अर्जुन त्यागी सीरीज
मेरा सजना बड़ा कमीना
शिवा पण्डित
“नहीं...मुझे बख्श दो—मैं अपने घर का अकेला कमाने वाला हूं...।”
वह हाथ जोड़े खाकी वर्दी से लैस उन आठ व्यक्तियों के सामने गिड़गिड़ा रहा था।
वह हट्टा-कट्टा था। बीस-बाइस साल का हट्टा-कट्टा। उसका जिस्म मजबूत था, मगर उसके कपड़े उसकी गरीबी को प्रदर्शित कर रहे थे।
वह कच्चे-पक्के घरों की बनी बस्ती के बीचों-बीच बने मैदान का दृश्य था, जिसमें वह कड़ियल जवान उन आठों सिपाहियों के सामने गिड़गिड़ा रहा था।
उनमें से तीन सिपाहियों के हाथों में स्टेनगनें थीं तथा दो के हाथों में हंटर थे और बाकी डण्डों से लैस थे।
उनसे थोड़ा हट कर दो पुरानी गाड़ियां खड़ी थीं, जिनके माथे पर लाल अक्षरों में लिखा था—
राजगढ़ पुलिस।
बस्ती में बने कच्चे घरों के दरवाजों पर औरतें-बच्चे तथा बूढ़े उस तमाशे को देख रहे थे।
कड़क जवान तो कोई नजर ही नहीं आ रहा था, सिवाय उसके—जो उन आठ पुलिसियों से घिरा हुआ था।
“बेवकूफ...।” तभी एक सिपाही ने पीछे से उसकी गुद्दी पर थप्पड़ मारा—“महारानी तेरे पर खुश हुई हैं और तू जाने से इन्कार कर रहा है....!”
“न-हीं...म...मुझे महारानी के पास मत ले जाओ...।” वह जवान बिलख पड़ा।
“जाना तो तेरे को हर हाल में पड़ेगा—सीधे नहीं जाएगा तो जबरदस्ती ले जायेंगे।” एक अन्य बोला।
“नहीं...।”
तभी एक मकान के दरवाजे से एक लड़की भागती हुई आई और उस जवान से लिपट कर अपना बायां हाथ सिपाहियों की तरफ हिलाते हुए बोली—“मेरे भाई को मत ले जाओ...। बस यही तो एक सहारा है हम लोगों के जीने का...।”
“यह ऐसे नहीं जाएगा...।” एक स्टेनगन धारी गुर्राया—“अलग करो छोकरी को इससे...।”
तुरन्त एक सिपाही ने आगे बढ़कर लड़की के बाल पकड़े और खींच कर लड़के से अलग कर दिया।
बाल खिंचने से लड़की बुरी तरह से चीख उठी थी।
पीड़ा से उसका चेहरा विकृत हो उठा था।
“गिरा इस साली को नीचे!” स्टेनगन धारी दहाड़ा—“फाड़ डाल इसके कपड़े और उसे भी फाड़ डाल।”
“न-हीं...।” लड़का जोरों से चीखा—“मेरी बहन को बख्श दो—मैं चलने को तैयार हूं।”
तब तक सिपाही लड़की को नीचे गिरा चुका था और उसके गिरेहबान की तरफ हाथ बढ़ा रहा था।
“बैठ गाड़ी में...।” स्टेनगन धारी बोला—“ऐ...लड़की को छोड़ दे।”
सिपाही का हाथ वहीं रास्ते में ही रुक गया और वो सीधा खड़ा हो गया।
“बच गई...।” वह लड़की को देख मुस्कराया—“मगर जल्द ही मैं तेरी जवानी का जायका जरूर चखूंगा।”
लड़की कुछ नहीं बोली—बस बैठ कर जोर-जोर से रोने लगी। उसके बाल खुल कर उसके चेहरे पर बिखर गए थे—जिससे कि वह ऐसे लग रही थी जैसे पागल हो गई हो।
रोते हुए वह निरन्तर अपने भाई को देखे जा रही थी—जो एक गाड़ी में बैठ रहा था।
उसके देखते ही देखते सभी सिपाही गाड़ियों में बैठे और दोनों गाड़ियां धूल उड़ाती हुईं वहां से रवाना हो गईं। तभी उस लड़की के घर से एक बुजुर्ग दम्पति निकले—और दोनों पति-पत्नी छाती पीटते हुए अपनी बेटी के पास आकर दहाड़ें मार कर रोने लगे।
“हाय मेरा बेटा...।”
“हम बर्बाद हो गए...तबाह हो गए। हमारा सब कुछ लुट गया।” बुर्जुग अपनी छाती पीटते हुए रो रहा था।
बस्ती वाले दूर खड़े होकर उनका रोना देख रहे थे, लेकिन किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी जो उनके पास जाकर उससे सांत्वना के दो बोल बोलता।
सभी के चेहरों पर दहशत नजर आ रही थी।
“अब नहीं बचेंगे वह तीनों...।” बस्ती के लोगों में मौजूद एक औरत अपने पास खड़ी औरत से बोली।
दूसरी औरत ने चौंक कर उसे देखा।
“हां...।” पहली औरत ने गहरी सांस छोड़ी—“बेटा तो गया। महारानी आज रात उससे खेलेगी और सुबह...।” उसने आह भरी—“बेटी पर सैनिकों की नजर पड़ चुकी है। जो आज रात ही इसे उठा ले जायेंगे...और बेटे-बेटी के बिना बूढ़ा-बुढ़िया भी कुछ रोज में दम तोड़ देंगे...। बेचारे...!”
दूसरी औरत के चेहरे पर दर्द उमड़ आया।
“यह हमारा दुर्भाग्य है बहन कि हम इस देश में पैदा हुए...।” वह बोली—“जब तक महाराज थे, तब तक तो हम खुद को भाग्यशाली समझते रहे, लेकिन इस डायन ने गद्दी पर बैठते ही ऐसा कोहराम मचाया है कि...।”
उसके आगे के शब्द रुलाई में डूब गए।
“पता नहीं कब हमें इस डायन से छुटकारा मिलेगा।” पहली की भी आंखें बहने लगीं।
मैदान के बीचों-बीच दोनों बुजुर्ग और लड़की अभी भी दहाड़ें मार कर रो रहे थे।
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काफी बड़ा कमरा था वह—जिसके बीचों-बीच वही लड़का खड़ा थर-थर कांप रहा था। उसके आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।
उस लड़के के दायें-बायें, दीवारों से लगकर दस व्यक्ति खड़े थे। जिन्होंने काले कपड़े पहने हुए थे और सिर भी काले कपड़ों से ढके हुए थे।
बस उनके चेहरे ही नजर आ रहे थे—या हाथ, जिनमें उन्होंने तलवारें पकड़ी हुई थीं।
कमरे का वातावरण बिल्कुल भूतिया नजर आ रहा था।
जगह-जगह दीवारों पर मशालें जल रही थीं, तथा चर्बी के जलने की गंध नथुनों में घुस रही थी। कमरे की गुम्बदनुमा गोल छत में नक्काशी की हुई थी—तथा दीवारों पर प्रेतों की, पिशाचों की तस्वीरें बनी हुई थीं।
जिस जगह पर वह लड़का खड़ा था—उसके पैरों के नीचे बर्फी के आकार के खाने बने हुए थे—जिनमें अलग-अलग संख्याएं लिखी हुई थीं। जैसे वह कोई सिद्धि मंत्र हो।
तभी लड़के के ऐन सामने वाली दीवार में लगा दरवाजा खुला और एक व्यक्ति दरवाजे से निकल कर कमरे में प्रविष्ट हुआ।
सुर्ख आंखों वाले उस व्यक्ति का चेहरा काला कलूटा था। उसकी लम्बी सफेद दाढ़ी उसके सीने तक पहुंच रही थी—और सिर के बाल कंधों तक पहुंच रहे थे।
उसके माथे पर लाल धागे से बंधा एक हीरा चमक रहा था।
सुर्ख रंग का हीरा...। जैसे वह खून में डूबा हुआ हो।
बांहों पर कंधों के पास ताबीज बंधे हुए थे। गले में एक माला रुद्राक्ष की थी—तथा दूसरी सफेद मनकों की माला थी—जिसका लॉकेट मानव मुण्ड का बना नजर आ रहा था। तथा उसके हाथ में एक त्रिशूल था।
सिर्फ काली धोती पहनी हुई थी उसने...। ऊपर से नंगा था वह।
दरवाजे से निकल कर वह पल भर के लिए रुका—वहीं से लड़के को देखा—फिर आगे बढ़ा और लड़के के करीब आकर कुछ पलों तक तो उसके चेहरे को घूरता रहा—फिर उसने उस लड़के के चारों तरफ एक चक्कर ऐसे लगाया—जैसे कोई कसाई भैंस को खरीदने से पहले उसके हर हिस्से को देखता है कि उसमें गोश्त कितना है।
वह पुनः उसके सामने आकर रुका और त्रिशूल वाला हाथ ऊपर उठाते हुए खुशी भरे लहजे में बोला—
“तू भाग्यशाली है जो तुझे हमारी महारानी के साथ पूरी रात हमबिस्तर होने का सौभाग्य हासिल हो गया है। ले जाओ इसे और नहला कर इसे साफ-सुथरा करके महारानी के पास ले जाओ।”
“न...हीं...।” लड़का हाथ जोड़ उस अघोरी नजर आने वाले के पैरों में गिर पड़ा—“मुझे बख्श दीजिये, बाबा...मैं मरना नहीं चाहता।”
मगर उस अघोरी ने उसकी गिड़गिड़ाहट पर कोई ध्यान नहीं दिया—वह मुड़ा और बन्द दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
तभी दो काले कपड़ों वालों ने उसे बालों से पकड़ कर खड़ा कर दिया।
“नहीं...।” वह लड़का चीखते हुए खुद को छुड़ाने की कोशिश करने लगा—“मुझे छोड़ दो...। छोड़ दो मुझे...।” मगर उसकी कोशिश किसी काम नहीं आई।
वह खुद को उन दोनों की पकड़ से छुड़ाने में पूरी तरह से असफल रहा था।
दोनों उसे घसीटते हुए बाहर की तरफ ले जाने लगे।
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