Kali Jung : काली जंग
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Description
शहंशाह का नवीनतम उपन्यास काली जंग
अपने ही मुल्क में - अपनी ही सरहदों पर - अपने ही घरों में - अपने ही झण्डे के निचे कुछ सरफ़रोश खून की होली खेलने आ रहे हैं।
काली जंग के बाद शहंशाह का नया ऐलान ऐ वतन तेरे लिए
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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काली जंग
शहंशाह
क्लासीफाइड कॉलम में छपे एक विज्ञापन पर उसकी नजरें बलात ठहर गयीं। न जाने क्यों उसे लग रहा था कि इस विज्ञापन में कोई नयी बात है और उसमें उसका भाग्य छिपा है। हालांकि यह अहसास उसे पहली बार नहीं हो रहा था। दर्जनों बार हो चुका था और हर बार ऐसे तमाम विज्ञापन उसके लिये दुर्भागयपूर्ण ही साबित हुये थे। अब नौबत यह थी कि हट्टा-कट्टा नौजवान होते हुए भी एक वक्त की रोटी खा पाता था। कभी-कभी तो फाके भी करने पड़ते थे। अखबारों में इश्तहार पढ़ते ही भाग पड़ता था नौकरी की तलाश में लेकिन किसी न किसी कारणवश नौकरी उसे नहीं मिल पाती और अगर मिल भी जाती तो वहां वह एक-दो महीने से ज्यादा नहीं टिक पाता। अब इस न टिक पाने के तो बहुत से कारण थे। फिलहाल इस वक्त उसे नौकरी की शिद्दत से जरूरत थी—इसी उम्मीद से वह विज्ञापन पढ़ रहा था।
विज्ञापन यूं था—
आवश्यकता है एक ऐसे नौजवान की जो कम-से-कम मैट्रिक पास हो, अच्छी सेहत रखता हो। कुछ ऐसे काम जानता हो जिनका सम्बन्ध जोड़-घटाने अर्थात् एकाउंट से भी हो सकता है, वही नौजवान कोशिश करे। उचित वेतन और अन्य सुविधायें भी उपलब्ध हो सकती हैं। उम्र अट्ठाइस से अधिक न हो, सुबह दस बजे से एक बजे तक इस पते पर मुलाकात करें।
भूतनाथ,
कोठी नम्बर तेरह,
अमृतपुरम।
यह नाम भूतनाथ उसे कुछ अजीब-सा लगा। लेकिन नामों का क्या, आजकल तो लोग अजीब-अजीब नाम रखते हैं और बहुत से लोग तो अपने उपनाम भी रख लेते हैं। लोगों को अजीबो-गरीब नाम रखने को शौक है। कलाकार तो खैर नाम बदलते ही हैं, गुण्डे मवाली भी दो-दो नाम रखते हैं। उसके दिमाग में एक बात और आई कि यह महाशय भूतनाथ जरूर कोई तांत्रिक होंगे या कोई जादूगर होंगे। इस नाम से विख्यात होंगे और जादू के खेल-तमाशे करते होंगे या भूत, भविष्य बताते होंगे। शायद इनको हिसाब-किताब के लिये किसी आदमी की जरूरत होगी। बहरहाल जो भी हो—एक बार ट्राई मार लेने में क्या हर्ज है—हालांकि अपने देश ‘भारत महान’ की यह सबसे बड़ी महानता है कि यहां छोकरी तो आसानी से मिल सकती है मगर नौकरी नहीं मिलती। उसका ख्याल था कि बढ़ती आबादी और बढ़ती बेरोजगारी से इस देश के दस साल बाद का भविष्य तो वह खुद भूतनाथ को बता सकता है (बशर्ते वह कोई तांत्रिक या ज्योतिषी हो)—बरा चंद शब्दों में बता देगा—समझदारों को समझ लेना चाहिये, इतना ही कहेगा—
अगर न संभले तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्तां वालो
तुम्हारी दास्तां भी न होगी दास्तानो में।
वह सोच रहा था न जाने यह विज्ञापन को कितने नौजवानों ने पढ़ा होगा। वहां तो लाइन लगी होगी—पता नहीं आज उसका नम्बर आता भी है या नहीं? इस गरज से वह जल्दी-जल्दी तैयार हो गया जहां तक बस जाती थी, वहां तक बस से गया। आज आने-जाने का खर्चा इतना तो होना ही था कि उसे शाम का फाका करना पड़ता क्योंकि अब उसके पास कुल बीस रुपये ही थे, यह बीस रुपये ही इस वक्त उसकी जमा-पूंजी थी।
बस से उतरने के बाद वह पैदल-पैदल चल पड़ा। अमृतपुरम में पहुंचकर 13 नम्बर कोठी का पता पूछता चला जा रहा था। यह नयी बसावत वाला इलाका था। बड़ी-बड़ी कोठियां थीं और काफी रकबे में बनी हुई थीं। रास्ते में एक मंदिर दिखायी दिया तो मत्था टेकना नहीं भूला। यह भगवान भी क्या चीज है। अगर इसका डर न हो तो आदमी तो बावला ही हो जाये। बुरे वक्त पर फौरन इसकी याद आ जाती है। लोगों का विश्वास है कि भगवान है। पर कहां है—इसे कोई सबूत देकर नहीं बता सकता—लेकिन हर मजहब ने उसके अलग-अलग ठिकाने जरूर बता दिये हैं, कोई कहता है वह चर्च में रहता है। कोई कहता है मस्जिद में मिलेगा। कोई मंदिर में बताता है तो कोई गुरुद्वारे में। और इस पर भी फजीता यह है कि इन भगवान के स्थानों में अलग-अलग क्वालिटी भी है। हर धर्मस्थल मंदिर, मस्जिद, गिरजा की अलग-अलग क्वालिटी हैं। कहीं पर भगवान कम मात्र में हैं तो कहीं पर उसकी पूरी पावर बताई गयी है—हैरानी की बात है कि इसके बावजूद भी अलग-अलग मजहबों ने भगवान का कॉपीराइट अपने पास रखा हुआ है। कहते तो यही हैं कि वह एक है, रास्ते अलग हैं। लेकिन फिर इसी कॉपीराइट के लिये मारामारी भी करते हैं, डंके की चोट पर कहते हैं तुम्हारा भगवान नकली है हमारा असली है। उसका कॉपीराइट हमारी कौम को दिया गया है। खैर—मानते फिर भी सब हैं। सो उसकी क्या औकात जो वह न माने। हांलाकि उसका दिल यही कहता था भगवान नाम की कोई चीज है ही नहीं। होती तो उसका यह हाल क्यों होता? लेकिन मारे डर के वह भी मत्था टेकता रहता था। सो आज भी टेका।
वह नवनिर्मित कोठियां जो अधिकतर खाली पड़ी थीं, उनसे गुजरता चला गया। सारा अमृतपुरम देख डाला। मगर 13 नम्बर की कोठी वहां थी ही नहीं। 12 नम्बर के बाद सीधा 14 नम्बर आता था। अखबार उसके पास था ही, सो उसे फिर से देखा कि कहीं नम्बर पढ़ने में गलती तो नहीं हो गयी—लेकिन नम्बर 13 ही था। वह बार-बार घूम-फिरकर 12 और 14 नम्बर की कोठी पर आ जाता। यह बात उसकी समझ में नहीं आ रही थी कि 12 के बाद सीधा 14 नम्बर ही क्यों है? 13 नम्बर कहां गायब हो गया? उसने सोचा—हो सकता है पता गलत छप गया हो। क्या मालूम यह 113 नम्बर हो। इसलिए वह 113 नम्बर पर पहुंचा। यह नम्बर मौजूद था। न सिर्फ मौजूद ही था बल्कि वहां कोई साहब रह भी रहे थे। फाटक खुला था। वह अंदर चला गया। एक साहब बरामदे में खड़े थे। उसे देख कर बोले—”ऐ-रुक जाओ—कौन हो? बिना इजाजत अंदर कैसे घुसे आ रहे हो?”
वह रुक गया। वह साहब खुद ही चलकर उसके पास आ गये। उसने उन्हें अपनी प्रॉब्लम बताई और अखबार भी दिखाया।
“साहब इसी पते को ढूंढ रहा हूं।” उसने कहा।
“आमतौर पर 13 नम्बर का मकान या कोठी नहीं होती, 13 नम्बर अशुभ माना जाता है। अमृतपुरम में अगर 13 नम्बर की कोठी नहीं है तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है, और यह नाम भी अजीब है। भूतनाथ—अपने घर जाओ भई—किसी ने मजाक किया होगा।”
“मजाक—क...क्यों करेगा क...कोई भला?” वह चकरा गया।
“अरे लोगों के पास बहुत फालतू पैसा है, यह तो कुछ भी नहीं। अभी कल मेरे एक दोस्त ने ऐसा मजाक किया लाखों रुपये उड़ा दिये मजाक–मजाक में, यह तो दो–चार सौ का विज्ञापन होगा। मेरे दोस्त ने तो हॉर्डिंग्स तक लगा दिये कि वह हीरो बन गया है और फिल्म का मुहूर्त फाइव स्टार में कर रहा है। मुहूर्त की खबर भी छपी। बाद में पता चला कि उसने दरअसल हीरो बनने के लिए मजाक किया था। यह तो कुछ भी नहीं...जाओ अपने घर जाओ...।”
“लेकिन श्रीमान जी! मेरा ख्याल है कि यह मजाक नहीं है।”
“अरे जा भी यार...मगज मत खराब कर मेरा।”
वह वहां से बाहर आ गया। एक और सज्जन से पूछा जो वहां मैडिकल स्टोर खोले हुये थे, आमतौर पर दो–तीन जगहों से किसी का भी पता आसानी से दरयाफ्त हो जाता है—एक तो पान वाले की दुकान से, एक परचून की दुकान से और तीसरे मैडिकल स्टोर से। इलाके में रहने वाला हर व्यक्ति इनमें से किसी-न-किसी के टच में जरूर रहता है।
मैडिकल स्टोर वाले ने उसकी बात सुनकर कहा—“तुमसे पहले एक दर्जन बेरोजगार नौजवान इस पते को पूछ चुके हैं। इस नाम के किसी आदमी को मैं नहीं जानता। सुनो—आजकल बेरोजगारों को नौकरी देने के बहाने ठगने वाले फ्रॉडी बहुत हैं। हो सकता है यह भूतनाथ भी ऐसा ही कोई धंधा करता हो—नौकरी का झांसा देकर ठगी करता हो।”
“ठगी के लिए झांसा देने की क्या जरूरत है? यहां तो हर आदमी ठग है। कोई छोटा ठग है, कोई बड़ा ठग। ऐसे लोग गलत पता नहीं देते। नहीं तो उनके पास पहुंचेगा कौन?”
वह आगे बढ़ गया। न जाने क्यों उसके दिमाग में भी खुन्नस सवार हो गयी थी कि वह इस आदमी का पता निकालकर ही रहेगा। उसने वहां एक परचून की दुकान से पूछा, पान के खोके पर पूछा, यहां तक कि जो भी मिला उससे पूछा—लेकिन भूतनाथ के नाम से कोई वाकिफ नहीं था। अब वह हताश होकर एक पेड़ की छांव में बैठ गया। यहां कोई मार्केट भी नहीं थी। इक्का–दुक्का दुकानें ही थीं जिनसे वह पूछ चुका था। उसकी तरह यहां आज न जाने कितने नौजवान धक्के खाकर वापस जा चुके होंगे लेकिन वह था कि अभी भी हिम्मत हारने को तैयार न था।
उसने एक बार फिर अखबार अपने सामने फैलाया। उस विज्ञापन का एक–एक अक्षर इस तरह पढ़ने लगा जैसे उसके शब्दों से किसी पहेली का हल खोजना चाहता हो। वह अखबारों और पत्रिकाओं में छपने वाली इस किस्म की पहेलियों को सुलझाने में अपना अधिकतर वक्त खपाया करता था जिनमें सही शब्द भरने होते थे। इस सिलसिले में वह बहुत से इनाम भी जीत चुका था। उसके दिमाग में एक बात यह घुस गयी थी कि वह शख्स यहीं कहीं रहता है और उसने पता जानबूझ कर गलत दिया है—लेकिन उसने ऐसा क्यों किया—इसका जवाब उसे नहीं मिल पा रहा था।
उसने जब विज्ञापन ध्यान से पढ़ा तो पूरे विज्ञापन में उसे एक शब्द खटकने लगा—जहां विज्ञापनदाता ने लिखा था—कुछ ऐसे काम जानता हो जिसका सम्बन्ध जोड़–घटाने अर्थात् एकाउंट से भी हो सकता है, वही नौजवान कोशिश करे। इस बात पर विशेष जोर दिया गया था, अर्थात् जैसे सी. ए. की पोस्टर हो।
अब वह इसी पंक्ति पर गौर करने लगा। अगर एकाउन्टैन्ट की जरूरत थी तो सीधे ही लिखा गया होता—अब वह इस पंक्ति पर गौर करते–करते जोड़–घटना पर अटक गया। जब एकांउट लिखा ही था तो यह फूहड़-सा शब्द जोड़–घटाना क्या अजीब नहीं लगता? इस शब्द का प्रयोग क्यों किया गया है? विज्ञापन देने वाला कोई देहाती भी न था, न ही अनपढ़ गंवार लगता था। अचानक उसकी बुद्धि को न जाने क्या हुआ वह 13 अंक का ही प्लस–माइनस करने लगा। 13 के 1 और 3 को जोड़ा जाये तो 4 बतना है और घटाया जाये तो 2 रहता है। अचानक वह उछल पड़ा भूतनाथ शब्द ही ऐसा था कि पहला ख्याल यह होता था कि वह तांत्रिक या ज्योतिषी है और—न्यूमरोलॉजी में किसी के नाम का नम्बर 9 अंक से ऊपर नहीं माना जाता—अगर नम्बर 9 से अधिक होता है तो उसका योग मान लिया जाता है—जैसे किसी की जन्म तिथि अगर 13 तारीख है और उसका मूलांक निकालना हो तो वह 13 नहीं 4 कहलाया जायेगा। अंक विद्धा की भी एक ज्योतिष है—कहीं भूतनाथ इसी न्यूमरोलॉजी का माहिर तो नहीं? कहीं यह संख्या 4 तो नहीं?
वह तुरन्त उठा और कोठी नम्बर 4 की तरफ दौड़ पड़ा—इसलिये कि 1 बजने वाला था और मिलने का समय 10 से 1 बजे तक का था। वह 4 नम्बर कोठी पर पहुंचा। वह बन्द थी। फाटक पर ताला देखकर उसे घोर निराशा हुई। वह हताश होकर लौटना ही चाहता था कि अचानक एक चीज पर उसकी निगाह पड़ी। फाटक पर एक गत्ता लटक रहा था जिस पर स्यही से कुछ लिखा था।
उसने उस गत्ते पर निगाह डाली, उस पर सूर्यास्त होता दिखाया गया था और सूर्यास्त की तरफ जाती एक सड़क दिखायी गयी थी। नीचे एक पंक्ति लिखी थी—“जिसका सूरज उदय होता है वह डूबता भी जरूर है। इसलिये घमण्ड न करो—उगते सूर्य को तो सभी देखते हैं। तुम अगर बुद्धिमान हो तो अस्त होते सूर्य को देखा—तुम्हें अपनी मंजिल मिल जायेगी।”
इन पंक्तियों को पढ़ा-दो–तीन बार पढ़ा—फिर न जाने क्यों उसे लगा जैसे यह संकेत उसके लिये है और गत्ते पर दरअसल किसी जगह का नक्शा है—एक सड़क थी जो सूर्यास्त की तरफ गयी थी और वहां एक माइलस्टोन था जिस पर 5 लिखा था। तो क्या यह गत्ता यह कहता है कि पश्चिम की तरफ चलो—पांच किलोमीटर? क्या यह संकेत उन लोगों के लिये था जो भूतनाथ के पते वाली पहेली का हल निकालने में सफल हो जायेंगे? लेकिन यह कौन–सी सड़क थी? फिर उसने वह जगह देखी जहां से सड़क शुरू हुई थी—वहां एक चैराहा बना था और वह उछल ही तो पड़ा-इस कोठी के ठीक सामने चैराहा ही तो था।
वह पलट कर उस चैराहे पर पहुंचा, फिर वहां से पश्चिम की तरफ जाने वाली सड़क पर पैदल–पैदल चल पड़ा। उसके पास इतने पैसे नहीं थे कि आने–जाने का रिक्शा करता क्योंकि वह सुनसान सड़क थी और उस तरफ कोई बस स्टॉप भी नहीं था। वह पैदल–पैदल ही चल पड़ा। फिर चलते–चलते वह रुक गया क्योंकि एक बज चुका था। उसने अब आगे जाना मुनासिब नहीं समझा और वापस लौट पड़ा। अगली सुबह वह दस बजे ही यह सड़क नापने लगा था। रात उसने खाना नहीं खाया था—भूखे पेट था और एक कप चाय पीकर चल पड़ा था।
वह सड़क पर पूरे जोशो–खरोश से चलता रहा। उसका सारा आइडिया गलत भी हो सकता था—क्योंकि इस तरफ तो दूर तक कोई आबादी ही नहीं थी। लेकिन वह भी चंद्रकांता के तिलस्मी संसार के आधार की तरह निकल ही तो पड़ा था।
फिर वह माइलस्टोन दिखाई दिया, जिस पर 5 लिखा था। कमाल तो यह था कि वह सारी सड़क देखता आया था, कहीं कोई माइलस्टोन उसे नजर नहीं आया था। यह पहला ही था और 5 लिखा था। यहां आकर वह रुक गया...और फिर इधर–उधर देखने लगा, ज्योंहि निगाह पश्चिम की तरफ उठी तो एक इमारत नजर आयी जो वृक्षों के झुरमुट में वीरान और तनहा खड़ी थी।
उसका दिल बल्लियों उछलने लगा। यकीनन वह भूतनाथ के पते पर पहुंच गया था।
यहां मीलों तक कोई इमारत नहीं थी—वह उस इमारत के गेट तक पहुंच गया—उसके गेट तक मुख्य सड़क से कच्ची सड़क जाती थी जिस पर बजरी बिछी थी। न जाने यहां रहने वाले ने इस जगह रहना कैसे पसंद कर लिया था और वह था कौन? जब वह वहां पहुंचा तो थकान से चूर–चूर हो चुका था। कोठी के गेट पर पहुंचा तो वहां उसे 13 नम्बर लिखा दिखाई दिया, तो जाने क्यों उसके दिल की धड़कनें बढ़ गयीं। यह कोठी क्या थी भूत-बंगला था। फाटक बेरौनक, हालांकि इमारत पुरानी नहीं थी, नयी थी—लेकिन इस तरह बदनुमा नजर आ रही थी जैसे यहां इंसानों का कोई अस्तित्व ही न हो। फाटक के दूसरी तरफ कांटेदार झाड़ियां उगी हुई थीं। दूर–दूर तक किसी इंसान का अस्तित्व नहीं था।
उसने आश्चर्य से एक बार फिर कोठी का नम्बर देखा। दिल-ही-दिल में फख्र महसूस कर रहा था जैसे उसे कारून का खजाना मिल गया हो—वह उसी पते पर था जो अखबार में छपा था। इस कोठी की दीवार पर चूने से 13 अंक लिखा था—यों लगता था जैसे अभी–अभी किसी ने लिखा हो और इसे तलाश करना आसान काम न था। यह बात यकीनी तौर पर कही जा सकती थी कि अभी तक यहां कोई बेरोजगार उम्मीदवार बनकर नहीं पहुंचा होगा।
लेकिन वह क्या करे? कोई यहां आबाद भी है या सिर्फ मज़ाक किया गया है? लेकिन उसका दिल कहता था कि यह मजाक तो हो ही नहीं सकता था। मजाक करने वाला हरगिज ऐसी पहेलीर न खड़ी करता कि पते तक पहुंचना ही सम्भव न हो।
उसने सोचा अखबार में विज्ञापन मौजूद है—किसी ऐसी इमारत में घुसने पर चोरी का आरोप नहीं लगाया जा सकता और किसी ने टोका–टाकी की तो कह देगा विज्ञापन पढ़कर आया है अतः हिम्मत करके गेट क्रॉस किया, फिर सामने इमारत के सदर दरवाजे पर पहुंच ही गया। पता नहीं क्यों उसके दिल ने कहा—“अन्दर ना जा...ना जा...ना जा...।” क्योंकि सामने ही खुला दरवाजा था और वहां कोई दिखाई न दे रहा था। वह अंदर कदम रखना ही चाहता था कि अपने दिल की आवाज सुनकर रुक गया। कुछ सभ्यता का भी तकाज़ा था—सो दरवाजा बजा डाला और पूछा—“कोई है?”
जवाब में एक भारी मर्दाना आवाज सुनायी दी।
“अंदर आ जाओ।”
तब उसे कुछ सकून हुआ और अंदर कदम रख ही दिया। यह ड्राइंगरूम था फर्नीचर कीमती लेकिन बेतरतीब था। यह चीजें इस बात की पहचान थीं कि वहां कोई छड़ा-छांट रहता है। ड्राइंगरूम की सफाई तक ठीक से नहीं हो रही थी। अलबत्ता फर्नीचर नया था।
ड्राइंगरूम का दूसरा दरवाजा, जो अंदर किसी कमरे मे खुलता था, खुला हुआ था। उसने सोचा, सम्भव है उसे अंदर बुलाने वाला उसी कमरे में मौजूद हो, क्योंकि ड्राइंगरूम तो खाली था। वह दरवाजे के करीब खड़ा प्रतीक्षा करने लगा कि वह अभी बाहर आयेगा।
“बैठ जाओ।”
वही आवाज दोबारा सुनायी दी और वह उछल पड़ा—उसने संदिग्ध निगाहों से चारों तरफ देखा और परेशान हो गया।
“परेशानर होने की जरूरत नहीं है। बैठ जाओ, फिर बातें होंगी।”
और वह बैठ गया। इस मकान की वीरानी उसे अब डराने लगी थी। यहां प्रविष्ट होते हुये उसे भूत बंगले की कल्पना महसूस हुई थी और अब यह रहस्यमय आवाज सुनकर कल्पना सच होने लगी थी।
“मेरी आवाज तुम्हें एक विशेष सिस्टम के जरिये सुनायी दे रही है। दरअसल मैं बीमार आदमी हूं और बीमारी कुछ ऐसी है कि किसी के सामने बिल्कुल नहीं आ सकता, दूसरों को मुझसे तकलीफ होती है, इसलिये मैंने बातचीत के लिये यह तरीका निकाला है।”
“ओह!” उसने धीरे से कहा।
“तुम यकीनन मेरा विज्ञापन पढ़कर आये होंगे?”
“ज...जी हां...।” उसने एक दीवार को घूरते हुये कहा।
“क्या नाम है?”
“राजेश शर्मा।”
“पंडित हो...?”
“जी!”
“गोत्र क्या है?”
“भारद्वाज! लेकिन श्रीमान जी! मैं जात–पात पर विश्वास नहीं करता—मैं सभी जातियों...।”
“जितना पूछा जाये उतना ही जवाब दो।” उसने राजेश की बात काट कर कहा—“इससे पहले कहां काम करते थे?”
“एक साल से बेकार हूं।”
“इस बेकारी से पहले क्या करते थे?”
“एक रेस्टोरेन्ट में काउण्टर पर बैठता था।” उसने उत्तर दिया।
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Additional information
Book Title | Kali Jung : काली जंग |
---|---|
Isbn No | |
No of Pages | 320 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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