Rakshas : राक्षस
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Description
‘राक्षस’ एक ऐसा करेक्टर-जो सिर्फ नाम का ही राक्षस नहीं बल्कि सचमुच का राक्षस है। एक शब्द है वो-जो एक ऋषि ने आठ सौ साल पहले खुद को दिया था और राक्षस बन गया था।
उसी राक्षस की आत्मा जब आजाद हुई तो पता नहीं किसके जिस्म में जा घुसी। इंसानी गोश्त खाने वाला वह राक्षस एक खौफ बन गया था।
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कतई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों व दुर्व्यसनों से दूर ही रहें। यह उपन्यास 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यास आगे पढ़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है। प्रूफ संशोधन कार्य को पूर्ण योग्यता व सावधानीपूर्वक किया गया है, लेकिन मानवीय त्रुटि रह सकती है, अत: किसी भी तथ्य सम्बन्धी त्रुटि के लिए लेखक, प्रकाशक व मुद्रक उत्तरदायी नहीं होंगे।
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राक्षस
“नहीं....इस बार मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहता।”
“सॉरी, पिछली बार तो मामला सिर्फ दो करोड़ का था, जो मैं बर्दाश्त कर गया, इस बार पांच करोड़ का मामला है, माल तुम्हें ही पहुंचाना होगा....। वर्ना अगर इस बार भी मेरा आदमी माल लेकर आया और रास्ते में किसी ने उस पर धावा बोल दिया या पुलिस ने पकड़ लिया तो मैं तो हो गया न बर्बाद....। माल तुम्हें ही पहुंचाना होगा।”
“मुझे मन्जूर है, तुम्हारे आदमी की दिहाड़ी मैं दूंगा....।”
“हां, यह ठीक रहेगा।”
“कब निकलेगा तुम्हारा आदमी और किस रास्ते से पहुंचेगा?”
“नहीं, उस रास्ते से बिल्कुल भी मत भेजना....। आज सुबह ही तुगलक रोड पर एक्सीडेंट हुआ था, जिसमें दस आदमी मर गये थे। पुलिस वहां दिन भर मौजूद रहेगी।”
“तुम ऐसा करना....शाम नगर की तरफ से भेजना।”
“देखो, तुम्हारा ठिकाना एक सौ आठ राजौरी गार्डन है। तुम्हारे ठिकाने के बाईं तरफ करीब आधा किलोमीटर बाद बाईं तरफ सड़क मुड़ती है, उस सड़क पर तीन किलोमीटर आगे गांधी चौक है, वहां से दाईं तरफ मुड़ जाना, वहां से दो किलोमीटर आगे शाम नगर है। शाम नगर के पहले चौक जिसका नाम श्रीराम चौक है, के बाईं तरफ मुड़ना और सीधा चलते जाना....। सीधा हमारे ठिकाने पर पहुंचेगा।”
“कब तक पहुंचेगा माल....?”
“ठीक है, नौ बजे तुम्हारे यहां से चलेगा तो साढ़े नौ बजे हमारे पास पहुंच जायेगा। कौन ला रहा है माल....?”
“अब्दुल कहां गया....?”
“मैं सलीम को पहचानूंगा कैसे?”
“बोलो....। डी○पी○ 06-0789 ठीक है, पेमेंट कल किसी भी वक्त तुम्हारे पास पहुंच जायेगी।”
“बाय....।” कहकर उस व्यक्ति ने मोबाइल अपनी जेब में डालते हुए अपने पास बैठे व्यक्ति को देखा—“कार का नम्बर नोट कर लिया?”
“हां—डी○पी○ 06-0789....। गाड़ी कौन-सी है?”
“सफेद रंग की वैगन-आर है।”
कहकर फोन करने वाले ने पैग उठाकर हलक में उतारा और सोफा चेयर से खड़ा होते हुए दूसरे से बोला—
“मैं बाथरूम होकर आता हूं।”
और वह बाथरूम की तरफ बढ़ गया।
¶¶
तुरन्त अर्जुन त्यागी सीधा हुआ और तेजी से पीछे हटते हुए बाथरूम से निकला और बाथरूम का दरवाजा धीरे से बिना कोई आवाज किये बन्द किया और बेड पर गौरी के पास आ बैठा।
गौरी ने उसके चेहरे को देखा तो वह चौंक पड़ी।
इससे पहले कि वह उसके चेहरे की चमक की वजह पूछती, अर्जुन त्यागी ने अपने होठों पर उंगली रख उसे चुप रहने का इशारा किया।
तुरन्त गौरी का खुला मुंह बन्द हो गया। लेकिन उसके चेहरे पर से चौंकाहट के भाव गायब नहीं हुए....। उल्टे वो भाव और भी गहरे हो गये थे।
अभी परसों ही वह इस शहर कड़ियाल में पहुंचे थे। जेबों से खाली....। सिर्फ तीस हजार ही थे उनके पास।
उन तीस हजार में वे किसी बड़े होटल में तो ठहर नहीं सकते थे....। सो स्टेशन के सबसे करीबी इस होटल रीजैंसी में आ ठहरे थे वे।
होटल था तो साफ-सुथरा, लेकिन उसमें किसी स्टार वाली सुविधा नहीं थी।
दो कमरों का एक ही बाथरूम था। जब एक कमरे वाला बाथरूम यूज करता था तो वह दूसरे कमरे की सिटकनी भीतर से लगाकर ही नहा-धो सकता था और फ्रैश होने के बाद उसे उस कमरे की सिटकनी गिरानी पड़ती थी।
परसों रात को वे यहां पहुंचे थे। सो रात भर उन्होंने आराम किया और कल सारा दिन घूमने के साथ-साथ वे किसी आसामी की खोज में लगे रहे, जिससे वे एकमुश्त मोटा माल कमा सकें।
आसामी तो कोई नहीं मिली उन्हें, बाकी उन्होंने शहर को अच्छी तरह से देख लिया था।
काफी बड़ा शहर था वह।
महानगर तो नहीं था, मगर था काफी बड़ा। एक तरह से उसके महानगर में शामिल होने के पूरे चांस थे।
आबादी भी काफी थी कड़ियाल की....।
रात को जब वे वापिस आये तो टैक्सी के खर्चों तथा लंच को मिलाकर वे ढाई हजार खत्म कर चुके थे।
उसके बाद वे आज फिर निकले और अभी थोड़ी देर पहले ही वे वापिस आये थे।
आते ही अर्जुन त्यागी ने गौरी को बोतल निकालने को कहा और हल्का होने के लिये बाथरूम में जा घुसा और अब जब वह वापिस आया तो उसके चेहरे पर अजीब-सी चमक थी। जबकि आज भी कोई आसामी न मिलने के कारण उसे मायूसी मिलनी चाहिये थी।
गौरी ने हाथ उसके चेहरे के सामने कर कलाई को मोड़ते हुए बांह दायें-बायें हिलाते हुए भौंहें उछालीं।
अर्जुन त्यागी ने आशीर्वाद देने वाली मुद्रा में हाथ उठाकर आंखें बन्द कर उसे सब्र करने का इशारा किया और बोला—
“बोतल नहीं निकाली अभी?”
गौरी ने अपने दाईं तरफ को झुकते हुए बेड के करीब फर्श पर पड़ी बोतल और दो खाली गिलास उठाये और बेड पर रख दिये।
“पैग बना....।”
गौरी ने बोतल खोलकर पैग बनाये और बोतल रख दी।
दो-दो पैग हलक में उतारकर अर्जुन त्यागी बेड से उतरते हुए बोला—
“चल, डिनर कर लें....। फिर अपनी गेम खेलेंगे।”
कहते हुए उसने गौरी के उभारों को घूरा।
गौरी हल्के-से खिलखिलाई, फिर वह भी बेड से उतर गई।
उसने कहा तो कुछ नहीं, मगर इतना वह समझ गई थी कि अर्जुन त्यागी को कोई मोटी आसामी मिल गई है, तभी तो उसका चेहरा ऐसे चमक रहा है।
सीढ़ियां उतरकर दोनों डायनिंग हॉल में पहुंचे।
कुछ खास रश नहीं था वहां।
बस आठ-दस आदमी-औरतें ही बैठे नजर आये उन्हें, जिनमें से कुछ ने सिर उठाकर उन्हें, खासकर गौरी को देखा, फिर गर्दनें झुकाकर खाने में जुट गये।
अर्जुन त्यागी ने कोने की टेबल की तरफ इशारा किया और उधर कदम बढ़ाते हुए बोला—“आ, उधर चलते हैं।”
शीघ्र ही दोनों उस टेबल पर आमने-सामने बैठे थे।
आस-पास की टेबलों पर कोई नहीं था। सो तुरन्त गौरी धीमे स्वर में बोली—
“अभी तो सात ही बजे हैं और तू डिनर के लिये आ गया। बात क्या है?”
अर्जुन त्यागी ने आगे को झुकते हुए कोहनियां टेबल पर टिकाई ही थीं कि वेटर उनके सिर पर आ पहुंचा।
अर्जुन त्यागी ने गर्दन उठाकर उसे ऑर्डर दिया, जो जल्द तैयार होकर टेबल पर पहुंच सके।
वेटर के वहां से हटने के बाद गौरी भी आगे को झुक गई और अपना चेहरा अर्जुन त्यागी के चेहरे के करीब ले आई।
“हमारे पास वाले कमरे में दो आदमी ठहरे हैं।” अर्जुन त्यागी धीमे स्वर में बोला—“और वो नशे का कारोबार करते हैं।”
“तो....?”
“पांच करोड़ का माल पहुंच रहा है उनके पास, जो राजौरी गार्डन से निकलकर शाम नगर वाले रास्ते से उनके ठिकाने पर पहुंचेगा....।”
अर्जुन त्यागी ने उसे उस आदमी की सारी बात बताई, जो वह मोबाइल पर कर रहा था।
उसके चुप होने के बाद जैसे ही गौरी बोलने को हुई, वेटर ऑर्डर लेकर वहां आ पहुंचा।
पीछे हटते हुए दोनों सीधे हुए और टेबल पर से अपनी बांहें हटा लीं।
वेटर टेबल पर खाना सजाने लगा।
पांच करोड़ के नाम ने गौरी के चेहरे पर एक तेज चमक तो ला दी थी, मगर उसने अपना आपा नहीं खोया था, जो वह खुशी से उछलने लगती।
वेटर के जाने के बाद दोनों खाना खाने लगे।
खाने के साथ-साथ उनमें धीमे स्वर में बातें भी हो रही थीं।
“हेरोइन होगी....?” गौरी बोली।
“पता नहीं। कोकीन भी हो सकती है—फोन पर उसने बस माल ही कहा था।”
“फिर तो वो माल कुछ और भी हो सकता है। सोना, चांदी, हथियार, कुछ भी हो सकता है। कोई लड़की भी हो सकती है, या ऐसा ही कुछ और भी हो सकता है।”
“पांच करोड़ का माल एक वैगन में आ रहा है।” अर्जुन त्यागी रोटी का टुकड़ा तोड़ते हुए बोला—“ऐसे में माल वो होगा, जो बहुत महंगा हो और महंगे माल में हेरोइन और कोकीन ही हो सकती हैं। अगर चरस, गांजा, सोना, चांदी होता तो किसी भी बड़ी गाड़ी में माल आता। सोना भी होता तो वो पच्चीस किलो होता। इतना सोना कार में रखा तो जा सकता है, लेकिन उसे छुपाना मुश्किल है।”
गौरी ने जुगाली करते हुए सिर हिलाया।
“अब ध्यान से सुन, हमने क्या करना है।” कहते हुए अर्जुन त्यागी ने अपना चेहरा आगे को कर लिया।
गौरी भी अपना चेहरा उसके चेहरे के करीब ले आई।
अर्जुन त्यागी उसे धीमे शब्दों में समझाने लगा।
बीच-बीच में गौरी समझने वाले अन्दाज में सिर हिला रही थी।
¶¶
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Additional information
Book Title | Rakshas : राक्षस |
---|---|
Isbn No | |
No of Pages | 336 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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