खिलौनों को बना दो हथियार
राकेश पाठक
“ये वक्त बच्चों को खिलौने देने का नहीं है भाईयों और बहनों...!” एक गूंज भरी कड़क आवाज ने मेले में सम्मिलित लोगों का ध्यानाकर्षित किया––“मत खरीदों इन खिलौनों को––मत खर्च करो पैसों को बेजान खिलौनों पर––वापिस कर दो सारे खिलौने––अपने पैसों को हथियारों पर खर्च करो–––हथियारों पर––आज की जरूरत और हालातों को समझो–वक्त की नब्ज को पकड़ो तुम लोग––हालात कितने खराब हैं हमारे मुल्क के––चारों तरफ दंगा और फसाद––जुल्मो–सितम के दरिया बह रहे हैं––जिनमें नहाने वाला तबाह हो जाता है। केसर के खेतों में भी अब खुशबू नहीं रही है––फिजाओं में बारूद की बदबू घुल गयी है। ढोल, पखावज और सन्तूर की दिल लुभाने वाली आवाज ना जाने कहाँ खो गयी है? अब तो गोलियों, बमों और तोपों के कानफोड़ धमाके ही सुनने को मिलते हैं––कबीर, रहीम के दोहे गुम से हो गए हैं और जालिमों की गालियां पिघले शीशे की तरह कानों से होकर दिल तक उतर जाती हैं–जुल्मियों की किलकारियों ने मन्दिर की घण्टियों की आवाज को दबा दिया है––अमन के दुश्मनों के ठहाकों में अजानों की आवाज छिप–सी गयी है––दीपावली पर पटाखों और फुलझड़ियों की बजाए गोलियां चलती हैं, बम फूटते हैं और तोपें गरजती हैं––होली पर रंगों की बजाए खून का इस्तेमाल होता है––ईद पर मौत से गले मिला जाता है और गम के निवालों के साथ दहशत के आँसुओं की घूंट भरी जाती है––खुशियां मातम कर रही हैं––हंसी रूठकर गमों की पनाह में चली गयी है––बच्चे मौत के पालने में झूल रहे हैं––माँ बच्चों को दूध की बजाय खून के आँसू पिलाने को मजबूर हैं––जवानों के सिर पर मौत का सेहरा बांध दिया जाता है––दुल्हन को अपनी लुटी हुई अस्मत के चिथड़ों का लिबास पहनना पड़ता है––वो तबाही की डोली में बिठा दी जाती है––उसे कांटों की सेज पर तबाही के साथ सुहागरात मनानी पड़ती है––हमें गुलामी की जंजीरों से बांध दिया गया है––आजादी देखने को आँखें तरस रही हैं––ऐसे में अपने बच्चों को तुम लोग खिलौने खरीद कर दे रहे हो? क्या होगा इन बेजान खिलौनों से? एक–दो रोज में टूट जायेंगे––जब बच्चे ही नहीं रहेंगे तो खिलौनों से कौन खेलेगा? अपने बच्चों को देना ही है तो हथियार दो––उन्हें हथियार चलाना सिखाओ––बच्चों को फिरंगियों से लड़ने की सीख दो––बच्चों को ये बताओ कि जुम्मे की एक नमाज न पढ़कर एक फिरंगी को मार गिराओ तो कई नमाजों का शबाब मिलेगा––एक जालिम फिरंगी को मारने से कई बार की पूजाओं का फल मिल जायेगा–––।”
“कौन कम्बख्त है ये...?” एक खिलौने बेचने वाला, पागल से नजर आने वाले उस फटेहाल बूढ़े को नफरत व गुस्से भरी नजरों से घूरते हुए बोला––“खामख्वाह की ही बकवास किये जा रहा है।”
“इसे यहाँ से भगाना पड़़ेगा भाईयों...।” दूसरा खिलौने विक्रेता जल–भुन कर बोला––“साल भर में एक ही तो मेला लगता है, जिसमें सभी माँ–बाप अपने बच्चों को खिलौने खरीद कर देते हैं––हमारे इतने खिलौने बिकते हैं कि कई महीने का खर्चा निकल आता है––इसके बहकावे में आकर लोगों ने खिलौने नहीं खरीदे तो हमारा क्या होगा? नकद पैसे देकर फुलत सिटी से खिलौने लाये थे––दुकानदार वापिस नहीं लेंगे––पहले ही बोल दिया था कि बिका हुआ माल वापिस नहीं होगा––अगले मेले तक तो सारे खिलौने बेकार हो जायेंगे––ये पागल हमारे पेट पर लात मारने आया है।”
“इसे भगाओ...।” एक दुकानदार चीखा।
“इसे उठाकर मेले से बाहर फेंक दो।”
“नहीं, इसे पुलिस के हवाले कर दो––जब पुलिस को मालूम होगा कि ये फिरंगियों को गाली बक रहा था तो इसे जान से मार दिया जायेगा––दुकानें लगाने के वास्ते हमने पुलिस वालों को भी रकम दी है––पुलिस वाले हमारा ही साथ देंगे और इस पागल को बहुत पीटेंगे।”
“हाँ, बुला लो पुलिस को...।” दुकानदारों की बातों को सुनकर वह बूढ़ा चीख कर बोला––“बुलाओ वर्दी वाले फिरंगियों को––गोली मार देंगे मुझे या सूली पर चढ़ा देंगे––कौन कम्बख्त जीना चाहता है? जीने को बाकी बचा ही क्या है, मुझ अभागे के लिये? किसके लिये जी रहा हूँ मैं भला? दो जवान बेटे थे––मेरी बीवी तो बहुत पहले मर गयी थी––मैंने माँ बनकर उन दोनों की परवरिश की थी––उन्हें नहलाता था, कपड़े पहनाता था––अपने हाथों से खाना बनाकर खिलाता था––मन्दिर और मजार पर जाकर उनकी सलामती की दुआ माँगता था––उनको अपना खून पिलाकर जवान किया था––दोनों की शादी करके चाँद–सी बहुएं लाया था––मेरे आँगन में पोते और पोती के रूप में दो फूल खिले थे––मानो ऊपर वाले ने दुनिया भर की तमाम खुशियां मेरी झोली में डाल दी थीं––लेकिन मैं भूल गया था कि हमारा नसीब और खुशियां तो फिरंगियों की मुट्ठी में कैद हैं––धरती माँ को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराने को मैं और मेरे दोनों बेटे क्रांति की आग में कूद गए थे––नतीजा जानते हो क्या हुआ था? फिरंगियों ने मेरे दोनों बेटों को मेरी ही आँखें के सामने गोलियों से भून डाला था––मेरे पोते और पोती को जिन्दा ही आग में भून डाला था––मेरी बेटी समान बहुओं को चैराहे पर जलील किया गया था––हरामियों ने उन दोनों की इज्जत की धज्जियां उड़ा दी थीं––ना जाने हवस के कितने भेड़ियों ने उनकी इज्जत को नोंचा था––दोनों ने चौराहे के ही एक कुएं में कूद कर जान दे दी थी––इन...बदनसीब हाथों से एक या दो नहीं, छ: लाशों का अन्तिम संस्कार किया था मैंने––मेरे घर की रौनक चली गयी थी––मेरा घर अचानक ही जैसे “मशान बन गया था––तुम लोगों की फिरंगियों के साथ कोई रिश्तेदारी नहीं है––जैसा मेरे साथ हुआ है, तुम लोगों के साथ भी हो सकता है––जब घरों में बच्चे ही नहीं रहेंगे तो किसे खिलौने बेचोगे और किसके लिये खिलौने खरीदे जायेंगे?”
माहौल यकायक ही गम्भीर होता चला गया।
बाल–बच्चों वालों की आँखों में आँसू भर आये।
जिनके हाथों में खिलौने थे, उन्होंने रख दिये और अपने बच्चों को सीने से कस कर भींच लिया।
मानो कोई उनके बच्चों को छीनने वाला था।
यकायक ही घोड़ों की टापों से वातावरण गूंजने लगा।
मेले में मानो कोई भूचाल आ गया।
लोग घबरा कर, चीखते–चिल्लाते हुए इधर–उधर भागने लगे।
¶¶
सफेद वर्दी वाला अंग्रेज अफसर काले रंग के घोड़े पर सवार था––इन्सपेक्टर की वर्दी वाला केसरगढ़ी अफसर भी काले घोड़े पर सवार था और उस अंग्रेज अफसर के साथ–साथ चल रहा था।
उन लोगों के पीछे पचास के लगभग घुड़सवार सिपाही थे––उनके कन्धों पर बन्दूकें लटकी हुई थीं और हाथों में बेंत अथवा लाठियां थीं––वो सब भी केसरगढ़ी थे।
“किस बाट का फेयर भरटा है इडर...?”
अंग्रेज अफसर ने टूटी–फूटी भाषा में इन्सपेक्टर से पूछा।
“ये कोई धार्मिक मेला नहीं है सर।” वह खुशामदी भरे लहजे में बोला––“होली के बाद गेहूँ की फसल कट जाती है तो इस इलाके के लोग मेले में आकर जश्न मनाते हैं और खरीदारी करते हैं––गेहूँ बिकने पर इनके पास काफी पैसा आ जाता है। मेले में एक काम और होता है सर––।”
“क्या काम होटा है मैन...?”
“पैसा आने पर इलाके के लोग अपने बच्चों की शादियाँ करते हैं––लड़की वाले और लड़के वाले मेले में आ जाते हैं––लड़का और लड़की एक–दूसरे को पसन्द कर लेते हैं तो दोनों की शादी तय कर दी जाती है––लड़की वाले लड़कों को टीका कर देते हैं, शगुन का रुपया देते हैं और दूध–जलेबी की दावत कर देते हैं।”
“ओ...आई सी––यानि इस इलाके के लोग फेयर में एन्टरटेनमेन्ट के वास्टे आटे हैं, सेलीब्रेट करटे हैं और रिलेक्स होटे हैं––लेकिन इन लोगों को जश्न मनाने का, खुश होने का...कोई हक नहीं है––केसरगढ़ के लोग हमारे गुलाम होटे हैं––इनकी जिन्डगी पर हमारा राइट होटा है––फेयर पर अटैक करना माँगटा है––मेले को टबाह कर डालो––आग लगा डो––डुकानें टोड़ डालो––सबको घेरकर पीटो––सबकी हड्डी–पसली टोड़ डालो––औरटों की बेइज्जटी करो––कोई प्रोटेस्ट करे टो उसे मार डो...शूट बी किल...।”
इन्सपैक्टर ने रास हिलाकर घोड़े की दिशा बदली और सिपाहियों से बोला––“सुना नहीं तुम लोगों ने...साहब ने क्या हुक्म दिया है? मेले को पूरी तरह से उजाड़ कर रख दो––हरेक दुकान को तबाह कर दो और सामान को आग लगा दो––सभी लोगों को घेरकर पीटो––औरतों और लड़कियों की इज्जत लूट लो––कोई हरामजादा जरा–सा भी विरोध करे तो उसे गोली मार दो––आ जाते हैं ये लोग मौज–मस्ती करने के वास्ते––इनकी ऐसी दुर्गति कर डालो कि ये ख्वाबों में भी मेले में शामिल होने की बात नहीं सोच सकें।”
¶¶
हुक्म के गुलाम सिपाहियों ने अपने आका के हुक्म का पालन करने में जरा–सी भी देरी नहीं की––उन्होंने हिंसा का नाच नाचना शुरू कर दिया।
कुछ सिपाहियों ने दुकानों को उजाड़ने की जिम्मेदारी ली––घोड़ों की टापों और लाठियों से कच्ची दुकानों को तोड़ डाला और सामान को घोड़ों की टापों तले कुचल दिया, फिर आग लगा दी।
कुछ सिपाही घोड़ों को दौड़ाते हुये इधर–उधर भागते लोगों पर बेंतों और लाठियों के बर्बरता पूर्ण प्रहार करने लगे––वो एक घेरा–सा बनाते हुये ही लाठी चार्ज कर रहे थे––ताकि कोई भी भाग नहीं सके।
कुछ लोग ठोकरें खाकर तो कुछ लोग लाठियां खाकर गिरे––कुछ औरतें बच्चों समेत गिरीं तो कुछ की गोद से बच्चे ही छूट कर गिर पड़े और उन्हें सिपाहियों ने अपने बच्चों को उठाने का भी मौका नहीं दिया––गिरा हुओं को घोड़े अपनी टापों से बेरहमी से कुचल रहे थे।
मानों घोड़ों ने फिरंगी अफसर को अपना आका मान लिया था और वो अपने आका को खुश कर देना चाहते थे।
बाकी बचे सिपाहियों ने जवान औरतों व लड़कियों पर हमला बोला था––उन्होंने अबलाओं को जबरन उठाया और टूटी–फूटी दुकानों, तमोटयों या पेड़ों के झुरमुट के पीछे ले जाकर उनकी इज्जत के साथ खिलवाड़ करने लगे।
मानो, तबाही और जुल्मो–सितम का मेला लगा हुआ था।
चारों तरफ चीखो–पुकार मची हुई थी।
पीड़ा भरी चीखें, बेबसी से भरी आहें और कसमसाती हुई सिसकियां।
घोड़ों की कर्णभेदी टापों की आवाजें।
जालिमों के गगनभेदी अट्टहास।
¶¶
admin –
Aliquam fringilla euismod risus ac bibendum. Sed sit amet sem varius ante feugiat lacinia. Nunc ipsum nulla, vulputate ut venenatis vitae, malesuada ut mi. Quisque iaculis, dui congue placerat pretium, augue erat accumsan lacus