रावण की अयोध्या
सुनील प्रभाकर
“रावण ने बड़ी तबाही मचा रखी है।”
“जानता हूं।”
“खाली जानने से तो काम नहीं बनेगा। काम तो उसकी लंका ढाने से चलेगा।”
“ये भी तो मालूम नहीं कि रावण की लंका है किधर—यदि मालूम पड़ जाए तो रावण का सर्वनाश निश्चित है।”
“लंका की खोज तुम करोगे।”
“मैं...मैं...?”
“इसमें सकपकाने वाली भला क्या बात है?”
“नहीं तो...मेरा मतलब तो ये था कि आपने रावण और उसकी लंका की खोज का कार्यभार तो महेश को सौंपा हुआ था...।”
“महेश को रावण ने मार डाला...।”
“क-क्या ऽऽऽऽ?” वह बुरी तरह चौंका तथा फिर तड़पकर बोला—“म-महेश को मार डाला...रावण ने? कै...कैसे?”
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अधेड़ व काले-कलूटे पुलिस कमिश्नर ने कीमती सिगार का कोना दांतों से कुतरकर थूका तथा लाइटर की लौ से अग्रिम सिरे का दाह-संस्कार करते हुए गम्भीरतापूर्वक बोला—“ऐसा लगता है कि महेश किसी 'जुगाड़' से रावण की लंका में प्रविष्ट होने में सफलता प्राप्त कर चुका था परन्तु रावण को उसकी वास्तविकता का आभास हो गया था। बड़ी ही निर्दयतापूर्वक मारा गया महेश को। रामनगर पुलिस स्टेशन के सामने जो गठरी छोड़ी गई थी, उसमें हड्डियों व गोश्त के कटपीस ही थे। साबुत सिर से ही आइडेंटिफिकेशन हो सकी। अरे...तुम सो तो नहीं गए?”
“नो...नो सर...।” तीस वर्षीय सांवले शख्स ने आंखें खोलीं, जो कि सुर्ख व गीली हो चली थी—पलकों पर उंगलियां फिरते हुए वह भर्राये कण्ठ से बोला—“महेश की बीवी-बच्चों के बारे में सोच रहा था सर। क्या बीतेगी उन मासूमों के दिल पर। वो तो अनाथ हो गए। महेश व गीता भाभी, दोनों ही अनाथ आश्रम में पले-बढ़े थे। उनका कोई सगा-सम्बन्धी नहीं था। डिपार्टमेन्ट भले ही उनके लिए कितना भी कर देगा, परन्तु महेश को तो जिन्दा करके उन्हें वापस नहीं लौटा सकेगा ना।”
“ये तो है।”
“रावण ने अच्छा नहीं किया सर। यदि वो कभी मेरे हाथ पड़ा तो मैं उसका खून...।”
“रिलेक्स...।” कमिश्नर शुष्क भाव से बोला—“मत भूलो कि तुम एक जिम्मेदार ऑफिसर हो। भावनाओं पर कन्ट्रोल करना सीखो। तुम्हें रावण का केस सौंपा जा रहा है परन्तु तुम्हें सारे काम कानून की सीमा में ही रहकर करने होंगे। भावनाओं को कर्तव्यों पर हावी नहीं होने दोगे। अन्डरस्टैण्ड?”
“य....यस सर।”
“अब तुम जा सकते हो। रावण तक पहुंचने की कोई अच्छी-सी स्कीम सोचो तथा फिर हमसे उस स्कीम पर डिस्कस अवश्य कर लेना।”
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“विक्रम।”
“हूं।”
“तीसरी बार आवाज दी है मैंने तुझे। तब जाकर तूने 'हूं' की है। सिर्फ हूं। कहां खोया रहता है तू आजकल?”
“कहीं भी तो नहीं, मुकेश।”
“झूठ मत बोल...।” मुकेश नामक सत्ताइस वर्षीय गोरा चिट्टा युवक मेज के पार बैठे मोटे-ताजे विक्रम नामक युवक के दाढ़ीदार चेहरे को घूरते हुए बोला—“मैं तीसरा पैग भी खींच चुका हूं और तेरा पहला पैग भी जैसे का तैसा रखा हुआ है।”
“ओह...!” विक्रम ने झट से पैग उठाया और एक ही सांस में उदरस्थ करके होंठ पौंछने लगा।
“किस सोच में डूबा हुआ था तू?”
“सामने स्टेज पर बैठी दुल्हन को देखकर नीलम की याद आ गई थी...।” अचानक ही विक्रम गम्भीर हो चला—“यदि...यदि वो जिन्दा होती तो वो भी दुल्हन बनी ऐसे ही बैठी होती और उसके बराबर में दूल्हा बनकर तुम बैठे होते मुकेश। एक ही तो ख्वाब था मेरा कि अपनी बहन की शादी धूमधाम से तेरे साथ करता, परन्तु ख्वाब, ख्वाब बनकर ही रह गया।”
“बीती बातों का रोना रोने से भला क्या लाभ है विक्रम...।” मुकेश सांत्वना देने की भावना से बोला—“बेचारी नीलम के भाग्य में मेरी पत्नी बनना नहीं था। ऊपर वाले ने जितनी जिन्दगी लिखी थी...उसे जीकर वो चली गयी।”
“नहीं, ऊपर वालों ने तो उसकी हथेली पर जिन्दगी की लम्बी रेखा खींची थी...।” विक्रम का 'पपीते' जैसा चेहरा भभक उठा—“दसानन चौधरी ने मेरी बहन की इज्जत लूटी और अपने आपको कानून से बचाए रखने के लिए मेरी मासूम बहन को मार डाला था। काश कि मैं उस हरामजादे का खून पीकर अपने सीने की आग को ठण्डा कर सकता मुकेश।”
उंगली के संकेत से मुकेश ने वेटर को पास बुलाया तथा उसकी ट्रे से दो जाम उठाकर टेबल पर रखे।
वेटर खाली जाम उठाकर परे चला गया तो उसने अपने होठों को हरकत दी—“किसी-किसी पापी को तो भगवान उसके पापों की सजा जल्द ही दे देता है विक्रम। दसानन चौधरी नीलम की इज्जत से खेलकर तथा उसे मौत के घाट उतारकर अपने घर तक भी नहीं पहुंच सका था। किसी ने उस कमीने को रास्ते में ही गोलियों से भून डाला था। उसके चेहरे के परखच्चे उड़ा दिए थे। कपड़ों व अंगूठियों से ही उसकी शिनाख्त हो सकी थी। ऊपर से उसकी लाश को गाड़ी से ऐसा कुचल डाला गया था कि पोस्टमार्टम के लायक भी नहीं रही थी। ये अच्छा भी हुआ था, वर्ना तू उसे मारने के चक्कर में जेल पहुंच जाता और मुझे अपने दोस्त से वंचित रह जाना पड़ता। खैर, छोड़ो इस टॉपिक को...तू उस लड़की को देख, जो दुल्हन के साथ खड़ी है...काली साड़ी वाली।”
विक्रम ने जाम होठों से हटाकर दुल्हन के साथ बतियाती अप्सरा-सी खूबसूरत युवती को घूरते हुए फुसफुसाहट में पूछा—“है तो फन्ने खां, परन्तु तेरा मतलब क्या है मुकेश?”
“उस पर मेरी नीयत आ गयी है।”
विक्रम बुरी तरह चौंका।
“मालूम करके आ मेरे यार...।” मुकेश उसी युवती को घूरते हुए बोला—“वो है कौन?”
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“मालूम पड़ा कुछ?”
“हां...!” विक्रम कुर्सी पर बैठते हुए फुसफुसाहट में बोला—“ये दुल्हन गरिमा की सहेली रेखा है और रामनगर की रहने वाली हैं।”
“रामनगर...?” चौंका मुकेश—“यानी अपने ही शहर की रहने वाली है। कमाल है कि इतने हसीन माल पर हमारी नजर नहीं पड़ी।”
“अब पड़ जाया करेगी।”
“मैं कुछ समझा नहीं?”
“ये लड़की रेखा यहां कृष्णापुरम में ही पढ़ रही है। यहां ननिहाल है उसकी। अपनी पढ़ाई खत्म कर चुकी है और अब रामनगर में अपने मां-बाप के पास ही रहेगी।”
“इसका...” मुकेश अधीरता से बोला—“रामनगर का एड्रेस मालूम हो सकता है?”
“मैं मालूम कर आया हूं। ये अवतार सिंह नामक रिटायर्ड कर्नल की बेटी है। मकान सिविल कॉलोनी में है।”
“वैरी गुड! अपनी रेशमा भी तो सिविल कॉलोनी की रहने वाली है। बाकी की जानकारी हमें रेशमा देगी। बारात के वापस लौटने पर सबसे पहले मैं गरिमा डार्लिंग से ही मिलूंगा। इस लड़की ने तो पांच मिनट में ही मेरे ऊपर जादू-सा कर दिया है।”
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अचानक ही पंडाल में आग लग गयी और हड़कम्प-सा मच गया।
बाराती व घराती जान बचने की गर्ज से चीखते-चिल्लाते हुए इधर-उधर भागने लगे।
दरअसल हुआ यूं था कि बाहर जोरदार आतिशबाजी का प्रोग्राम चल रहा था—कोई खतरनाक पटाखा शामियाने की छत पर आ गया था, जिसने तेज हवा के कारण आग भड़काने में जरा-सी भी देरी नहीं की थी।
“अबे...उधर कहां जा रहा है...?” विक्रम मुकेश का हाथ कसकर पकड़ते हुए बोला—“देख नहीं रहा है कि आग ने स्टेज को पूरी तरह से लपेटे में ले रखा है? मेरे साथ बाहर की तरफ चल।”
“परन्तु...उधर 'वो' भी तो थी। स्टेज की तरफ से किसी लड़की की चीखें आ रही हैं।”
“यदि ये चीखें तेरी उस रेखा की भी हैं तो भी तुझे जान जोखिम में डालने की कोई जरूरत नहीं है। वो झुलसकर इतनी बदसूरत हो गयी होगी कि तेरे दिमाग पर चढ़ा सारा जादू उतरम-पुतरम हो जाएगा।”
“ओह...!”
तभी फायर ब्रिगेड की घण्टियां सुनाई पड़ने लगी।
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