सुलग उठा सिन्दूर
वेद प्रकाश शर्मा
"लो दीपा, कल शहर में एक और बड़ी डकैती पड़ गई!”
किचन में चाय बनाती दीपा ने पूछा—"कहां?"
"कचहरी में।" सोफे पर अधलेटी अवस्था में पड़े देव ने नजरें अखबार पर जमाए हुए बताया—"तीन लुटेरे एक मैटाड़ोर में आए, रिवॉल्वरों की नोक पर ट्रेजरी लूट ली—गार्ड़ और अन्य कर्मचारी हक्के-बक्के से मूर्ति बने सबकुछ देखते रहे और लुटेरों ने दस लाख के नोटो से भरा एक सन्दूक मैटाड़ोर में रख लिया।"
"ऐसे मौकों पर कोई कर भी क्या सकता हैं?" किचन और ड्राइंगरूम के बीच बने मोखले से दीपा की आवाज निकली—"सबको अपनी जान प्यारी होती है, गुण्ड़े-मवालियों के लिए किसी को मार डालना क्या मुश्किल काम है?"
"ऐसी बात नहीं है, आखिरी समय में ही सही, मगर ट्रेजरी के एक गार्ड़ ने बहादुरी दिखाई।"
"क्या किया उसने?"
"सन्दूक को मैटाड़ोर में रखने के बाद लुटेरे फरार होने वाले थे कि गार्ड़ ने अपनी गन से गोली चला दी—एक लुटेरा वहीं ढेर हो गया, दूसरी गोली चलई तो दूसरे लुटेरे की जांघ में लगी, परन्तु फिर भी वह सन्दूक सहित मैटाड़ोर लेकर फरार हो गया—लोग मैटाड़ोर के पीछे भागे, वह तो खैर उनके हाथ क्या आनी थी—इस अफरा-तफरी में तीसरा लुटेरा भी जाने कहां गुम हो गया?"
"पिछले कुछ दिनों से शहर में कोई गिरोह आया लगता है!" हाथ में कप-प्लेट लिए, नाइट गाउन पहने दीपा ड्राइंगरूम में प्रविष्ट होती हुई बोली—"आए दिन लूट-पाट, चोरी और हत्याएं हो रही हैं।"
"पुलिस ने मैटाड़ोर या दोनों में से किसी भी लुटेरे का पता बताने वाले को दस हजार रुपये देने की घोषणा की है।"
"तुम्हारे मुंह में पानी क्यों आ रहा हैं, तुम्हारे हाथ तो ये दस हजार लगने से रहे—लो, चाय पियो!"
"ठीक कहती हो तुम, हमारी ऐसी किस्मत कहां?" देव ने अखबार सेंटर टेबल पर डाला और सीधा बैठकर कप-प्लेट लेता हुआ बोला—"सिर्फ एक चाय बनाई है?"
"जी हां।" दीपा उसके सामने वाले सोफे पर बैठ गई।
"क्यों?"
"आज मैं मंदिर जाकर भगवान के दर्शन करने से पहले कुछ नहीं लूंगी।"
दीपा के सुन्दर चेहरे पर नजरें टिकाएं देव की आंखों में एकाएक शरारत नाच उठी, बोला—"तुम तो कहती थीं कि तुम्हारे भगवान हम हैं?"
"बेशक पत्नी के लिए उसका पति भगवान ही होता है।"
चाय की चुस्की लेते हुए देव ने कहा—"फिर यह मंदिर में रहने वाला भगवान कहां से टपक पड़ा?"
"वह भगवान नम्बर एक है, क्योंकि सबका है—और तुम भगवान नम्बर दो हो, क्योंकि सिर्फ मेरे हो—मैं आज उस भगवान के दर्शन करने से पहले पानी भी नहीं पियूंगी, जिसने ठीक आज के दिन तुम्हें मेरा भगवान बनाया।"
"वह भगवान नम्बर एक तो पैसा हैं दीपा, दौलत—मंदिर में रहने वाले तुम्हारे भगवान का नम्बर दूसरा है और इस हिसाब से मेरा नम्बर...।"
"द—देव।" दीपा चीख-सी पड़ी।
"ओह, सॉरी—बुरा मान गई!" सकपकाकर कहने के बाद उसने जल्दी-जल्दी चाय पीनी शुरू कर दी, जबकि दीपा के दूध से गोरे, गोल मुखड़े पर नागवारी के चिन्ह थे मगर बोली कुछ नहीं—चाय पीता हुआ देव बीच-बीच में उसे कनखियों से देखता रहा।
दीपा अखबार उठाकर ट्रेजरी में डाके की न्यूज पढ़ने लगी।
चाय खत्म करके देव ने कप-प्लेट टेबल पर रखे ही थे कि दीपा ने उखड़े स्वर में हुक्म जारी कर दिया—"जल्दी से नहा-धोकर तैयार हो जाओ।"
"ओह, तुम तो तब तक नाराज हो दीपा डार्लिंग!" कहता हुआ देव उठा और उसके नजदीक पहुंचकर बोला—"कम-से-कम आज तो नाराज मत हो, आज हमारी पहली मैरिज एनीवर्सरी है।"
"तो तुम ऐसी बात ही क्यों करते हो देव?" उसने पलकें उठाकर शिकायत की—"तुम अपने दिमाग से दौलत का भूत उतारकर फेंक क्यों नहीं देते?"
"छोड़ो दीपा, आज हमें किसी बहस में नहीं पड़ना चाहिए!" कहते हुए देव ने उसके समीप बैठकर, कमल-सा मुखड़ा हथेलियों के बीच लिया और उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में झांकता हुआ बोला—"यह बताओ कि आज मंदिर जाकर तुम अपने भगवान नम्बर एक से क्या मांगने वाली हो?"
दीपा के मन में न जाने क्या विचार उठा कि पलकें लाज के बोझ से स्वयं झुकती चली गईं और चेहरा शर्म से सुर्ख हो गया—दीपा की इस अदा पर देव को इतना प्यार आया कि उसने होंठ आगे बढ़ाकर गुलाब की पंखुड़ियों को चूम लिया।
सुर्खी कनपटियों तक फैल गई, नेत्र बन्द हो गए।
"दीपा!"
प्रेम-सागर में डूबी दीपा के मुंह से निकला—"हूं!"
"जवाब नहीं दिया तुमने, क्या मांगने जा रही हो भगवान से?"
पलकें उठी, चमचमा रही आंखों में चंचलता उभर आई, बोली—"मन चाहे देवता से शादी के एक साल बाद कोई नेत्री भगवान से क्या मांग सकती है?"
"जानना चाहता हूं।"
"कृष्ण-कन्हैया जैसा शैतान, एक नन्हा-सा देव।"
"न—नहीं।" देव अचानक चीखकर एक झटके से खड़ा हो गया।
दीपा चौंक पड़ी, असमंजस में फंसी वह देव को अभी देख ही रही थी कि चेहरे पर पूरी सख्ती और दृढ़ता लिए देव ने कहा—"अभी हमें कोई बच्चा नहीं चाहिए।"
"क्यों?
"क्योंकि हम ठीक से उसकी परवरिश नहीं कर सकते।"
"कैसी बात कर रहे हो देव?"
"मैं ठीक कह रहा हूं दीपा!" वह पलटकर उसकी आंखों में झांकता हुआ बोला—"जब तक ठीक से मैं कुछ कमाने नहीं लगता, तब तक किसी नए मेहमान को इस दुनिया में लाकर हमें उसकी जिन्दगी बरबाद करने का कोई हक नहीं है।"
"फिर वही बात देव कितनी बार कहूं कि जो तुम कमाते हो वह हमारे लिए काफी नहीं बल्कि बहुत है—बैंक में क्लर्क हो तुम, बारह सौ रुपये महीना क्या कम होता है?"
"हुं!" देव ने नफरत से मुंह सिकोड़ा—"बारह सौ रुपये—बारह सौ रुपये महीना कम होते हैं दीपा, एक आदमी उनसे क्या कर सकता है?"
"हजार बार कह चुकी हूं, इस तनख्वाह में कोई भी व्यक्ति अपने परिवार को इज्जत की रोटी खिला सकता है—सम्मानपूर्वक हंसते-खेलते जिन्दगी गुजार सकता है।"
"बस?"
"और आदमी को चाहिये भी क्या?"
"तुम्हें नहीं मालूम दीपा, मैं जानता हूं कि मुझे क्या चाहिये?" अजीब उत्तेजना में फंसा देव-कहता चला गया—"जरा सोचो, आज मेरी उम्र पच्चीस साल हैं—साठ साल की आयु में रिटायर कर दिया जाऊंगा यानी जिन्दगी के सिर्फ पैंतालीस साल बाकी बचे हैं और इन पैंतीस सालों में कुल मिलाकर बैंक मुझे पांच लाख चार हजार रुपये देगा—सिर्फ पांच लाख रुपये—अगर कछुवे की चाल से बढ़ने वाला 'इंक्रीमेण्ट' भी इसमें जोड़ दिया जाये तो ज्यादा-से-ज्यादा छः लाख कमा लूंगा—यानी मेरी सारी जिन्दगी की कमाई कुल मिलाकर सिर्फ छः लाख होगी, जबकि शादी के बाद मैंने तुम्हें जिस कोठी की मालकिन बनाने की कल्पना की थी उसकी कीमत 'आज' आठ लाख है।"
"द—देव!" दीपा का स्वर कांप गया।
"तुम्हारे गले मे हीरो का हार, कलाइयों में कंगन तो क्या नाक में नथ और कानों में सोने के बुन्दे तक नहीं हैं!" भवावेश के भंवर में फंसा देव कहता चला गया—"नहीं दीपा, मेरी कल्पनाओं में तुम्हें चार-पांच सौ रुपल्ली की साड़ी नहीं पहननी थी।"
एकटक उसे देख रही दीपा ने कहा—"जब से शादी हुई है, तब से तुम अपनी इन्हीं कल्पनाओं को पूरा करने के लिए दीवाने हुए जा रहे हो, जबकि मैं लगातार कहती आ रही हूं कि तुम्हारी इस गुड़या को कुछ नहीं चाहिए—मुझे तुम मिल गये, सबकुछ मिल गया हैं देव—सबसे बड़ी दौलत मिल गयी है मुझे—मेरे लिए तुम्हीं सबकुछ हो—कंगन, नथ, बुन्दे और गले का हार भी—देखो, मेरे मस्तक पर जगमगाते इस सिन्दूरी सूरत को देखो—मेरी मांग में चमचमा रही सिन्दूर की सुर्खी को देखो देव—इस सबकी मौजूदगी में मैं सड़क पर इतराती चला करती हूं—तुमने इतना दिया हैं कि मैं निहाल हो गई हूं—इससे ज्यादा मुझे कुछ नहीं चाहिए।"
"मुझे चाहिए!" देव दांत भींचकर कह उठा—"मुझे तुम्हारे लिये समुद्र के किनारे पर बना एक बंगला चाहिए, चमचमाती विदेशी कार, नौकर-चाकर—हीरों से जड़ी तुम और तुम्हारे साथ आकाश में परवाज करता मैं—तब हमारे पास एक नन्हा-सा राजकुमार होना चाहिए, ऐसा—जिसकी परवरिश हम जैसे चाहें कर सकें।"
"प-प्लीज देव!" दीपा कराह-सी उठी—"ऐसे सपने मत देखो!"
"ये मेरे सपने ही नहीं मनसूबे भी हैं, ऐसे मनसूबे जिन्हें किसी भी हालत में एक दिन मैं पूरे करके रहूंगा!"
दीपा ने हृदय में उठी दर्द की तीक्ष्ण लहर को दबाते हुए कहा—"निगेटिव ढंग से सोचने के अपने इस अंदाज में सुधार करो देव—जरा यह भी तो सोचो कि इस दुनिया में तुमसे ज्यादा कमाने वाले कम हैं और कम कमाने वाले ज्यादा—वे भी हंसी-खुशी रहते हैं, जितने मिलता है वह उसी को खुशी के साथ भोगकर जी रहा है।"
"हुं—जी रहा है—तुम उसे जीना कहती हो दीपा, वे जी नहीं रहे, बल्कि रेंग रहे हैं—हमारी तरह गन्दी नाली में रेंगते हुए कीड़े हैं वे—जरा सोचो, जिस मकान में हम रह रहे हैं वह मेरे एक दोस्त का है—अपने परिवार सहित कनाड़ा चला गया है वह, हमें इसका कोई किराया नहीं देना पड़ता, कल अगर वह लौट आया तो हमें मकान खाली करना पड़ेगा—ऐसा मकान पांच सौ रुपये से कम में नहीं मिलेगा—क्या बाकी सात सौ रुपये महीना में हम 'जी' सकेंगे?"
अवाक् रह गयी दीपा!
अपने पति के चेहरे पर उसकी नजरें इस तरह गड़ी हुई थीं, जैसे किसी अजनबी को देख रही हो, बोली—"जब तुम ऐसी बातें करते हो देव तब लगता है कि दो साल से तुम्हें जानने के बावजूद मैं तुम्हारे बारे में कुछ नहीं जानती।"
"क्या मतलब?"
"एक तरफ आज से ठीक एक साल पहले तुमने मेरे लिए अपने दौलतमन्द पिता से विद्रोह कर दिया—उनकी इच्छा के विरुध्द मुझसे शादी की, उनकी दौलत को ठुकराकर मेरे साथ अलग रहने लगे और दूसरी तरफ दौलत के प्रति तुम ऐसी दीवानगी-भरी बातें करते हो, क्या यह विरोधाभास नहीं है?"
"हो सकता है, मगर मैं सिर्फ तुम्हारा दीवाना हूं दीपा—तुम्हारे लिए, तुम्हारी खुशी के लिये मैं कुछ भी कर सकता हूं—मेरा बाप फौज में कर्नल क्या है कि वह घर में भी फौज जैसा अनुशासन चाहता था—चाहता था कि घर में भी उसके मुंह से निकलने वाला हर लफ्ज 'हुक्म' बन जाए—मैंने सबकुछ सहन किया, किन्तु तुमसे जुदाई नहीं—तुम्हारे लिए मैंने उसके हुक्म और दौलत को ठोकर मार दी—मैंने कोर्ट में तुमसे शादी की, उसने मेरे लिये अपने सरकारी बंगले के दरवाजे बन्द कर दिये और आज भी, मेरा हर मनसूबा, हर ख्वाब सिर्फ तुम्हारे लिये है दीपा, सिर्फ तुम्हारे लिये!''
"और तुम्हारे इन्हीं मनसूबों से मुझे डर लगता है।"
"डर कैसा?"
"जब अकेली होती हूं तो अजीब-अजीब शंकायें घेर लेती हैं मुझे—यह सोचकर कांप उठती हूं कि मेरे प्रति तुम्हारे प्यार की यह दीवानगी, मुझे हीरों से जड़ देने की यह ललक कहीं तुम्हें किसी गलत रास्ते पर न ले जाये—कहीं तुम कोई ऐसा काम न कर बैठो, जिससे हमारी जिन्दगी तबाह हो जाये!"
"ऐसे बेहूदे ख्याल अपने दिमाग में न लाया करो, मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा जैसा ट्रेजरी के इन लुटेरों ने किया है—भले ही आज मैं अपने बाप से अलग रहता हूं—मगर मुझे उसकी इज्जत और तुम्हारा ख्याल है, मै कोई गुण्ड़ा-मवाली नहीं कर्नल का बेटा हूं!"
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