कयामत की रात
सुनील प्रभाकर
न्यायालय का कक्ष खचाखच भरा था।
पूरे कक्ष में बैठने के लिए जो निर्धारित स्थान था, उसमें एक भी सीट खाली नहीं थी।
न्यायालय के कक्ष के अन्दर ही नहीं बल्कि बाहर परिसर में भी अभूतपूर्व भीड़ थी। इतनी कि कई बार भीड़ को नियन्त्रित करने के लिए पुलिस को लाठियां तक फटकारनी पड़ी थीं।
न्यायालय परिसर में मौजूद भीड़ में वह पत्रकार तथा प्रेस फोटोग्राफर भी थे, जिन्हें कक्ष में पहुंचने में सफलता नहीं मिल सकी थी। ऐसे प्रेस फोटोग्राफर बाहर के दृश्य ही अपने कैमरों में कैद कर रहे थे तथा पत्रकार स्थिति को अपने ढंग से शब्दों में बांधने का प्रयास कर रहे थे।
प्रशासन को शायद पहले ही इस बात का अहसास था कि न्यायालय परिसर में इस कदर लोगों का हुजूम उमड़ सकता है।
यह प्रशासन की दूरदर्शिता का ही परिणाम था कि वहां सुरक्षा के व्यापक प्रबन्ध पहले ही किए जा चुके थे। वर्ना वहां कोई भी अप्रिय घटना घट सकती थी।
यह सारी भीड़ उस मुकदमे की सुनवाई को देखने के लिए उमड़ रही थी, जिसने पूरे देश को न केवल हिलाकर रख दिया था बल्कि लोगों के जेहन में कितने ही ऐसे सवाल छोड़ दिए थे जिनका उत्तर किसी के पास नहीं था। लोग सोच रहे थे कि इस मुकदमे का फैसला ही शायद उन प्रश्नों का उत्तर दे सकेगा।
लेकिन यह केवल एक अनुमान था। इस बात का विश्वास बहुत कमजोर था कि उनके जेहन में उठ रहे उन सवालों का उत्तर उन्हें मिल सकेगा।
यह मुकदमा उस जघन्य हत्याकाण्ड का था, जिसने पूरे देश को तो हिलाकर रख दिया था लेकिन इसमें अजीब बात यह थी कि आम जनता की सहानुभूति उस क्रूर हत्यारे के साथ थी। समाचार पत्रों में तो इस तरह के समाचार भी प्रकाशित हुए थे कि कुछ लोग मन्दिरों तक में हत्यारे के लिए प्रार्थनाएं कर रहे थे।
हत्या भी किसी साधारण आदमी की नहीं बल्कि एक अति महत्वपूर्ण व्यक्ति की हुई थी जो राज्य सरकार में मन्त्री रह चुका था तथा समाज में उसका एक विशिष्ट स्थान था।
यह मुकदमा उसी जघन्य हत्याकाण्ड से सम्बन्धित था और इसकी सुनवाई अपने अंतिम चरण में थी। कुछ लोगों का अनुमान था कि विशेष परिस्थितियों में इस मुकदमे का फैसला आज भी सुनाया जा सकता था।
अधिक भीड़ का कारण लोगों का यह अनुमान भी था।
बात केवल इतनी-सी ही नहीं थी कि यह मुकदमा एक अति विशिष्ट व्यक्ति की जघन्य हत्या का था। बल्कि बात इससे कहीं ज्यादा थी।
इस मुकदमे में कई बातें ऐसी अजीब थीं, जिन्होंने लोगों को अपनी ओर इस कदर आकर्षित किया था।
इस मुकदमे में पुलिस ने जिसे हत्या अभियुक्त बनाया था, उस पर निचली अदालतों में गवाहों के विरोधाभासी बयानों तथा बचाव पक्ष की जोरदार दलीलों के कारण अभियोग पर सिद्ध नहीं हो सका। जिसके कारण अभियोजन पक्ष को मुंह की खानी पड़ी था। उसकी तमाम कोशिशें नाकाम सिद्ध हुईं तथा अभियुक्त को दोषमुक्त करार देकर बाइज्जत बरी कर दिया गया था।
इस फैसले के विरुद्ध अभियोजन पक्ष द्वारा ऊपर की अदालत में अपील दायर की गयी।
लेकिन कानून के विशेषज्ञ का मानना था कि अभियोजन पक्ष की यह कोशिश भी कामयाब होने वाली नहीं है। उच्च अदालत में भी अभियुक्त को बरी कर दिया जाएगा।
लेकिन अचानक ही इस मुकदमे में एक नाटकीय मोड़ आया।
एक ऐसा मोड़ जिसने मीडिया जगत में तहलका मचा दिया। कुछ दिन के लिए तो यह मुकदमा मीडिया में इस कदर छा गया कि दूसरे सभी समाचार इसके सामने फीके पड़ गए।
दूसरे समाचारों में लोगों को जैसे कोई रुचि ही नहीं रह गयी थी।
हालांकि कुछ लोगों का यह भी मानना था कि मीडिया ने इस मामले को अनावश्यक तूल दिया है तथा मीडिया इस तरह के समाचारों को अनावश्यक तूल देकर गैर-जिम्मेदारी का परिचय दे रही है और इस तरह की बातें समाज में कोई अच्छा सन्देश नहीं देतीं।
लेकिन यह लोगों के अपने विचार थे और विचारों पर कोई रोक नहीं लगाई जा सकती। जबकि सही या गलत का फैसला तो आखिर वक्त ही करता है।
मुकदमे में यह तहलका मचा देने वाला मोड़ ठीक उस समय आया, जबकि मुकदमे में सुनवाई अपने अंतिम दौर में थी और सुनवाई के दौरान ऐसी कोई नई या विशेष बात अभी तक सामने नहीं आयी थी, जिसके आधार पर यह अनुमान लगाया जा सके कि निचली अदालतों के फैसले को पलटकर अभियुक्त को दोषी साबित किया जा सके।
इन हालातों में बहुत जल्दी इस मुकदमे की सुनवाई पूरी कर ली जाएगी और अभियुक्तों को पहले की तरह ही बाइज्जत बरी कर दिया जाएगा।
तभी हत्याभियुक्त ने अदालत के सामने आश्चर्यजनक रूप से इकबाले-जुर्म करके अदालत तक को सकते में डाल दिया और फिर जिसने भी यह सुना, वही हक्का-बक्का रह गया। जैसे लोगों को अपने कानों पर विश्वास ही न हो रहा हो।
लेकिन यह सच्चाई थी।
ऐसी सच्चाई, जिस पर विश्वास करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प था ही नहीं।
इससे सबसे अधिक प्रभावित होने वाले अभियुक्त के वे हमदर्द लोग थे, जिन्होंने उसे बचाने के लिए एड़ी से चोटी तक का जोर लगा दिया था।
वास्तव में इस मुकदमे की जोरदार पैरवी करने वाले उसके सही हमदर्द थे।
लेकिन अभियुक्त ने स्वयं जिस तरह से इकबाले-जुर्म किया था, उसने उसे सीधा फांसी के तख्ते तक पहुंचा दिया था और उसके हमदर्दों के लिए बहुत बड़ा धक्का था।
ऐसा लगता था जैसे अभियुक्त के नहीं बल्कि स्वयं उन्हीं के गले में फांसी का फंदा पड़ गया हो।
इसके विषय में लोगों के विचार भिन्न-भिन्न थे।
कई लोगों का बल्कि कुछ समाचार पत्र प्रतिनिधियों का भी मानना था कि इस इकबाले जुर्म के पीछे कोई बहुत गहरा रहस्य है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता था कि कोई बहुत बड़ी ताकत हो सकती थी, जिसने अभियुक्त पर दबाव डाला हो कि वह इकबाले-जुर्म कर ले।
लेकिन सच्चाई क्या थी, इस विषय में विश्वासपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता था।
लेकिन केवल अनुमानों के आधार पर कानून के फैसलों को तो प्रभावित नहीं किया जा सकता था। जबकि अभियुक्त ने इस बात को अदालत के सामने स्पष्ट इंकार किया था, उस पर किसी ने या किसी प्रकार का दबाव डाला है।
उसका कहना था कि उसने जो कुछ कहा है—वह अपने पूरे होशो-हवास में तथा बिना किसी बाहरी दबाव से कहा है।
लेकिन उसका बचाव करने वाले अभी भी हार मानने को तैयार नहीं थे।
हालांकि उसके इकबाले-जुर्म ने उन्हें हिलाकर रख दिया था। लेकिन सकते की इस स्थिति से उबरने के तुरन्त बाद ही अपनी कोशिशें जारी कर दीं।
लेकिन वे लोग जिसे बचाना चाहते थे, वह अपने बयान से इंच भर भी हटने को तैयार नहीं था।
अंत में बचाव पक्ष की ओर से आखिरी कोशिश के रूप में अदालत के सामने दलील रखी गयी कि अभियुक्त का मानसिक सन्तुलन डगमगा गया है। इन हालात में उसने जो कुछ कहा है, वह उसका इकबाले-जुर्म नहीं बल्कि आत्महत्या का प्रयास है। इसलिए अभियुक्त की मानसिक स्थिति पर गौर किया जाए।
अदालत ने बचाव पक्ष की यह दलील स्वीकार कर ली। लेकिन अदालत ने उसकी मानसिक स्थिति का पता लगाने के लिए मेडिकल बोर्ड का गठन कर दिया और उसे आदेश दिया कि अभियुक्त की मानसिक स्थिति की जांच करके उसकी रिपोर्ट अदालत के सामने पेश करे।
अंत में मेडिकल बोर्ड द्वारा उसका गहन परीक्षण किया गया।
बोर्ड में शामिल सभी डॉक्टरों ने अपनी रिपोर्ट अदालत के सामने पेश कर दी और उस रिपोर्ट में अभियुक्त को मानसिक रूप से बिल्कुल स्वस्थ घोषित किया गया।
और इस रिपोर्ट के साथ ही उसके बचाव की आखिरी कोशिश भी नाकाम ही साबित हुई।
और अब तो बहस का केवल यही विषय रह गया था कि उसे इस जुर्म की क्या सजा मिल सकती है?
क्या उसके स्वतः जुर्म स्वीकार कर लेने के कारण अदालत उसके साथ किसी प्रकार की नरमी से पेश आएगी?
लेकिन!
कानूनी विशेषज्ञों का मानना था कि यह उस श्रेणी का अपराध था, जिसमें उसके साथ किसी प्रकार की नरमी नहीं हो सकती।
अदालत उसे मृत्युदण्ड से कम सजा नहीं देगी।
और कानूनी विशेषज्ञों की यह राय उसके हमदर्दों पर जैसे सांप लोटाने का काम कर रही थी।
और वह लोग आज उसी का इंतजार कर रहे थे कि उसकी किस्मत का फैसला आखिर क्या होने वाला है? अदालत के कक्ष में उनकी नजरें उसी पर जमी हुईं थीं।
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न्यायालय के कक्ष में एक अजीब-सी सनसनी थी। वहां मौजूद प्रत्येक शख्स की कौतूहल भरी नजर जिस व्यक्ति पर जमी थी, उसका स्वयं का चेहरा पत्थर की तरह कठोर, सपाट व भावहीन था।
विटनेस बॉक्स में जो व्यक्ति खड़ा था, उसकी उम्र तीस-बत्तीस की रही होगी। दाढ़ी कई दिन से नहीं बनाई गयी थी तथा सिर के बाल बेतरतीब होकर माथे पर बिखर रहे थे।
चेहरा भावहीन था।
उस पर किसी प्रकार का खौफ या अफसोस दूर-दूर तक नजर नहीं आता था।
उसे देखकर कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था कि इस आदमी का अंजाम इतना भयंकर होने जा रहा है। कोई नहीं कह सकता था कि फांसी का फंदा धीरे-धीरे उसकी गर्दन की ओर बढ़ रहा है।
भावहीनता के बावजूद उसके चेहरे पर गरिमामय गम्भीरता थी तथा आंखों में एक अजीब-सी चमक साफ-साफ नजर आ रही थी।
अपना आसन ग्रहण करने के पश्चात न्यायधीश महोदय ने उसकी ओर देखा तो न्यायालय के कक्ष में इस कदर खामोशी छा गयी कि मानो लोग सांस तक लेना भूल गए हों।
“मुल्जिम...!” न्यायाधीश महोदय ने उसके नाम से सम्बोधित करते हुए कहा—“तुम्हें आखिरी मौका दिया जाता है—तुम्हें अपने बचाव में कुछ कहना है तो कह सकते हो। अदालत तुम्हें इसका एक अवसर और देती है। तुम्हें कुछ कहना है?”
“नहीं...!” उसने भावहीन स्वर में संक्षिप्त उत्तर दिया।
“क्या तुम्हें अपने किए पर कोई पछतावा है?”
“नहीं!”
“तुम्हें अपने किए पर कोई पछतावा नहीं, कोई अफसोस नहीं—इसके बावजूद भी तुमने अपने बचाव की कोशिश नहीं की। जबकि इस बात की पूरी सम्भावना थी कि तुम्हें दोषमुक्त करार दिया जा सकता था जैसा कि निचली अदालतों ने किया भी है। क्यों?”
“हां जज साहब...!” उसने कहा—“मैं इस बात का दावा तो नहीं कर सकता लेकिन मुझे विश्वास है कि मौजूदा व्यवस्था के तहत मैं कोशिश करता तो मुझे दोषी नहीं ठहराया जा सकता था।”
“अदालत यही तो जानना चाहती है कि तुमने ऐसा क्यों नहीं किया?”
“क्योंकि...!” उसने कहा—“इससे मेरा मकसद पूरा नहीं हो सकता था जज साहब!”
“तुम्हारा मकसद...?” न्यायाधीश महोदय की आंखों में प्रश्नसूचक भाव उभरे—“बदला लेने का तुम्हारा मकसद तो पूरा हो चुका था।”
“बदला लेना मेरा मकसद नहीं था जज साहब!”
“लेकिन तुमने तो अपने इकबालिया बयान में यही कहा था—क्या तुम अपने उस बयान से मुकर रहे हो?”
“नहीं जज साहब—मैं अपने बयान से मुकर नहीं रहा। बल्कि अलग से वह कह रहा हूं, जो उस समय मैंने नहीं कहा था।”
“उस समय क्यों नहीं कहा था?”
“क्योंकि अब मैं जो कुछ कह रहा हूं उसका इस मुकदमे से कोई सम्बन्ध नहीं है जज साहब!”
“किसी चीज का सम्बन्ध इस मुकदमे से है या नहीं है—इसका फैसला तुम कैसे कर सकते हो? तुम्हें यह अधिकार तो नहीं है।”
उसके होठों पर मुस्कुराहट की एक पतली-सी लकीर नजर आयी।
“मेरे अधिकारों को तय करना अब...!” उसने कहा—“किसी भी व्यवस्था के अधिकार क्षेत्र में नहीं है।”
न्यायाधीश महोदय इस उत्तर पर पल भर के लिए सकपकाकर रह गए।
“खैर...!” उन्होंने तुरन्त बाद कहा—“अदालत को अधिकार क्षेत्र का निर्धारण करने में कोई रुचि नहीं है। तुम अपने इस मकसद के बारे में ही बताओ, जिसके बारे में तुम अभी-अभी कह रहे थे।”
“यह सही है जज साहब कि मरने वाले से मेरी कोई जाति दुश्मनी नहीं थी लेकिन इसके बावजूद भी इस हत्या का एक मकसद बदला ही था। किसी भी क्रिया के विपरीत जो प्रतिक्रिया होगी उसे बदला ही कहा जाएगा।
हत्या के किसी मुजरिम को जब सजा-ए-मौत दी जाएगी तो वह भी तो एक बदला ही होगा। किसी हत्या के बदले में दी गयी मौत की सजा—अर्थात खून के बदले खून। यह बदला नहीं तो और क्या है? जबकि सजा सुनाने वाले जज तथा सजा देने वाले जल्लाद से उसकी कोई व्यक्तिगत दुश्मनी तो नहीं होगी न?
लेकिन मैं इसके विस्तार में नहीं जाना चाहता जज साहब। मैं अपने उसी मकसद पर आ रहा हूं।
मेरा मकसद कुछ सवाल हैं जज साहब...!” उसने कहा—“जिन सवालों को मैं लोगों के बीच—सभ्य समाज के बीच छोड़ना चाहता हूं।”
“सवाल?” न्यायाधीश ने प्रश्न सूचक नेत्रों से उसकी ओर देखा—“कौन से सवाल?”
“मैं जानता हूं जज साहब कि उन सवालों का जवाब मुझे नहीं मिल सकेगा लेकिन मुझे विश्वास है कि एक दिन आज का सभ्य समाज उन सवालों का जवाब अवश्य खोज लेगा। यही मेरा मकसद है।”
“लेकिन अदालत अभी तक नहीं समझ सकी है कि तुम किन सवालों की बात कर रहे हो?”
“वह जनता के जेहन में उठ रहे हैं जज साहब! कुछ सवाल और भी हैं, जो कुछ समय बाद उठेंगे।”
“अदालत की रुचि भी यह जानने में है कि वे सवाल आखिर कौन-से हैं, जिन्हें उठाने के लिए तुम्हें अपने अंजाम की परवाह नहीं है? जिनके लिए तुम्हें अपनी जान तक की परवाह नहीं है।”
उत्तर में उसके होठों पर मुस्कुराहट की लकीर कुछ लम्बी हो गयी। न्यायाधीश महोदय ने एक बार फिर उसकी ओर देखा।
“अदालत तुम्हें ऐसे किसी सवाल का जवाब देने के लिए मजबूर नहीं कर सकती लेकिन...!” न्यायाधीश महोदय ने कहा—“अदालत को तुम्हारे उन सवालों के बारे में जानने में रुचि है। क्या तुम्हें इसमें कोई ऐतराज है?”
“मुझे तो इसमें कोई एतराज नहीं जज साहब! लेकिन...!” उसने अपनी नजरें घुमाकर सरकारी वकील की ओर देखा—“वकील साहब को सख्त ऐतराज होगा।”
“क्या तुम्हारे ऐसा मानने का कोई आधार है?”
“जी हां, जज साहब!”
“क्या?”
“मेरे मुकदमे की सुनवाई के समय कई बार वे बातें उठी थीं, जो मेरे इन्हीं सवालों की ओर संकेत करती थीं लेकिन वकील साहब ने उन बातों को उठाए जाने पर सख्त आपत्ति उठाई थी कि इन बातों का इस मुकदमे से कोई ताल्लुक नहीं और ऐसा करने पर अदालत का कीमती वक्त जाया होगा। उस समय आपने उन आपत्तियों को जायज ठहराया था।
अब यदि मैं उन सवालों पर कुछ कहूंगा तो भी इस मुकदमे से उन बातों का कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकेगा और अदालत का कीमती वक्त जाया ही होगा। जबकि वकील साहब मुझे फांसी पर झूलते हुए देखने के लिए मरे जा रहे हैं।” कहते हुए उसकी मुस्कुराहट व लहजा व्यंग्यात्मक हो गया था।
इस पल सरकारी वकील के चेहरे पर शर्मिन्दगी के भाव साफ-साफ नजर आए।
“इसके बावजूद भी...!” न्यायाधीश ने कहा—“अदालत तुम्हारी बात सुनना चाहती है। सरकारी वकील अब कोई आपत्ति नहीं उठाएंगे।”
“इसके लिए तो बहुत विस्तार में जाना होगा जज साहब—मैं स्वयं अनुमान नहीं लगा सकता कि मेरी बात कितनी लम्बी हो जाएगी।”
“अदालत को किसी प्रकार की जल्दबाजी नहीं है। तुम अपनी बात निःसंकोच होकर कह सकते हो।”
“उन हालात में अदालत के द्वारा क्या मेरे उन सवालों का जवाब दिया जाएगा?” उसने प्रश्न किया।
“अदालत ऐसा कोई आश्वासन नहीं दे सकती लेकिन अदालत तुम्हारी मांग पर विचार कर सकती है लेकिन यह इस बात पर निर्भर करेगा कि तुम्हारे वह सवाल आखिर क्या है?”
“ठीक है जज साहब...!” उसने कहा—“मेरे लिए यह जरूरी नहीं कि मैं अपने सवालों का जवाब पाकर ही रहूं।” कहने के साथ ही उसके चेहरे पर सोचपूर्ण भाव उभरने लगे।
उसने एक बार अदालत के कक्ष में मौजूद लोगों की ओर अपनी आंखें उठाकर देखा।
उस समय प्रत्येक नजर उसे अपनी ओर ही उठती नजर आ रही थी तथा कोई आंख ऐसी नहीं थी कि जिसमें उत्सुकता व कौतुहल का भाव न हो।
उसने अपने दोनों हाथ विटनेस बॉक्स के हत्थे पर टिकाकर अपने जिस्म का पूरा भार हाथों पर डाला तथा आंखें सामने की सपाट दीवार पर केन्द्रित हो गईं।
फिर अतीत के इतिहास की परतें उसके जेहन में एक-एक करके उभरती चली गईं।
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