा हो गया था।
मैंने पैमाना खाली करके टेबल पर रखा था और होंठ साफ करके जेब से रूमाल निकाला था, किन्तु अचानक रूमाल हाथ से छूटकर नीचे जा गिरा था...और उसे उठाने के लिये मेरा झुकना ही वरदान साबित हुआ था।
अगर इस काम में जरा-सी भी चूक हो गई होती तो मेरा नाम इस संसार से अपना टिकट कटाकर दूसरे लोक में अपना रिजर्वेशन करा रहा होता।
हवा में तैरते हुए मैंने उधर देखा था, जिधर चीख गूंजी थी, तो पाया कि मेरी तरह स्टूल पर बैठकर व्हिस्की पीने वाली एक महिला दायें हाथ में अपना बायां हाथ भींचे ‘ब्रेक डांस’ कर रही थी।
मुझे सन्तोष का अनुभव हुआ।
गोली उसके कन्धे में लगी थी, इसलिये उसकी जान जाने का कोई खतरा न था। इसलिये मैंने अपना पूरा ध्यान उस शख्स पर केन्द्रित कर दिया जिसकी झलक मुझे एक थम्ब के पीछे मिली थी।
मैं थम्ब के निकट सीधी खड़ी हुई और थम्ब की बैक में देखा।
जैसा कि स्वाभाविक था वहां कोई नहीं था....मैंने दृष्टि आसपास घुमाई। पिछवाड़े वाले मिनी गेट की ओर एक साया अन्धाधुन्ध भागा जा रहा था।
मैं उधर ही भागी।
आगे मोड़ था, इसलिये मोड़ मुड़ने के पूर्व ही मैं उसे धर लेना चाहती थी।
ऐसा करना स्वाभाविक भी था।
कारण यह कि मैंने बहुत जल्द एक्शन ले लिया था। साथ ही मैंने लक्ष्य किया था कि वह कुछ लंगड़ाकर भाग रहा था तथा उसकी लंगड़ाहट बायीं टांग में थी।
मैं आंधी-तूफान की तरह दौड़ी।
मेरा रिवॉल्वर मेरे हाथ में आ चुका था।
सहसा मेरा रिवॉल्वर वाला हाथ सीधा हुआ।
स्पष्ट था कि मैं उसके मोड़ तक पहुंचने का रिस्क नहीं उठाना चाहती थी।
मैंने उसकी उस टांग का निशाना लिया जो कि शायद फ्रैक्चर युक्त थी, किन्तु तभी !
वहां मची भगदड़ का एक रेला-सा बीच में आ गया।
मुझे रुक जाना पड़ा।
वहां चली गोली से भगदड़ मच चुकी थी और लोग आगे-पीछे दोनों रास्तों से भाग रहे थे।
रेला गुजरते ही मैंने देखा
वह अदृश्य हो चुका था।
कदाचित् वह मोड़ मुड़ चुका था।
मैं भागती हुई मोड़ पर पहुंची।
किन्तु अगले ही पल मुझे रुक जाना पड़ा।
कारण यह कि मोड़ के पार कोई न था।
मेरा माथा ठनका।
यह एक प्रकार से अस्वाभाविक-सी बात थी। इतनी जल्दी वह उस गलियारे को पार नहीं कर सकता था।
तत्काल मेरी समझ में आ गया।
निश्चित रूप मे उसने मौके का फायदा उठाया और उसी भीड़ में शामिल हो गया था।
मैं भागी। उधर, जिधर वे लोग गये थे।
मगर !
उधर जनसंख्या बढ़ती ही जा रही थी। लोग अंधाधुन्ध सिर पर पांव रखकर भाग रहे थे।
मुझे किंचित आश्चर्य के साथ खीज-सी महसूस हुई।
क्या होता जा रहा है हम सबको ? होशो-हवास गंवाकर वे उस ओर भाग रहे थे, जिधर हमलावर गया था, किन्तु हमें अपने प्राण की इतनी जबरदस्त फिक्र पड़ी थी कि हम हमलावर की ओर ध्यान ही न दे रहे थे।
मेरी नजरें उसे ढूंढती रहीं...साथ ही मैं भागती रही।
किन्तु वह नजर न आया।
मैं पिछले गेट पर पहुंची।
वहां अन्दर से लोग बाहर की ओर निकल रहे थे, किन्तु वो व्यक्ति कहीं नजर न आ रहा था।
पीछे चालू सड़क थी।
ट्रैफिक जारी था, ऐसे में तब तक उस ओवरकोटधारी को ढूंढना असम्भव था, जब तक कि वह नजर आने के साथ-साथ पहचान में न आ जाता।
फिर भी मैंने भाग-दौड़ की।
किन्तु परिणाम वही ढ़ाक के तीन पात ! उसे न नजर आना था...न ही नजर आया।
मैं वापस भीतर की ओर चल पड़ी।
इसके सिवा चारा भी क्या था।
¶¶
मैं भीतर पहुंची।
भीतर का नजारा ही कुछ और था। पूरा हॉल लगभग खाली पड़ा था।
स्पष्ट था कि हॉल की पूरी गहमागहमी गोली चलते ही रफू-चक्कर हो चुकी थी।
वहां जहां महिला को गोली लगी थी, वहां चन्द साहसी कस्टमरों की भीड़ लगी थी। उनमें होटल का स्टाफ भी शामिल था।
औरत अभी भी चीख रही थी।
“घबराइये नहीं...!” होटल का मैंनेजर घबराया-सा बोला— “पुलिस आती ही होगी।”
“पुलिस इनका इलाज नहीं कर सकती !” मैं तनिक खुश्क स्वर में बोली थी—“इन्हें हॉस्पिटल पहुंचाइये।”
“ओह ...हां...।” उसे जैसे होश आया—“नर्स....स्ट्रेचर लाओ।”
उसके इस लहजे पर दो युवक मुस्कुराये और फिर...!
आनन-फानन में एक सीढ़ी को स्ट्रेचर के रूप में इस्तेमाल किये जाने योग्य बना लिया गया।
वे औरत को लेकर बाहर गये।
“गोली इन्हीं पर चलाई गई थी।” एक बेयरा मैंनेजर से कंपित स्वर में बोला था।
“आप...पर… !” मैंनेजर मेरी ओर घूमा था—“आप पर किसने चलाई गोली ? क्यों चलाई?”
“मिस्टर !” मैं उखड़े स्वर में बोली—“मैं तुम्हारे क्लब में हूं, अगर यह मैं पूछूं कि मुझ पर गोली किसने चलाई ? क्यों चलाई तो ?”
प्रत्युत्तर में उसके मुंह पर अलीगढ़ी ताला झूल गया।
होंठ कांपते ही रह गये।
“उसका कद लम्बा था।” मैंने कहना शुरू किया—“लम्बा कद व शरीर पर खड़े कॉलर वाला ओवरकोट व खोपड़ी पर उसने फैल्ट कैप चढ़ा रखी थी। क्या उसे किसी ने यहां देखा था ?”
“…।”
प्रत्युत्तर में वहां सन्नाटा छा गया।
“ऐसे हुलिये के लोग तो यहां बहुतेरे मिल जायेंगे मिस !” वह रिसैप्शनिस्ट बोली— “सर्दी का मौसम है। आज बारह दिसम्बर है। बाहर कड़ाके की ठण्ड पड़ रही है।”
“इसके अतिरिक्त उसकी एक खास पहचान भी है।”
“खास पहचान ?”
“हां, वह बायीं टांग से थोड़ा लंगड़ाकर चलता है।”
“ओह…!”
“पूरे स्टाफ को एकत्र करके पता करो। शायद उसको किसी ने देखा हो ? उसकी लंगड़ाहट के कारण उसकी शक्ल पर किसी ने गौर किया हो ?”
“जी...बहुत अच्छा...किन्तु आप… !” मैंनेजर सकपकाया।
और फिर मैं उसका हाथ पकड़कर एक ओर ले गयी।
उसके हाथ पर अपना आई○ कार्ड रखा।
उसने कार्ड पर दृष्टि डाली और चिहुंक पड़ा।
“आप...आप रीमा जी… !” उसके मुंह से बेसाख्ता निकला—““स...समझ गया”।
“क्या समझे ?”
“य...यही कि आप इण्डियन सीक्रेट कोर (आई.एस.सी.) की तेज-तर्रार नम्बर वन जासूस रीमा भारती हैं । वो रीमा भारती जिसके नाम से दुश्मन खौफ से थर-थर कांपते हैं।”
“तुम्हें कैसे मालूम…?” मैंने दिलकश मुस्कान के साथ पूछा था।
“स...सुना है कि।” वह किंचित हड़बड़ाकर बोला— “सबको अच्छी तरह मालूम है कि आपका जिक्र ही देशद्रोहियों व मुजरिमों के छक्के छुड़ा दिया करता है, वहीं निर्दोषों के सीने फख्र से चौड़े हो जाया करते हैं।”
“अगर ये बातें तुम्हें मालूम ही हैं तो तुम बिजली हो जाओ... बाहर चौकीदार या अन्य स्टाफ से जानकारियां—।”
“मैं समझ गया।”
“पुसिस को फोन किया ?”
“जी हां, वह आती ही होगी।”
“गुड, तुम पूरे स्टाफ को एकत्र करो... मैं स्वयं वहां पहुंचती हूं।”
और फिर वह चला गया।
उसके जाने के बाद मैं घूमी ही थी कि सामने से एक पुलिस इंस्पेक्टर दल-बल समेत आता चमका।
मैंने पुलिस इंस्पक्टर के चेहरे पर निगाह डाली तो मेरे होंठों पर मुस्कान रेंग गई।
वह युवा इंस्पेक्टर हेमन्त था।
हेमन्त !
जो कि संयोगवश पढ़ाई के अन्तिम वर्ष में मेरा क्लासफैलो रहा था।
उसके बाद हम दोनों के रास्ते अलग-अगल हो गये थे।
“आप... !” मुझ पर दृष्टि डालते ही वह आंखें फाड़कर बोला— “आप यहां रीमा जी !”
“हां।” मैं हौले से मुस्कुराकर बोली— “मुझे तो यहां रहना ही था... कारण यह कि हमला मुझ पर ही हुआ था।”
“क... क्या... ?” इंस्पेक्टर हेमन्त की आंखें गोल हो गई थीं।
“यही सच है। गोली मुझ पर ही चलाई गई थी।”
“वह तो होना ही था।”
“व्हाट ?” मैं चौंकी थी।
“यस रीमा जी ! पहले जब आप जैसी रूपसियां बाहर निकलती थीं, तो लाठी-भाले, छुरियां चलती थीं, किन्तु अब ये सारे हथियार बेमानी हो चुके हैं। लाठी आदि लोग घर में केवल कुत्तों को भगाने के लिये रखते हैं। छुरियों का काम केवल किचन तक सीमित रह गया है। ऐसी सूरत में गोलियां तो चलेंगी ही।”
“मिस्टर हेमन्त... !” मेरा स्वर शुष्क हो उठा था।
“यस मैडम !” मजाकिया स्वभाव का हेमन्त गम्भीर हुआ था।
“तुम इंस्पेक्टर हो, ये बात तुम हमेशा याद रखोगे।”
“बेशक ! याद है, तभी मैंने अपनी राय पेश की है। फिलहाल गोली किसी को लगी तो नहीं ?”
“लगी।”
“क्या ?”
“एक महिला जिसका नाम सुचित्रा सान्याल है। अभी थोड़ी देर पहले लोग उसे हॉस्पिटल लेकर गये हैं।”
“यानि कि चोर का कुछ नहीं बिगड़ा और गर्दन टूटी मुल्ला की।”
“इंस्पेक्टर…!” मैंने रोषभरी नजरों से उसे घूरा—“तुम्हारा मतलब यह कि मुझे मर जाना चाहिए ?”
“जी हां।”
“ऑफिसर !”
“किन्तु हम जैसों पर आप मिटें तो अच्छा होगा...हम जैसों की जिन्दगी संवर जायेगी।” उसने आदतन फिर बकवास की थी।
“लगता है, मुझे अपना आई○ कार्ड तुम्हें दिखाना होगा, तभी तुम्हारी अक्ल ठिकाने आयेगी।”
“ओह नो… ! उसे जेब में ही रहने दीजिये। उसकी झलक से ही दहशत-सी होती है। फिलहाल माफ कीजियेगा...मैंने इतना इसलिये कहा कि मैं आपका क्लासफैलो रह चुका हूं और यही वजह है कि मुझे आपकी गुप्त पोस्ट के बारे में भी मालूम है।” उसने कहा।
स्पष्ट था कि क्लासफैलो होने के कारण वह अपने मजाकिया स्वभाव को जारी रखने का लाईसेंस चाहता था।
तभी मैंनेजर विक्टर आ गया।
“मैंने पूरे स्टाफ को इकठ्ठा कर लिया है।” उसने बताया— “बाहर खड़े रहने वाले दरबान ने हमलावर को लक्ष्य किया था।”
“व्हाट !”
मैं चौंकी।
“जी हां, वह भी उसकी लंगड़ाहट के कारण।”
“ओह…! आइये चलें…।”
कहने के साथ ही मैं घूम गई थी।
रास्ते में मैंने हेमन्त को सब कुछ बता दिया था।
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