कातिल मेरी मुट्ठी में
सुनील प्रभाकर
भय, आतंक और दहशत—इन तीनों स्थिति से घिरा जगदीश खुराना जब अपने सूखे होठों को चाटता, लड़खड़ाते कदमों से चलता, अपनी परछाई से भी खौफजदा, भीड़ भरे ट्रेन के डिब्बे में घुसकर जगह न मिलने पर एक जगह कोने में फर्श पर बैठ गया और अपनी फूल गयी सांसों को सम्भाल चुका, तब कहीं उसे थोड़ी-सी तसल्ली हुई। उसे लगा कि शायद कामता प्रसाद के खूंखार हत्यारों से बच जाय।
वह दुबका-सा बैठा हर पल व्याकुल भाव से चारों तरफ देख रहा था। उसे लगता कामता प्रसाद के भेजे गए वे हत्यारे किसी भी पल ट्रेन के डिब्बे में घुसेंगे और उसे तलाश करके...।
उसने थूक निगलने की कोशिश की तो सूख गए गले में थूक अटक-सा गया। काफी कठिनाई से वह थूक निगल सका। तभी उसे महसूस हुआ कि प्यास के कारण उसका बुरा हाल है। गले में कांटे-से गड़ते महसूस हो रहे थे। कम-से-कम पांच किलोमीटर उसे भागना पड़ा था। घर से निकलकर स्टेशन तक आते-आते उसकी हालत खराब हो गयी थी। यह जान का भय था जो उसको इतनी दूर तक दौड़ा लाया था वरना शरीर की जो हालत थी, उसको देखते हुए एक किलोमीटर पैदल चल पाना भी उसके लिए कठिन था। उसे खुद विस्मय हो रहा था कि कैसे इतनी लम्बी दूरी तय कर आया है?
डिब्बे में शोर मच रहा था।
लोगों का भीतर घुसना, भीतर वालों का मना करना, आपसी बहस, ठेलमठेल, प्लेटफार्म पर सामान बेचने वाले वेन्डर्स की तीखी आवाजें, हड़बड़ाये से सीट के डिब्बों की ओर भागते यात्री—वह खामोशी से बैठा खिड़की से नजर आने वाले दृश्यों को देख रहा था। यह दूसरी बात थी कि उसका दिल बार-बार उछलकर हलक में आ अटकता कि कहीं तलाश करने वाले हत्यारे डिब्बे में न घुस आयें?
क्या था, और क्या होकर रह गया है? उसने सोचा। भवानीपुर का जाना-माना नाम, जाना-पहचाना रईस, कई कारखानों का मालिक। कोई जान-पहचान वाला भी देखता तो नहीं पहचान सकता था।
"चाय गरम।" वेन्डर की आवाज खिड़की के पास गूंजी—"चाय चाहिए, चाय...।"
खुराना जल्दी से खिड़की के समीप पहुंचा।
"एक चाय देना।" उसने जल्दी से कहा और प्लेटफार्म पर नजर दौड़ाने लगा।
उसका दिल धक्क से रह गया।
उसने उन दो आदमियों को देख लिया था जो प्रवेश द्वार के पास खड़े गाड़ी की ओर देख रहे थे। उसने चाय लेकर पैसे दिये और सावधानी के साथ एक ओर लोगों के बीच सरक गया। इस चक्कर में चाय उसके कपड़ों पर भी छलक गयी थी।
अपनी जगह बैठने के बाद जल्दी-जल्दी चाय के घूंट भरने लगा।
सूख गए कण्ठ को राहत मिली।
उसकी व्याकुल दृष्टि खिड़की से बाहर देख रही थी।
उसे पत्नी और बच्चों की याद आयी। मन हुआ गाड़ी से उतरकर घर चला जाये। उसका मन पीड़ा से भर गया। कितना विवश हो गया है? कामता प्रसाद ने सड़क का कुत्ता बनाकर रख दिया उसे। करोड़पति से सड़क का भिखारी बनाकर छोड़ दिया था। शिकारी कुत्तों की तरह कामता प्रसाद के आदमी उसकी तलाश में शहर भर में फैल गए होंगे। रेलवे स्टेशन पर दोनों की मौजूदगी इसी का प्रमाण थी। इसका मतलब है कि घर से भाग निकलने का उसका राज खुल चुका है।
"साली गाड़ी भी देर कर रही है। अब तक स्टेशन छोड़ देना चाहिए था। पता नहीं कब सरकेगी प्लेटफार्म से?"
चाय पीकर कुल्हड़ पास ही रख लिया। जेब में हाथ डालकर मसला हुआ बीड़ी का बण्डल निकाला और एक बीड़ी निकालकर सुलगा ली।
उसी समय इंजन की सीटी गूंजी।
उसका दिल धड़का।
वह मन-ही-मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगा कि किसी प्रकार गाड़ी प्लेटफार्म से सरके।
तभी दूसरी सीटी गूंजी। उसी के साथ ट्रेन हिली और सरकने लगी। जगदीश खुराना को लगा उसके गले से फांसी का फन्दा हटने लगा है। दो मिनट बाद गाड़ी रफ्तार पकड़ने लगी।
¶¶
"गाड़ी तो गयी?"
"हां।"
"अभी कोई और गाड़ी बाकी है?"
"नहीं।"
"वो हरामी खुराना तो कहीं दिखा नहीं।"
"हो सकता है साला किसी डिब्बे में छिपा हुआ रहा हो क्योंकि डिब्बों में भीड़ इतनी थी कि किसी एक आदमी को इतने डिब्बों में तलाश कर पाना काफी मुश्किल काम था—फिर भी हम दोनों ने पूरी कोशिश तो की।"
"लगता है निकल गया हाथ से।" पहले वाले ने कहा—"यह भी हो सकता है कि शहर में ही कहीं छिप गया हो।"
"है तो कमाल ही—साला, चौबीस घण्टे की निगरानी के बाद भी निकल गया। सब लोग टापते रह गए।" दूसरा बोला।
"अभी रुकना चाहते हो यहां या चला जाए?"
"कहीं हम लोगों की आफत न आ जाए।"
"कोई आफत नहीं आयेगी। खुराना के सामने भी तो चुनौती थी—वह जान पर खेलकर घर से बाहर निकला है।"
"लेकिन उसकी मदद कौन करेगा? भवानीपुर में तो कोई ऐसा है नहीं जो विधायक कामता प्रसाद के मामले में टांग अड़ाना पसन्द करे। सभी को अपना जीवन प्यारा है। कोई भी जानबूझकर कामता प्रसाद से पंगा लेकर अपनी जान जोखिम में डालना पसन्द नहीं करेगा।"
"इसका मतलब है खुराना शहर से बाहर जाने की कोशिश करेगा।"
"जाहिर है।"
"इसका मतलब है कि बाहर उसके कुछ भरोसे के दोस्त हैं। जिनके पास जाकर वह मदद लेने की कोशिश करेगा।"
इसके अलावा क्या समझा जाए?" दूसरे ने कहा—"यार, सिगरेट निकाल—तलब लगी है। काफी देर हो गयी बिना सिगरेट पिये।"
"पहले एक-एक कप चाय पीते हैं—सिगरेट बाद में पियेंगे।"
पहले वाला बोला—"आओ, टी-स्टाल पर चलते हैं।"
दोनों क्षणभर बाद टी-स्टाल पर खड़े चाय पी रहे थे। उन्होंने सिगरेटें भी सुलगा ली थीं यद्यपि वे निश्चित रहने की कोशिश कर रहे थे—मगर चिन्ता के भाव उनकी आंखों में देखे जा सकते थे। खुराना का भाग जाना कोई मामूली बात नहीं थी। उसके भागने का मतलब था कामता प्रसाद के खिलाफ बाहर बात का फैलना—जो कामता प्रसाद को किसी कीमत पर पसन्द नहीं आना था। लेकिन इसके लिए अब कुछ नहीं हो सकता था। खुराना निकल गया था—तमाम निगरानी, तमाम सतर्कता के बाद भी निकल गया था।
"उस साले इन्सपेक्टर भीमराव को क्या जवाब दोगे?" पहले वाले ने चाय का कप खाली करके काउण्टर पर रख दिया—"खाली हाथ लौटने पर पूछेगा जरूर।"
दूसरे वाले ने चाय का अन्तिम घूंट लिया और होठों पर जीभ फिराकर बोला—"बड़ा सीधा-सा जवाब—खुराना नहीं मिला। इसमें झूठ भी नहीं है।"
"एस०एस०पी० साहब के सामने भी पेश होना पड़ सकता है।"
"हो जायेंगे।" दूसरे ने कहा—"इसमें डरने की क्या बात है? अपनी तरफ से हम दोनों को जितनी कोशिश करनी चाहिये थी, क्या की नहीं? यार तू इतना घबड़ाता क्यों है? अब खुराना नहीं मिला तो इसमें हमारी गलती नहीं है।"
"भीमराव साला अलग से सिर पर सवार जायेगा।"
"देखेंगे यार, आओ चलें।"
"हूं।" पहले वाले ने गम्भीरता से सिर हिलाया।
¶¶
जगदीश खुराना को, ट्रेन के रफ्तार पकड़ लेने के बाद, बड़ी राहत महसूस हुई थी। उसको लगा कि अब वह दरिन्दों की पकड़ से बच गया है। उसने बीड़ी का कश लिया। उसको अपना दिल अब भी धड़कता महसूस हो रहा था। उसने माथे को हथेली से रगड़ा। पहली बार उसको लगा कि वह पसीने से तर है। हथेली उसने पैन्ट से रगड़ी। शर्ट का दामन उठाकर चश्मा उतारा और पसौने से भीगी गर्दन, चेहरा रगड़-रगड़ कर पौंछा।
उसने चश्मा पहन लिया।
डिब्बे में जो शोर पहले मच रहा था, अब धीरे-धीरे शान्त हो गया था। उसने अगल-बगल दृष्टि दौड़ाई। काफी लोग उसी की तरह फर्श पर बैठे थे। अपने आप में सिमटे। पूरा डिब्बा खचाखच भरा था।
उसे जवाहर खरादी की याद आयी।
जा तो रहा है खरादी के पास लेकिन पता नहीं उसकी मदद कर सकेगा या नहीं? क्योंकि अब तो शराफत की जिन्दगी जीने लगा है। जनार्दन शाण्डिल्य और उसके परिवार के खात्मे के बाद सब कुछ खत्म हो गया था। जवाहर खरादी ने भी शाण्डिल्य की ही तरह शराफत का रास्ता अपना लिया था। इधर लम्बे समय से जवाहर खरादी से उसकी भेंट भी नहीं हुई थी और न कोई बातचीत। वह अपने व्यापारिक झंझटों में इतना फंसा रहा था कि खरादी से मुलाकात ही नहीं हो पायी थी। यहां तक कि फोन पर भी बातचीत नहीं कर पाया था। और अब जो उसकी हालत थी, उसको लेकर उसके मन में संकोच था कि वह जा तो रहा है, पता नहीं कामता प्रसाद जैसे शक्तिशाली आदमी के खिलाफ उसकी कितनी मदद कर सकेगा?
जगदीश खुराना ने आह भरी और जेब से बीड़ी का बण्डल निकाल कर नयी बीड़ी सुलगा ली।
उसने सामने सिर उठाकर देखा।
उसके जेहन को करारा झटका लगा। दो खूंखार चेहरे वाले शख्स रास्ता बनाते हुए सामने से आ रहे थे। उनकी चमकदार आंखें डिब्बे में बैठे एक-एक आदमी को गौर से देख रही थीं।
खुराना को अपनी सांसें अटकती-सी लगीं। जाने क्यों उसको लगा कि वे उसी की तलाश में हैं और कामता प्रसाद के आदमी हैं। भय और आतंक से वह जड़ हो गया। बीड़ी पीना भूल गया। बल्कि पूरा शरीर ठण्डे पसीने से नहा गया।
उसके दिमाग में केवल एक ही बात आयी थी। कामता प्रसाद के यमदूतों के हाथों इतनी कोशिश के बाद भी फंस ही गया। बच पाने का कोई भी चांस उसके सामने नहीं है।
उसके शरीर में इतना भी दम नहीं था कि अपने बचाव के लिए जहां बैठा था, वहां से हिल भी सके।
पथराये नेत्रों से वह उन दोनों को देखता रहा।
और फिर उस समय वह सूखे पत्ते की तरह कांप उठा जब दो जोड़ी पैर अपने समीप रुकते देखे।
अचानक उसको लगा था कि पूरे डिब्बे में सन्नाटा छा गया।
¶¶
"सिगरेट चलेगी?" दिलीप शाण्डिल्य ने बगल में बैठे बबूना से पूछा।
"चलेगी नहीं, दौड़ेगी दिलीप भाई—दौड़ेगी। वैसे इन दोनों के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है?"
दिलीप ने एक सिगरेट बबूना को दी और दूसरी अपने होठों में दबाकर उसकी और अपनी सिगरेट सुलगाने के बाद लम्बा कश लिया तथा ढेर-सा धुआं छोड़कर बोला—"कौन दोनों?"
"सामने से आ रहे हैं। शायद दूसरे डिब्बे से। किसी की तलाश में लगते हैं।" बबूना ने सिगरेट का कश लिया था।
दिलीप शाण्डिल्य ने उन दोनों को सरसरी नजर से देखा।
जाने क्यों उसका माथा ठनका। उसकी दृष्टि उन पर टिक गयी।
"क्या लगता है?"
"मामला गड़बड़ लगता है।" दिलीप ने कहा—"जरूर किसी को ढूंढ रहे हैं।"
वे दोनों पास से निकले।
दिलीप और बबूना से उनकी आंखें टकरायीं एक क्षण को लेकिन उन दोनों की आंखों में कोई भाव नहीं उभरा था। वे पास से निकलकर आगे बढ गए थे।
एक बात जो खासतौर पर दिलीप और बबूना ने महसूस की कि उन दोनों के डिब्बे में आते ही, जो बातचीत और हल्का-फुल्का शोर-शराबे का माहौल था, वो एकाएक थम-सा गया था। उन दोनों के डील-डौल, खूंखारियत में डूबे चेहरों ने डिब्बों में बैठे लोगों के बीच एक विचित्र-सी सनसनी का माहौल पैदा कर दिया था।
"लगता है किसी की शामत आई है।" दिलीप ने सिगरेट का कश लिया। उसकी नजर उन दोनों की पीठ पर जमी रही।
बबूना धीरे-धीरे कश ले रहा था।
एकाएक दोनों सतर्क हो गए।
दिलीप की आंखें सिकुड़ीं—वे दोनों डिब्बे के फर्श पर कई लोगों के बीच बैठे, बीड़ी पी रहे, एक आदमी के सामने रुके थे। दुबला-पतला आदमी था वह। सिर के बाल खिचड़ी, आंखों पर चश्मा, कपड़े सिकुड़न भरे तथा मैले-कुचैले थे।
"शायद इसी आदमी की तलाश में थे।" बबूना ने धीरे से कहा।
"मामला गड़बड़ लगता है।"
"क्या मतलब?"
"उस आदमी का चेहरा देखो जिसके पास जाकर रुके हैं। ऐसा लगता है जैसे उसकी जान निकल गयी हो—शरीर का खून निचोड़ लिया गया हो।"
"होगा कोई मामला—हमें क्या?" बबूना ने मुंह बनाया।
तभी एक कड़कदार आवाज गूंजी—"क्यों बे खुराना—साले दांव देकर भाग रहा था? जानता नहीं कामता प्रसाद के आदेश के बाद कोई भी हरकत महंगी पड़ती है। तुझे मना किया गया था कि घर न छोड़ना। तू क्या समझ रहा था? इस प्रकार भागकर बच जायेगा?"
दूसरे शख्स ने उसे बालों से पकड़ा और बेरहमी के साथ खींचकर खड़ा कर दिया—"अब साले की बोलती बन्द है। बीवी कह रही थी कि उसे नहीं मालूम कि तू कहां जा रहा है। तुझे बीवी बच्चों का भी ख्याल नहीं रहा कि उनकी बोटी-बोटी काटकर फेंकी जा सकती है।"
वो व्यक्ति थर-थर कांप रहा था।
डिब्बे में सन्नाटा छा गया था।
सारे यात्री सहमे-से उक्त दृश्य को देख रहे थे। किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि बीच में बोल सके।
अचानक तड़ाक की आवाज गूंजी।
चश्मे वाला लड़खड़ाकर पास वाले आदमी पर लुढ़क गया। लेकिन दूसरे आदमी ने कालर थामकर खींचा और सीधा खड़ा कर दिया—"क्यों बे—कहां जा रहा था भागकर?"
"तुम लोगों से मतलब?" चश्मे वाला कालर छुड़ाने का असफल प्रयास करता बोला—"मैं कामता प्रसाद का नौकर नहीं हूं। तुम लोग मुझसे जबरदस्ती नहीं कर सकते। कामता प्रसाद ने मेरे साथ जो बदमाशी की है, मेरा सब कुछ जिस प्रकार से धोखाधड़ी करके छीना है, उसकी सजा मिलेगी उसे। कानून के साथ।"
"साले, कानून सिखा रहा है।" पहले वाले ने पुनः उसके बालों को थाम लिया और जोर-जोर से हिलाता हुआ गुर्राया—"विधायक जी को धोखेबाज कहता है? बेईमान बताता है? तुझे अपनी जान का डर नहीं है क्या?"
"कामता प्रसाद धोखेबाज है। बेईमान है। अत्याचारी है।" वो शख्स चिल्लाया जोर से—"भवानीपुर को उसने अपनी बपौती समझ रखा है। आतंक फैला रखा है उसने। हत्याएं करवायी हैं उसने—मगर अब यह सब नहीं चलेगा। मैं ऊपर तक जाऊंगा। उसकी पोल खोलूंगा। छोड़ो मुझे।"
"मारो साले को।" दूसरा खूंखार स्वर में दहाड़ा—"इसकी हड्डी-पसली एक कर दो। यह ऐसे नहीं मानेगा।"
"गोली मारकर नीचे फेंक दो गाड़ी के।" पहला बोला—"विधायक जी का आदेश भी है कि न माने तो खत्म कर दो।"
"मुझे मारकर तुम लोग भी बचोगे नहीं।" वह व्यक्ति हांफता हुआ बोला।
"अच्छा।" पहले वाला हंसा। उसकी हंसी में जहर घुल था—"कौन पकड़ेगा हमें? इस डिब्बे के लोग जो सांप सूंघ जाने जैसे बैठे हैं? या पुलिस वाले, जो गार्ड के डिब्बे में सो रहे होंगे?"
"यह खुद पकड़ेगा।" दूसरा बोला।
पूरे डिब्बे में दहशत फैल चुकी थी। सभी अपनी-अपनी सीटों पर सहमे-से बैठे थे।
कौन बोलता? कौन बीच में पड़ता? सभी को अपनी जान प्यारी थी। मरना कोई भी नहीं चाहता था। सभी के चेहरों पर भय, आतंक तथा आशंका के भाव थे। जो उस शख्स यानी खुराना के पास खड़े थे—वे सिकुड़कर इधर-उधर हो गए थे। सभी को लगने लगा था कि चश्मे वाला मारा जायेगा।
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