Jurm Ka Bajigar : जुर्म का बाजीगर
Ebook ✓ 38 Free Preview ✓
38
100
Description
जुर्म का बाजीगर
शिवा पण्डित
रवि पॉकेट बुक्स
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कतई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों व दुर्व्यसनों से दूर ही रहें। यह उपन्यास 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यास आगे पढ़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है। प्रूफ संशोधन कार्य को पूर्ण योग्यता व सावधानीपूर्वक किया गया है, लेकिन मानवीय त्रुटि रह सकती है, अत: किसी भी तथ्य सम्बन्धी त्रुटि के लिए लेखक, प्रकाशक व मुद्रक उत्तरदायी नहीं होंगे।
Free Preview
जुर्म का बाज़ीगर
आर्म हाउस के मालिक जगदेव बरेजा ने अर्जुन त्यागी को ऊपर से नीचे तक देखा—फिर प्रश्न भरी निगाहें उस पर डालते हुए बोला—
“कहिये।”
जवाब देने की बजाय अर्जुन त्यागी ने पीछे दीवार के आगे लगे शीशे के शो-केस में करीने से सजे हथियारों को देखा—शो-केस में दस-बारह दोनाली तथा एक-नाली बंदूकें करीने से सजाकर रखी हुई थीं। बंदूकों के दोनों तरफ रिवाल्वर तथा पिस्तौलें दीवार पर लगे खांचों में लगी हुई थीं तथा कुछ अन्य हथियार भी वहां रखे थे।
“कोई हथियार खरीदना है?”
जगदेव बरेजा ने उसे शो-केस की तरफ देखते हुए पूछा।
अर्जुन त्यागी ने शो-केस के आगे ग्रिल चैनल पर लटक रहे ताले पर निगाह डाली, फिर लम्बी सांस छोड़ते हुए कुर्सी के हत्थों पर हाथ टिकाते हुए कुर्सी पर बैठ गया।
“नहीं।” उसने जगदेव बरेजा की बात का उत्तर दिया।
“कारतूस या गोली चाहिए?”
“नहीं।” अर्जुन त्यागी ने पुनः इंकार में सिर हिलाया।
“तो?” जगदेव बरेजा उसको घूरते हुए बोला।
अर्जुन त्यागी ने कुर्सी खिसकाकर मेज के साथ अपना पेट लगाया और आगे को झुककर मेज पर कोहनियां टिकाते हुए बोला—
“मेरे पास एक रिवाल्वर है।”
“तो?”
“मैं उसे बेचना चाहता हूं।”
चौंका जगदेव बरेजा—फिर संभलते हुए बोला—
“लाइसैंस है रिवाल्वर का तुम्हारे पास?”
अर्जुन त्यागी ने इंकार में सिर हिलाया।
“फिर रिवाल्वर कहां से आई?”
“चोरी का माल है—।” मुस्कुराया अर्जुन त्यागी।
हल्का-सा झटका लगा जगदेव बरेजा को। उसने बेचैनी से अपने शोरूम के शीशे के गेट की तरफ देखा, फिर अर्जुन त्यागी की तरफ देखते हुए बोला—
“सॉरी—मैं चोरी का माल नहीं खरीदता।”
“क्यों?”
“क्यों क्या—मेरी मर्जी।”
“फिर भी कोई कारण तो होना चाहिए।”
“एक कारण हो तो बताऊं—पहला कारण तो यह है कि चोरी का माल खरीदने वाला भी उतना ही बड़ा अपराधी होता है जितना कि चोरी करने वाला—।”
“अगर माल ज्यादा बच रहा हो—मेरा मतलब है कि माल खरीद कर उसे बेचने में भारी मुनाफा हो रहा हो तो लालच आ ही जाता है—यूँ भी चोर जब तक पर्दे में रहता है—तब तक वह एक नेक इंसान ही माना जाता है। और केवल एक रिवाल्वर खरीदने से तुम्हारे माथे पर फैंस का लेबल नहीं लगने वाला।”
“यह कोई सोना-चांदी या हीरा वगैरह नहीं है मिस्टर—जिसे खरीदकर आसानी से बेच दिया जाता है—यह रिवाल्वर है—जिस पर उसका नम्बर, मेक वगैरह सब कुछ लिखा होता है। ऐसे में उसे बेचना स्वयं को फंसाने के बराबर होता है।”
“नम्बर, मेक वगैरह रेती से मिटाये भी तो जा सकते हैं?”
“नम्बर मिट जाने के उपरान्त उसे किसी लाइसैंसधारी को नहीं बेचा जा सकता—।”
“तो अण्डरवर्ल्ड के किसी डॉन को बेच देना।”
“सॉरी—मैं आपकी रिवाल्वर नहीं खरीद सकता।”
एक लम्बी सांस छोड़ी अर्जुन त्यागी ने और सीधे होते हुए बोला—
“ओ.के.। मगर आप यह तो बता सकते हैं कि किसी फैंस से रिवाल्वर की कितनी रकम वसूल हो सकती है?”
हिचकिचाया जगदेव बरेजा।
अर्जुन त्यागी ने रिवाल्वर जेब से निकाली और मेज पर रखते हुए बोला—
“आप देखिये तो सही—।”
जगदेव बरेजा ने जैसे ही रिवाल्वर पर नजर मारी—उसकी आंखों में एक चमक आकर लुप्त हो गई।
रिवाल्वर जर्मन मेड प्वाइंट अड़तालीस कैलिबर की भारी रिवाल्वर थी। ऐसी रिवाल्वरों की मार्किट में बहुत मांग थी क्योंकि ऐसी रिवाल्वर
इण्डिया में बहुत कम उपलब्ध थीं।
जगदेव बरेजा का दिल रिवाल्वर को पाने के लिए मचल उठा। उसने सावधानीपूर्वक शोरूम के गेट पर एक बार फिर निगाह मारी—फिर
रिवाल्वर उठाकर उसे उलट-पुलटकर देखने लगा। उसका चैम्बर खोलकर चैक किया—एक जिन्दा कारतूस था चैम्बर में—उसने नाल में आंख गड़ाकर देखा—फिर चैम्बर को बंद करके मेज पर रखते हुए बोला—
“पचास हजार से ज्यादा का माल नहीं है यह—।”
जबकि उस रिवाल्वर की कीमत किसी भी हालत में डेढ़ लाख से कम नहीं थी।
“यानि अगर मैं किसी फैंस को रिवाल्वर बेचूं तो पचास हजार से कम न लूं?”
अर्जुन त्यागी मुस्कुराकर बोला।
“चोरी का माल है—दो चार हजार कम-ज्यादा भी हो सकते हैं।”
“आप बताइए—आप क्या देंगे?”
एकबारगी तो हड़बड़ाया जगदेव बरेजा—फिर पुनः रिवाल्वर उठाकर उसे देखते हुए बोला—
“यूं तो मैं चोरी का माल नहीं खरीदता—मगर डरता हूं कि कहीं तुम किसी दूसरी दुकान पर इसे बेचते हुए पकड़े न जाओ—ऐसी सूरत में तुम सीधा मुझ पर ही शक करोगे कि मैंने ही पुलिस को इन्फार्म किया है—और किसी को अपना दुश्मन बनाना मेरी फितरत में नहीं है—इसलिए मैं सोच रहा हूं कि तुम्हारी रिवाल्वर खरीद ही लूं।”
जैसे वह अर्जुन त्यागी पर अहसान कर रहा हो।
“मैंने यह पूछा कि आप इसका क्या देंगे?”
लम्बी सांस छोड़ी जगदेव बरेजा ने और रिवाल्वर वापिस मेज पर रखते हुए बोला—
“मैं तुम्हें इसके पैंतालीस हजार से ज्यादा नहीं दे सकता।”
अर्जुन त्यागी ने रिवाल्वर उठा ली और लम्बी सांस छोड़ते हुए खड़ा होते हुए बोला—
“आप सचमुच ही इस रिवाल्वर को खरीदने के ख्वाहिशमंद नहीं हैं—वर्ना पचास कहकर पैंतालीस न लगाते।”
उसे खड़ा होते देख हड़बड़ा उठा जगदेव बरेजा।
“अरे बैठो-बैठो—।”
वह किसी भी कीमत पर रिवाल्वर खोने को तैयार नहीं था।
“क्या फायदा?” अर्जुन त्यागी मन-ही-मन मुस्कुराते हुए बोला।
1 review for Simple Product 007
Additional information
Book Title | Jurm Ka Bajigar : जुर्म का बाजीगर |
---|---|
Isbn No | |
No of Pages | |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
Related products
-
- Keshav Puran : केशव पुराण
-
10048
-
- Changez Khan : चंगेज खान
-
10048
admin –
Aliquam fringilla euismod risus ac bibendum. Sed sit amet sem varius ante feugiat lacinia. Nunc ipsum nulla, vulputate ut venenatis vitae, malesuada ut mi. Quisque iaculis, dui congue placerat pretium, augue erat accumsan lacus