खूनी दांव : Khooni Dav by Sunil Prabhakar
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Description
पाप का घड़ा जब कण्ठ तक भर आता है तो इन्साफ की लाठी का एक ही वार घड़े को चकनाचूर कर देता है और पापी के सारे पाप चारों दिशाओं में फैल जाते हैं। भाईजी के पापों का घड़ा भी कण्ठ तक भर गया था तो उस पर एक काला पत्थर नामक इन्साफ की लाठी का वार हुआ। कानून, प्रशासन पर एकछत्र कब्जा जमाए बैठा गुण्डा, जनता के बीच खौफ का प्रयास भाईजी के आदमियों को काला पत्थर खुला चैलेन्ज देकर मौत के घाट उतार रहा था।
पता नहीं वह काला पत्थर कौन था और क्यों वह खूनी दांव खेल रहा था। अगर वो एक बार भाईजी के हत्थे चढ़ जाता तो भाईजी उसकी तिक्का बोटी करके रख देता।
और...।
सुपर दिमाग का मालिक, सुपर-डुपर जासूस जेम्स विलियम भी काला पत्थर के पीछे पड़ गया...फिर भी काला पत्थर का खूनी दांव जारी था।
खूनी दांव : Khooni
Sunil Prabhakar सुनील प्रभाक
Ravi Pocket Books
BookMadaari
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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खूनी दांव
सुनील प्रभाकर
"बाहर कोई है...!" मनीषा सरसराये स्वर में बोली थी।
सुनकर नन्हा गोलू चौंक पड़ा।
वह उठ बैठा।
कुछ कहने के लिये उसने अपने होंठ खोले ही थे कि उसकी दृष्टि अपनी मां मनीषा के चेहरे पर पड़ी।
वह चौंक गया।
मनीषा उसे होंठों पर उंगली रखकर चुप रहने का इशारा कर रही थी।
गोलू को अपनी मां की ये मुद्रा बड़ी ही प्यारी लगी। उसका दिल किया कि उसकी मां यूं ही इसी मुद्रा में उसे देखती रहे।
किन्तु तभी उसका ध्यान अपनी मां की पेशानी पर छलछलाये पसीने पर गया।
वह गम्भीर हुआ।
"कौन...हो सकता है...?" वह राजदाराना अन्दाज में कुछ फुसफुसाया था—"पापा तो टूर पर गये हैं।"
मनीषा चुप रही।
गोलू ने उसकी ओर देखा, तो उसे कुछ सोचने का उपक्रम करते पाया।
उसने भी अपने कान खड़े कर लिये तथा सुनने की चेष्टा की तो उसकी आंखें गोल हो गईं।
बाहर किसी के चलने का स्वर गूंज रहा था। यूं जैसे कोई सीढ़ियों पर दबे पांव चढ़ता हुआ उनके फ्लैट की ओर बढ़ता चला आ रहा हो।
"मम्मी...मम्मी...! कौन हो सकता है? वह भी इतनी रात गये।"
मनीषा भला क्या जवाब देती?
वह तो स्वयं इसी विषय पर सोच रही थी। निरन्तर एक ही प्रश्न उसके मस्तिष्क में कौंध रहा था कि कौन हो सकता था?
उसकी दृष्टि वाल क्लॉक की ओर गयी।
तीन बज रहे थे।
वह गोलू को अपने परिपुष्ट वक्षों से चिपटाये मातृत्व की गुदगुदाहट भरी नींद में खोई हुई थी कि इस आहट के स्वर ने उसे नींद में ही चौंका दिया था।
वह चौंक पड़ी थी।
बात चौंकने की थी भी।
वैसे भी जब सुनील घर पर नहीं होता था, तो वह सावधान रहती थी।
ऐसा जरूरी भी था। शहर में चोरी, डकैती के साथ-साथ बलात्कार की घटनायें बढ़ रही थीं। अपराधी घर में महिलाओं को अकेली पाकर घुस जाते थे और भयंकर अपराध करते थे।
इसलिये पति की गैर मौजूदगी में अन्य जागरूक महिलाओं की तरह वह स्वयं सावधान रहना पहला फर्ज समझती थी।
यही वजह थी कि एक मामूली खटके से ही उसकी आंखें खुल गयीं थी।
उसके कान खड़े हुए थे तो उसने पाया था कि आहट सीढ़ियों की ओर से उभरी थी।
सीढ़ियों के नीचे का डोर उसने स्वयं लॉक किया था। फिर ये आहट...!
वह सोचने पर बाध्य हुई थी।
क्या कोई चोर—या फिर—सुनील...?
नीचे व ऊपर की चाबी केवल सुनील के पास थी।
"मम्मी...!" तभी गोलू बोला था—"किस सोच में डूब गईं? कौन आ रहा है?"
"यही तो मैं सोच रही हूं।" मनीषा का स्वर तीव्र सुगबुगाहट से भरा हुआ था—"तेरे पापा तो आ नहीं सकते। अभी उन्होंने दोपहर फोन किया था कि वे बैंग्लोर में बिजी हैं।"
"ओह...!" गोलू ने समझदारों की तरह गर्दन हिलाई थी।
तभी आहट आकर दरवाजे के निकट रुकी।
साथ ही की-होल का छल्ला एक ओर को घूमा।
"क्लिक...!"
एक हल्का-सा स्वर।
उस स्वर को वह लाखों में पहचान सकती थी। ये लॉक खुलने का स्वर था।
मनीषा के कण्ठ से निःश्वास फूट पड़ी।
निश्चित रूप से बाहर सुनील था। कारण यह कि उसने सुना था कि ऐसे अवसरों पर चोर-बदमाश मास्टर-की का इस्तेमाल करते हैं और मास्टर-की द्वारा एक झटके में लॉक नहीं खोला जा सकता—कम-से-कम एक-दो बार ट्राई के बाद ही दरवाजा खुलता था। जबकि एक बार में दरवाजा खुलना सबूत था इस बात का कि बाहर सुनील ही था।
तो फिर सुनील का फोन? क्या वह किसी आपात कालीन फ्लाइट से आया था? या फिर उसने अचानक पहुंचकर सरप्राइज देना चाहा था?
ऐसा स्वाभाविक था।
सुनील की शरारतों से वह अच्छी तरह वाकिफ थी। ऐसी हरकतें वह अक्सर करता रहता था।
शादी के बाद तो वह यूं आकर कहा करता था कि वह ये देखना चाहता था कि उसकी पीठ पीछे वह किसी अपने किसी पुराने आशिक के साथ गुलछर्रे तो नहीं उड़ाया करती।
सुनकर पहले वह हंस देती थी और कहती थी कि तुम थोड़ा चूक गये—आशिक तो अभी-अभी निकल गया।
सुनकर वह हंस पड़ता था।
किन्तु!
एक बार वह गम्भीर हो गई थी।
तब...तब...सुनील बुरी तरह घबरा गया था। बड़ी मुश्किल से उसे मनाया था।
उसके प्रैग्नेंट होने के बाद सुनील ने ये आदतें बन्द कर दी थीं। किन्तु उस रात लगता था कि उसका पुराना शगल फिर जाग उठा था। सोचते हुए वह मन-ही-मन मुस्करा उठी।
गोलू ने उसे मुस्कराते देखा, तो वह भी मुस्करा दिया शायद।
मनीषा उठी। उसने लिहाफ हटाया और दरवाजे की ओर बढ़ी ही थी कि दरवाजा जरा-सा खुला।
"आ जाओ...सुनील...! मैं तुम्हें पहचान चुकी हूं—शर्माने की जरूरत नहीं।"
दरवाजे का खुलना नहीं रुका।
ज्यों-का-त्यों।
मनीषा के होंठों की मुस्कान और भी गहरी हो उठी।
"कम सुनील...! ज्यादा नाटक अच्छा नहीं होता....न ही मैं डरने वाली हूं। कम...! प्लीज कम...!"
प्रत्युत्तर में दरवाजा झटके से खुला। मनीषा की दृष्टि सामने पड़ी।
अगले ही पल उसके कण्ठ से आतंक भरी चीख निकल गयी।
दरवाजे पर एक जीता-जागता राक्षस सरीखा व्यक्ति खड़ा था।
¶¶
"नटवर सेठ...!"
"यस मिस्टर मारकोनी...!"
"कहिये किसलिये आना हुआ?"
"आपसे कुछ काम था मिस्टर मारकोनी—एक जरूरी काम।"
"यहां जो आते हैं उन्हें जरूरी काम ही हुआ करता है। काम बोलो।"
"मुझे एक काम करवाना है। कीमत जो तुम चाहो—काम जो मैं चाहूं।"
"कीमत का पता काम जानने के बाद ही चल सकता है। काम बताओ।"
"एक आदमी के पास थोड़ी-सी जमीन है—जोकि निरर्थक पड़ी है।"
"थोड़ी-सी जमीन—निरर्थक...!" मारकोनी ने अपनी आपस में जुड़ी भौंहे उठायीं थीं—"कोई भी जमीन निरर्थक नहीं पड़ी रहती। वह खाली भी पड़ी रही तो निरर्थक नहीं होती—उसकी कीमत बढ़ती रहती है।"
"यही सही—मुझे वो जमीन चाहिये।"
"तो खरीद लो।"
"पांच सौ गज जमीन के दाम कितने हुए मालूम है आपको?"
"तो जमीन पांच सौ गज है?" मुस्कराया था मारकोनी।
"त...तुम्हें कैसे पता चला?" नटवर सेठ उछला था।
"अभी तुमने बताया।"
"ओह...!" नटवर सेठ के जेहन को झटका-सा लगा था—"काफी चालाक हो।"
"हम जैसे आदमी चालाक ही होते हैं। केवल दिमाग के बूते पर न केवल हम एक वक्त की दारू व मुर्गा खाते हैं वरन् दिमाग के बूते पर ही हम जिन्दा भी रहते हैं।"
"ओह...!"
"जमीन किसकी है?"
"एक आदमी की—जिसकी जवान बेटी है। किन्तु वह बेटी की शादी की जुगत भी भिड़ा ले गया। हमने सोचा था कि शादी में वह दस-बीस-पचास हजार रुपये कर्ज लेगा और हम स्टाम्प पर पचास हजार से पचास लाख बना देंगे, किन्तु उस बेवकूफ ने कर्ज लिया ही नहीं और शादी के सारे प्रबन्ध कर डाले।"
"आदमी रसूख वाला है?"
"हर्गिज नहीं।"
"उसका कोई रिश्तेदार सरकार में तो नहीं?"
"नहीं!"
"दस-बीस आदमी उसके साथ?"
"नो...वह गरीब है। साथ ही बेहद सीधा-सादा भी। ऐसे आदमी का कौन साथ देगा?"
"लेखक या पत्रकार तो नहीं?"
"नहीं! किन्तु आपने ये क्यों पूछा?"
"लेखक व पत्रकारों की कौम बड़ी खराब होती है। इसके पास आदमी न हों—जेब में एक रुपया भी न हो तो भी ये यूं शोर मचाते हैं कि बात सम्भाले नहीं सम्भलती। शेषदत्त नामक लकड़ी के एक दारूबाज ठेकेदार ने एक लेखक के पांच शीशम के पेड़ जबरन कटा लिये और पैसा नहीं दिया था। उसके लायक बेटे उस के नक्शे कदम पर चलते हुए सूखी टहनियां भी लाद ले गये। प्रशासन ने भी उस बेचारे लेखक की मदद नहीं की और दर-दर की ठोकरें खाता रहा। निराशा से घिरा वह बेचारा अपनी पर आया और फिर इन बेईमानों के बारे में इतना लिखा कि लकड़ी की कीमत उस ठेकेदार को देनी ही पड़ी। इसलिये इस कौम वाले व्यक्ति पर भी मैं हाथ नहीं डालता।"
"वह इनमें से भी कोई नहीं। वह एक खोमचा लगाता है।"
"ख...खोमचा...!" मारकोनी की आंखें फैली थीं—“एक खोमचे वाले के पास इतनी ढेर सारी जमीन?"
"बुढ़ापे में उसे एक बेटा मिला है—उसकी उम्र बमुश्किल एक वर्ष की होगी। उसी के लिये उसने वो जमीन छाती-पेट से लगा रखी है।"
"माई गॉड! जब तक वह जवान होगा तब तक उस जमीन की कीमत दसियों गुना बढ़ जायेगी। उसे वो जमीन मिली कैसे?"
"आज से दस-पन्द्रह साल पहले उसकी एक ताई ने वो जमीन उसके नाम की थी और स्वर्ग सिधार गई थी—उसी की तरह वो छिल्लड़ भी उस जमीन को छाती-पेट से लगाये हुए है।"
"तुम चाहते क्या हो सेठ?"
"मैं तुम्हें पारिश्रमिक देने के अतिरिक्त मात्र लाख-दो लाख रुपये खर्च करके वो जमीन हथियाना चाहता हूं।"
"कब्जा कर लो न।"
"कब्जे से बात नहीं बनेगी। वह कानून की मदद लेगा और सम्भव है कि मुझे जमीन खाली करनी पड़ जाये। जबकि मैं उसे हासिल करके वहां एक फाइव स्टार होटल बनाना चाहता हूं। उस पर लाखों-करोड़ों का खर्च आयेगा। ऐसे में अगर जमीन की कीमत भी सिर पर आ चढ़ी तो मेरी शामत आ जायेगी।"
"यानि कि वो जमीन चाहिये ही चाहिये?
"हां! वह भी पक्के तौर पर। रजिस्ट्रीशुदा...!"
"मिलेगी।"
"कीमत?"
"दो लाख रुपये।"
"ब...बस...!" नटवर सेठ के स्वर में हैरानी थी।
"मैं काम के मुताबिक ही पैसा लेता हूं। वह भी पूरी ईमानदारी के साथ।"
"काम हो जायेगा न?"
"मारकोनी ने आज तक जो काम हाथ में लिया उसे पूरा किया। तुम जानते हो। मारकोनी का नाम ही कामयाबी का सर्टीफिकेट है। उसी सर्टीफिकेट की शोहरत तुम्हें यहां खींच लायी है।"
"म...मुझे यकीन है।"
"आधा एडवांस...!"
"मिलेगा—मैं रुपये साथ लाया हूं। किन्तु क्या मैं जान सकता हूं कि काम कैसे होगा?"
"जरूर...!" मारकोनी की नीली आंखों में अजीब-सी चमक थी—"सुनो! उसकी बेटी की शादी अभी हुई नहीं न?"
"नहीं...किन्तु बस होने वाली है। अगले माह की 15 तारीख को शादी होगी।"
"बस तो फिर बन गया काम—वो बुड्ढा नाचते हये पक्की रजिस्ट्री करेगा। मेरी योजना सुनो।"
उसने योजना बताई।
नटवर सेठ की आंखें फैल गईं।
"य...ये...ये...!" वह हैरत से बोला था—"ये सब होगा?”
"हां, वह भी पूरी सफाई से।"
"ओह गॉड...! किन्तु मैं तो नहीं फंसूंगा?
"तुम्हारे फंसने का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि तुम्हारा नाम बीच में आयेगा ही नहीं।"
"ल...लेकिन रजिस्ट्री के समय वह समझ जायेगा कि ये सारा किया-धरा मेरा ही है।"
"समझेगा—किन्तु कुछ कर न सकेगा क्योंकि उसके दिलो-दिमाग पर बेटी की मुकम्मल बर्बादी का खौफ सवार होगा।"
"बाद में वह गड़बड़ करना चाहे तो?"
"कर न सकेगा क्योंकि एक बार बैनामा रजिस्ट्री के बाद उसे पलट पाना असम्भव प्रायः होता है। उसमें वह साफ-साफ लिखेगा—कोर्ट में बयान भी देगा कि उसे जमीन के एवज में मिलने वाली अमुक पूरी रकम मिल चुकी है। रजिस्ट्री करते वक्त विक्रेता को इस बात की घोषणा स्पष्ट करनी होती है कि उसे कीमत मिल चुकी है। वह यही बयान कोर्ट में भी देगा। यानि कि रजिस्ट्री के वक्त रजिस्ट्रार मजिस्ट्रेट पूरी तरह आश्वस्त हो जाता है—तभी रजिस्ट्री ओ० के० करता है। बाद में रजिस्ट्री करने वाला कितनी ही कोशिश क्यों न कर ले कुछ नहीं हो सकता। रजिस्ट्री के वक्त इसलिये पूरी जांच-पड़ताल की जाती है। ताबीर के साथ-साथ उसके अंगूठे के निशान व दस्तखत इसलिए किये जाते हैं कि बाद में उन सबूतों को काटा नहीं जा सकता।"
"मैं...मैं समझ गया। आपकी बात सत्य है। किन्तु क्या सचमुच ऐसा ही होगा जैसा आपने कहा?"
"निश्चित रूप से होगा। कारण यह कि मारकोनी उस नाग का नाम है—जिसका काटा शिकार पानी नहीं मांग सकता।"
"मुझे पूरी उम्मीद है...किन्तु इस दो लाख के अतिरिक्त मुझे रामप्रसाद को कितने रुपये देने पड़ेंगे?"
"एक पैसा भी नहीं।"
"क...क्या?"
"हां, अगर पैसा ही देना था तो फिर मेरी क्या जरूरत थी? तुम्हें केवल दो लाख रुपये सूखे खर्च करने पड़ेंगे। साथ ही अगर शुक्राना देना है, तो ब्लैक नाइट की दो चार बोतलें भिजवा देना। ये साली देसी शराब कलेजे को खाये जा रही है।"
"जरूर...जरूर...क्यों नहीं...ये रहे एक लाख...! और शुक्राना एडवांस में—पूरी दस बोतलों के रूप में शाम तक पहुंच जायेगा।"
कहने के साथ ही नटवर उठ खड़ा हुआ था।
उसने हजार-हजार के नोटों की एक गड्डी उसकी ओर उछाली और फिर उठ खड़ा हुआ।
¶¶
मारकोनी चन्द पलों तक उस दरवाजे को देखता रहा जिससे निकलकर नटवर सेठ गया था।
तदुपरान्त!
वह सीधा हुआ।
उसने नीचे काउण्टर में हाथ डाला—उसका हाथ बाहर आया तो उसमें एक छोटा-सा खूबसूरत फोन दबा हुआ था। उसने उसे टेबल पर रखा और नम्बर पुश किया—255416
दूसरी ओर बेल जाने लगी।
वह प्रतीक्षारत् हो गया।
नवीं बेल पर फोन रिसीव किया गया।
"कौन है?"
दूसरी ओर से गुर्राता स्वर उभरा था।
"मारकोनी...!"
"किसलिये फोन किया?" स्वर में नर्मी जरा भी नहीं उभरी थी।
"गुड्डू भाई से बात करनी है।"
"नहीं हो सकती।"
"जरूरी है।"
"पूरी बात बोलो।"
"जरूर, किन्तु भाई जी से।"
"मिस्टर मारकोनी...!"
"फायदे का सौदा है और ऐसे सौदे के बारे में भाई जी का खास आदेश है कि सीधे उनसे सम्पर्क किया जाये।"
"...!"
प्रत्युत्तर में सन्नाटा।
"सलीम भाई सोच लो—बात करना जरूरी है।"
"नहीं हो सकती।"
" ओ० के०! भाई जी से जब मेरी बात होगी, तो मैं बता दूंगा कि करोड़ों के फायदे की बात होते हुए भी सलीम भाई ने बात नहीं कराई। उन पर क्या प्रतिक्रिया होगी आप स्वयं झेल लेना।"
"धमका रहा है—मारकोनी...! सलीम को धमका रहा है?"
"हकीकत बता रहा हूं। मैं जानता हूं कि सलीम भाई के शरीर में इतनी ताकत है कि उसके एक ही घूंसे में जंगली भैंसा धराशायी हो सकता है। किन्तु वही सलीम भाई, भाई जी के सामने थर-थर कांपता है।"
"भाई केवल भाई जी को बोल—मुझे सलीम सलमानी बोल...!"
"सलमानी तो आपकी मां का नाम था।"
"हां...!" स्वर में कहर का भाव उभरा—"वह जिसे आज से बीस वर्ष पूर्व एक वनमानुष उठा ले गया था। मेरे अब्बा शिकार के शौकीन थे इसलिये शादी के बाद वे मेरी मां को अपने शिकार के जलवे दिखाने के लिये जंगल लेकर चले गये। शिकार तो उन्होंने किया, किन्तु ताजा-तरीन बीवी से हाथ धो बैठे। वह गायब हो चुकी थी। खूब ढूंढ मची—पूरे छह महीने बाद मेरी मां सलमा सलमानी बरामद हुई तो उसका पेट फूला हुआ था। डॉक्टर ने पूरे छ: माह का गर्भ बताया। मां ने बताया कि एक वनमानुष उसे उठा ले गया था और पूरे छह महीने तक एक गुफा में निरन्तर उसके साथ बलात्कार करता रहा। उसी के बलात्कार का परिणाम मैं हूं। मुझे असमय मां के पेट से निकालने के लिये तमाम इन्तजाम किये गये। जिससे कि एक वनमानुष की सन्तान को सभ्य समाज में जन्म लेने से रोका जा सके। किन्तु कामयाबी नहीं मिली—उल्टे मेरी मां की जान पर बन आयी। तब...तब डॉक्टरों ने घोषणा की कि आगन्तुक को कोई रोक नहीं सकता और अगर ऐसा किया गया, तो मां की मौत सुनिश्चित थी। मेरे पिता जी खून के घूंट पीकर रह गये। मां से उन्हें बेहद लगाव था। उन्हें मेरी प्रतीक्षा करनी ही पड़ी। मैं इस संसार में आने को हुआ, तो इतना मोटा ताजा था कि डॉक्टरों को मेरी मां का पेट फाड़ना पड़ा। वह भी इस हद तक कि वह बच न सकी। बीस साल पहले का विज्ञान इतना आगे न था कि उसे बचाया जा सकता।"
मारकोनी स्तब्ध-सा सुन रहा था।
स्वर आगे उभरा।
"मैं पैदा हुआ तो बाप मुझसे घोर नफरत करने लगा। वह मुझे पीटता मारता...कई बार मुझे मार डालने का प्रयास किया, किन्तु में बच गया। यहां तक कि मैं पांच साल का हो गया। तब...तब मेरे बाप ने एक दिन मुझे मारा—जैसा कि पहले मारता था—बिना कुसूर...मुझे गुस्सा आ गया। मैंने उसे दोनों हाथों में उठाया और दीवार पर दे मारा। उसकी खोपड़ी छिटक गयी। वह मर गया। मैं कत्ल के इल्जाम से बचने के लिये भाग छूटा—और फिर जरायम की दुनिया में मेरा प्रवेश हुआ और भाई जी के यहां शरण मिली।" वह जरा-सा ठिठका फिर आगे बोला—"मेरे पालतू बाप ने मेरा नाम सलीम रखा था। चूंकि मेरा असली बाप एक वनमानुष था और वनमानुष का कोई नाम नहीं होता और पालतू बाप (पालक पिता) अपना नाम देने को राजी न था इसलिये मेरा नाम सलीम सलमानी पड़ा।"
"आज ये सब मुझे क्यों बता रहे हैं?" मारकोनी भी हकलाया था।
"इसलिये कि मेरी स्थिति तुम्हारे सामने स्पष्ट रहे—और तुम समझ सको कि मैं भाई जी से डरता नहीं वरन् कद्र करता हूं। उन्होंने मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया। सोते-जागते मेरा ध्यान रखा। यहां तक कि पढ़ाया व इस योग्य बनाया कि दस-बीस इन्सान मेरा सामना न कर सकें। यहां तक कि अभी मैं फोन पर गुर्रा दूं तो तेरे कान के पर्दे अभी फट जायेंगे मारकोनी और तू अभी दम तोड़ देगा।"
"न...नहीं...!" मारकोनी ने चिहुंकते हुए रिसीवर कान से दूर हटाया।
"डर मत...! मैं ऐसा करूंगा नहीं।" दूसरी ओर से जैसे शैतान हंसा था—"मैं केवल तुझे सावधान कर रहा हूं। अब अपने पेशाब को रोक और भाई जी से बात कर...!"
"जी शुक्रिया...!"
"एक बात और...!"
"फरमाइये।"
"तूने एक बार कहा था कि तू मुझे एक लड़की उपलब्ध करायेगा—ताजा-तरीन—किन्तु तूने अभी तक ऐसा किया नहीं।"
"किसकी मौत आयी है, जो वह राजी होगी। ये क्यों भूलते हो कि आपका सान्निध्य पाने वाली लम्बी-चौड़ी अधेड़ औरत भी जीवित नहीं बचती।"
"सो तो है—सब बीच में ही ठण्डी पड़ जाती हैं। न जाने कैसे मेरी मां ने मेरे बाप को इतने दिनों तक झेला होगा?"
"फिर भी मैं कोशिश करूंगा।"
"व...वायदा कर...!"
"किया।"
"पक्का?"
"प...पक्का...!"
"कब?"
"मालूम नहीं—जब वो लड़की नजर आयेगी जो ताजा-तरीन तो होगी ही उसे आपके नीचे मरना लिखा होगा—मेरा मतलब उसकी तकदीर में लिखा होगा तब पेश कर दूंगा।"
"उसकी तकदीर पढ़ लेगा?"
"बेशक!"
"समझदार है तू...!" दूसरी ओर से उभरने वाला स्वर विचित्र अन्दाज में हंसा। ये अलग बात थी कि उसका हंसना ठीक ऐसा था जैसे फटे बांस को फर्श पर हौले-हौले पटकना आरम्भ कर दिया गया हो। अजीब-सा सर्द कहकहा लगाने के बाद कहा गया—"तेरी बातों ने सलीम सलमानी को खुश किया। अब तू भाई जी से बात कर। तेरी लाइन मैं भाई जी की फोन लाइन से जोड़ रहा हूं।"
"शुक्रिया!"
"तेरा शुक्रिया तब लूंगा जब तू मेरा तोहफा मुझे भेंट करेगा—ले बात कर।"
¶¶
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Additional information
Book Title | खूनी दांव : Khooni Dav by Sunil Prabhakar |
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Isbn No | |
No of Pages | 272 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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