सबसे बड़ा शैतान
सुनील प्रभाकर
इंस्पेक्टर सत्यवीर राणा ने सामने खड़े युवक को खा जाने वाली दृष्टि से देखा और लगभग गुर्राता-सा बोला—“तेरा नाम?”
“चक्रेश काली।”
“क्या किया तूने?”
“व...वो...एक सड़क चलती लड़की को छेड़ दिया—लड़की हमारे रसूख से वाकिफ नहीं थी, इसलिए उसने हंगामा कर दिया। परिणामस्वरूप वहां ढेर सारी पब्लिक एकत्र हो गई और इससे पहले कि हम परिचय दे पाते...।” उसने दो साथी युवकों की ओर संकेत किया था—“पब्लिक ने हमारी पिटाई आरम्भ कर दी। हम बहुत चीखे-चिल्लाए—परिचय दिया किन्तु किसी ने एक ना सुनी। वो तो शुक्र ऊपर वाले का की पुलिस पहुंच गई और हमारी जान बच गई वरना हमें सिंहासन पर बैठाने वाली ये जनता पीट-पीटकर हमारा दम निकाल देती।”
“तूने—लड़की को छेड़ा...?”
“तमीज से बात करो इंस्पेक्टर...! मैं कोई ऐरा-गैरा नहीं वरन् मन्त्री रामनारायण काली का भतीजा हूं। रहा सवाल लड़की का, तो लड़की चीज ही छेड़े जाने की होती है। खास तौर पर खूबसूरत लड़की। कोई लड़के को थोड़े ही छेड़ेगा?”
“त...तो तू...तो मन्त्री जी का भतीजा है?”
“हां।” युवक ने सीना चौड़ाया था—“इस नाते ऐसी हरकतें करने का हमें जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त है। बोलो हमें छोड़ने के एवज में कितनी रकम...?”
“तो तू मन्त्री जी का भतीजा है?”
“हां।”
“भड़ाक...!”
तभी इंस्पेक्टर सत्यवीर राणा का हाथ घूमा और घूंसे की शक्ल में चक्रेश काली के जबड़े से टकराया।
घूंसा हिमालय से भी वजनी था।
चक्रेश काली चीखता हुआ दीवार से जा टकराया।
गिरा तो पलकें झपका रहा था।
इंस्पेक्टर राणा निकट पहुंचा।
उसने दांत भींचते हुए उसकी कमर में ठोकर जमाई।
वो दर्द से बिलबिलाकर दोहरा हो गया।
“इ...इंस्पेक्टर...!” चीखा था वो—“ये तुम ठीक नहीं कर रहे हो।”
प्रत्युत्तर में इंस्पेक्टर सत्यवीर राणा उसके निकट—अति निकट पहुंचा।
उसका पांव पुनः चला।
चक्रेश काली पुनः पीड़ा से दोहरा हो गया।
सीधा हुआ तो उसकी आंखें झपका खा रही थीं।
इंस्पेक्टर सत्यवीर राणा मुड़ा और वापस अपनी टेबल तक आया।
टेबल पर रखा हाथ उठाया और चक्रेश काली की ओर बढ़ा। दाएं हाथ का रूल बाएं हाथ पर मारते हुए। चक्रेश काली—जो अब तक शेर बना हुआ था तथा उसके साथी भी सीना ताने खड़े थे—सहमे-सहमे से नजर आने लगे।
इंस्पेक्टर सत्यवीर राणा चक्रेश काली से कुछ कदम के फासले पर ठिठका फिर गर्ज कर बोला—“इन सबको ले जाओ और लॉकअप में ठूंस दो।”
फौरन पुलिसकर्मी झपटे।
“ह...हम मन्त्री जी के आदमी हैं...।” एक युवक मिमियाया था—“हमें बन्द करा तो अच्छा नहीं होगा।”
प्रत्युत्तर में इंस्पेक्टर सत्यवीर राणा इतनी फुर्ती से उसकी ओर घूमा कि उसके फरिश्ते कूच कर गये।
सत्यवीर राणा का चेहरा कोयले की तरह खुरदरा हो रहा था।
वो युवक जब तक कुछ समझता इंस्पेक्टर सत्यवीर राणा का हाथ रूल समेत घूमा और रूल समेत उसका मुक्का इतने प्रचण्ड वेग से युवक के चेहरे पर पड़ा कि वो चीखता हुआ चक्रेश काली के निकट गिरा और फिर वो भी चक्रेश काली की ही तरह पलकें झपकाने पर बाध्य हो गया।
“ले जाकर बन्द कर दो—और एक राउण्ड इन सबकी इतनी धुलाई करो कि इन्हें याद आ जाए कि अपनी-अपनी छठी के दिन इन्होंने कितना दूध पिया था। क्विक...! जल्दी करो...!”
पुलिसकर्मी झपट पड़े।
चक्रेश काली ने कुछ कहना चाहा, फिर उसने अपने होंठ भींच लिए।
कदाचित् कुछ भी कहना उसने मुनासिब नहीं समझा था।
बोलने का अन्जाम वो देख चुका था।
कुल मिलाकर हालातों के सहारे छोड़ने के अतिरिक्त उनके पास अन्य कोई चारा नहीं था।
इंस्पेक्टर सत्यवीर राणा एक राउण्ड पिटाई का आदेश दे चुका था।
वही कल्पना उनका दिल दहलाए दे रही थी।
चक्रेश काली को आश्चर्य था कि उनके इलाके में सत्यवीर राणा जैसा इंस्पेक्टर कब आ गया था!
वो भी इस प्रकार कि उसके अंकल वीर जी अर्थात रामनारायण काली को उसका पता नहीं चला।
उन्हें न केवल लॉकअप में ठूंसा गया वरन् चार पुलिसमैन पूरी मुस्तैदी से लॉकअप में ही उन पर पिल पड़े।
¶¶
चारों लॉकअप के फर्श पर पड़े कराह रहे थे कि सत्यवीर राणा ने भीतर कदम रखा।
“चलो...! चारों उठकर खड़े हो जाओ...! बड़े साहब आ रहे हैं।” हवलदार गुर्राकर बोला था—“जल्दी करो...! उठो...!”
चारों उठे और सिर झुकाकर खड़े हो गये।
उन्होंने होंठ भींचे हुए थे।
खूंखार नजरें हवलदार व पुलिसमैनों को बारी-बारी घूर रही थीं किन्तु वे सत्यवीर राणा की ओर दृष्टि उठाने का साहस नहीं कर पा रहे थे।
कारण स्पष्ट था।
इंस्पेक्टर उन्हें उल्टी खोपड़ी का नजर आया था और उस उल्टी खोपड़ी की गाज उन पर गिरे, वो उन्हें मंजूर होता भी तो कैसे?
उस इंस्पेक्टर का कहर वे झेल चुके थे।
इंस्पेक्टर राणा उनके सामने चहलकदमी करने के से अन्दाज में टहल रहा था।
निरन्तर...!
वे सकपकाए से उसे कनखियों से देख रहे थे।
स्पष्ट था कि उनकी रूह लरज रही थी।
उन चारों ने अब तक की उम्र में एक थप्पड़ भी नहीं खाया था—और उनकी इतनी पिटाई उनके होश उड़ाए दे रही थी।
अब उनके साथ क्या सुलूक होगा? यही एक प्रश्न उन्हें भीतर तक थर्राए दे रहा था।
तभी!
इंस्पेक्टर सत्यवीर राणा ठिठका।
ठीक चक्रेश काली के सामने।
चक्रेश काली की चल रही सांस फेफड़ों में फंसी-सी गई।
“मैंने तुम्हें क्यों मारा—जानते हो तुम सब?”
“......!”
चारों खामोशी से उसे देखते रहे।
इसके अतिरिक्त चारा भी क्या था?
“इसलिए...कि...!” इंस्पेक्टर राणा ने एक-एक शब्द को चबाया था—“तुममें से हर एक मन्त्री रामनारायण काली अर्थात वीर जी का अजीज है। है न...?”
“ज...जी...हां...।” चक्रेश काली अन्जाने में हकलाया था। किन्तु उसने तत्काल अपने जबड़े जोर से भींच लिए—जैसे अन्जाने में इतना कहकर उसने कोई तगड़ा गुनाह कर डाला हो।
“इसके बावजूद तुमने एक लड़की को छेड़ा—है न?”
“ह...हां।”
“केवल छेड़ा...!” दहाड़ उठा था इंस्पेक्टर राणा—“छेड़ कर ही सन्तुष्ट हो गये और पब्लिक ने आवारा-लफंगा समझकर पीटते हुए थाने पहुंचा दिया।”
“क...क्या मतलब?”
चिहुंका था चक्रेश काली।
“मतलब सीधा व साफ है। तुम्हें अगर वो लड़की भा गई थी तो फिर तुम्हें उस लड़की को वहीं सड़क पर पटक कर रेप करना चाहिए था। कोई चूं करता तो गोली से उड़ा देना था, जो कुछ होता मैं व वीर जी सुलट लेते।”
“क...क्या...?” उछल पड़े थे चारों।
आंखें फैलकर रह गई थीं।
“ठीक सुना तुमने...!” गुर्राया था राणा—“चलती लड़की को छेड़कर सन्तुष्ट हो जाने वालों को पब्लिक छिछोरा समझती है और हत्थे चढ़ने पर राह चलता आदमी भी हाथ की खुजली मिटाने से बाज नहीं आता। जबकि सड़क पर पटक कर रेप करने वाले को ही सूरमा कहते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि यूं सरेआम ऐसा करने का साहस हर कोई नहीं कर सकता। तब...तब राह चलते लोग भी रास्ता बदल लिया करते हैं। कारण ये कि कोई छिछोरा—कोई सड़क चलता गुण्डा ऐसा करने की कूवत नहीं रखता। इसके लिए दम की, कूवत की जरूरत होती है।”
“इ...इंस्पेक्टर...!”
“किन्तु...! किन्तु तुमने वीर जी का नाम तो डुबाया ही हमारा भी नाम डुबो दिया। नाक कटवा दी हमारी...।”
“ल...लेकिन इसने कहा था कि हम वीर जी के आदमी हैं। ये भतीजा...!”
“शटअप...!” इंस्पेक्टर यूं गर्जा कि वो युवक सिटपिटाकर कई कदम पीछे हट गया—“उस जैसी स्थिति में फंसे छिछोरे भी इसी प्रकार के पावरफुल नामों की आड़ लेने की चेष्टा किया करते हैं। जिससे कि उनके नाम की आड़ में अपना बचाव कर सकें। पब्लिक ने भी कुछ ऐसा ही समझा क्योंकि वे जानते हैं कि वीर जी के आदमी यूं राह चलते लड़कियों को नहीं छेड़ेंगे वरन् सरेआम उठाकर गाड़ी में डालेंगे और ले जाएंगे। कुछ घण्टों बाद या तो वो लंगड़ाती हुई अपने घर की ओर जाती हुई नजर आयेगी—या फिर उसकी लाश कहीं किसी गटर से बरामद होगी।”
“ओह...ओह...!”
चारों युवकों के मस्तिष्क की गांठें खुली थीं।
“कल को जब पब्लिक को पता चलेगा कि उन्होंने जिन छिछोरों को पीटकर थाने पहुंचाया था, वे वाकई वीर जी के आदमी थे—तो फिर उनकी नजरों में वीर जी की क्या इज्जत रह जाएगी? हमारी क्या साख रह जाएगी?”
“स...सॉरी...!” चक्रेश काली बोला था—“सॉरी इंस्पेक्टर...! आइन्दा ऐसी भूल...!”
“वो तो मानता हूं मैं...! बेवकूफ तो हो किन्तु इतने बड़े नहीं कि इतनी-सी बात ना समझ सको। किन्तु सवाल ये उठता है कि वीर जी की साख को कैसे बचाया जाए? कटी हुई नाक को किस प्रकार वापस जोड़ा जाए?”
चारों हैरानी से उस काले-कलूटे इंस्पेक्टर को घूरते ही रह गये।
“मुझे वीर जी से मशवरा करना होगा। कोई राह निकालनी होगी। तुम फॉरेन से आये हो—वो भी कई सालों बाद...! इसलिए तुम्हें कोई यहां पहचानता नहीं।” इंस्पेक्टर राणा चक्रेश काली की ओर संकेत करके बोला था—“किन्तु अब तुम्हें यहीं रहना है। कल को सबको मालूम पड़ जाएगा कि तुम वीर जी के भतीजे हो—तब...तब...वे उंगली उठाकर आपस में कानाफूसी करेंगे कि वीर जी का यही भतीजा है जिसे उन्होंने दो हाथ जमाए थे। जरा सोचो...! सोचो...ये बात किस प्रकार फैलेगी—जिस प्रकार वीर जी की इज्जत की धज्जियां उड़ेंगी—सोच सकते हो तुम सब...!”
“ओह...!”
“आई सी...!”
“ओह गॉड...!”
उन चारों के मुंह से निकला, फिर उनके सिर झुकते चले गये।
चेहरे पर पश्चाताप की रेखाएं...!
“फिलहाल...!” इंस्पेक्टर राणा बोला था—“मैं वीर जी से मशवरा करूंगा कि इसके लिए क्या किया जा सकता है, कैसे इस कलंक को धोया जा सकता है, किन्तु...!”
“किन्तु क्या ऑफिसर...?”
“तुम्हें सर्वप्रथम वो स्थान बताना होगा जहां ये हादसा हुआ।”
“हम बता देंगे।”
“उस लड़की को भी पहचानना होगा, जिसे तुमने छेड़ा था।”
“म...मैं उसे पहचानता हूं...।” एक युवक बोला था—“वो एक मगरूर—स्कूल मास्टर की बेटी है।”
“बहुत अच्छे...!” राणा व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला था—“काफी बढ़िया याददाश्त है तुम्हारी।”
“व...वो...वो...!”
“याद रहे...!” सहसा राणा के मुख से चेतावनी भरा स्वर उभरा था—“आज के बाद अगर तुमने ऐसी कायराना हरकत की तो तुम्हें—तुम सबको अपने रिवॉल्वर से शूट करूंगा और लाशें निपटाने को वीर जी को पेश कर दूंगा। मुझे पूरा यकीन है कि उस समय तुम्हारी मौत पर उन्हें सन्तोष का ही अनुभव होगा।”
“न...नहीं...!”
“यही सच है। इसलिए बेहतर होगा कि तुम ये सोचने व समझने की चेष्टा करो ये फॉरेन नहीं इण्डिया है। यहां आज के युग में भैंस उसी की होती है जिसके हाथ में लाठी होती है।” कहने के बाद इंस्पेक्टर हवलदार की ओर घूमा—“इन्हें आराम से बिठाकर पहले चाय-नाश्ता—दारु-शारू पिलाओ—और उसके बाद दफा करो—मैं वीर जी से बात करता हूं।”
कहने के साथ ही इंस्पेक्टर राणा बाहर की ओर निकलता चला गया था।
चक्रेश काली व उसके साथी दंग रह गये थे।
यूं जैसे उन्हें इंस्पेक्टर की बात पर यकीन ही ना आ रहा हो।
तभी एक कांस्टेबल ट्रॉली धकेलता भीतर प्रवेश हुआ।
उन्होंने देखा।
ट्रॉली में न केवल शराब की पूरी दो बोतलें, ड्राई फ्रूट मौजूद थे वरन् भुने हुए तंदूरी मुर्गे भी मौजूद थे।
उन्हें पूरा यकीन हो गया कि इंस्पेक्टर वाकई उल्टी खोपड़ी का है।
जबकि उल्टी खोपड़ी वाला अपने ऑफिस में समा चुका था।
¶¶
“मैं इंस्पेक्टर सत्यवीर राणा बोल रहा हूं—वीर जी से बात कराइए...!”
“कौन सत्यवीर राणा...?” दूसरी ओर से खुश्क स्वर उभरा था।
“नूरगंज इलाके का नया थाना इन्चार्ज...! नाम सत्यवीर राणा...किन्तु मेरा इतिहास गवाह है कि मेरा नाम भले ही सत्यवीर है किन्तु मैंने कभी भी सच्चाई का साथ नहीं दिया। हमेशा घूसखोरी...भ्रष्टाचार व बेईमानी को ही बढ़ावा दिया। जहां-जहां भी तैनात हुआ वहां गुण्डे बदमाशों की बनाई...जो डर-डर कर अपराध करते थे, खुलेआम अपराध करने लगे और हमें जमकर कमीशन देने लगे। शिकायत होने पर हमारा ट्रांसफर देहात क्षेत्र में कर दिया गया तो हम सत्यवीर राणा जरा भी ना घबराए और अपना काम चालू रखा। दारू की भट्टियों से लेकर तमाम तरह के धन्धे शुरू करवाए। हरे पेड़ों को कटवाने के लिए शेषदत्त व दिलीप ढोंगी जैसे बेईमान लकड़ी के ठेकेदारों को तैनात किया। वे भोले-भाले किसानों के पेड़ कभी खरीद कर—तो कभी जबरदस्ती कटवाते थे और हमें तगड़ा कमिशन—दो सौ से पांच सौ रुपये प्रति पेड़ देते थे और किसानों को अंगूठा दिखाकर भारी रकम खुद डकार जाते थे। शेषदत्त नामक बेईमान व धूर्त ठेकेदार के बेटे भी कम नहीं थे। ठेकेदार का भतीजा नेताओं की चमचागिरी करके उनकी मदद किया करता था—वहीं उसका लड़का ललित हरे पेड़ों की सूखी टहनियों तक को नहीं छोड़ता था और जबरन—दिनदहाड़े डकैती डालता हुआ लाद ले जाता था।”
“इंस्पेक्टर...! बकवास नहीं काम की बात करो...!”
“क्या अभी तक जो बातें मैंने की वो बिना काम की थी?”
“हां।”
“तो फिर काम की बात सुन...!” सहसा इंस्पेक्टर राणा होंठ भींचकर बोला था—“तेरे वीर जी का भतीजा चक्रेश काली...।”
“हां...हां...क्या हुआ उन्हें...?”
“अभी थोड़ा-थोड़ा हुआ है। उसने अपने दोस्तों के साथ एक लड़की को छेड़ दिया था। परिणाम स्वरूप पब्लिक ने उन्हें पीटकर पुलिस स्टेशन में दे दिया।”
“क...क्या...?”
“हां और वे चारों लॉकअप में हैं। कहो...कैसी रही...काम की बात है ये...या नहीं?”
“इंस्पेक्टर...! लगता है कि तू होश में नहीं है।”
“होश में ही हूं तभी ऐसी बात कर रहा हूं। किन्तु लगता है कि तुम होश में नहीं हो मिस्टर पी०ए० इसलिए वीर जी से बात कराने में आनाकानी कर रहे हो।”
“इंस्पेक्टर...!”
“फौरन लाइन दो वरना जिनकी फिक्र तुम्हें हो रही है—वे वीर जी की नाक इतनी गहराई से कटवा देंगे कि प्लास्टिक सर्जरी भी उसे दुरुस्त ना कर सकेगी।”
“ओ०के०! मैं लाइन देता हूं।”
दूसरी ओर से स्वर उभरा।
इंस्पेक्टर राणा मुस्कुरा उठा।
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admin –
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