जादूगरनी
दिनेश ठाकुर
"सूं.......!"
मैंने शंकरगढ़ रेलवे स्टेशन पर पांव रखा ही था कि मेरे कानों में एक बेहद बारीक स्वर पड़ा।
मैं न केवल चौंक गई बल्कि मेरी चेतना शक्ति पूर्णतया सजग हो गई। ये स्वर मेरी छठेन्द्रिय की तीव्र संवेदनशीलता के कारण ही मेरे कानों तक पहुंचा था, वरना रेलवे स्टेशन के भीड़ भरे माहौल में इस स्वर के सुनाई देने का कोई औचित्य ही नहीं था।
दूसरे, वो स्वर मेरे नजदीक ही नहीं उभरा था, कदाचित उस स्वर का मैं नोटिस भी ना लेती। ठीक उसी वक्त मैंने अपनी गर्दन के पीछे खुले हिस्से के एक पिन प्वाइण्ट पर हवा के बढ़ते दबाव को महसूस किया था। ये किसी तूफानी चीज की आमद का संकेत था।
यही कारण था, बिना खतरे को भांपे ही मेरी छठेन्द्रिय ने मुझे बेहद तीव्रता से सचेत किया था।
मैंने वही किया—जो स्वाभाविक था। मैं बिजली की गति से अपना स्थान छोड़ गई थी।
"स....सांय........ !"
स्थान छोड़ते ही मैंने किसी तूफानी चीज के गर्दन के पास से गुजर जाने का अहसास किया। इसके साथ ही मेरे दायीं ओर हल्की-सी सिसकारी का स्वर उभरा।
मैंने फर्श पर पांव जमाते हुए द्रुतवेग से गर्दन घुमाकर उधर देखा, जिधर से सिसकारी का स्वर उभरा था।
मैंने एक अधेड़ महिला को अपनी गर्दन तक हाथ पहुंचाते हुए सिसकारी भरते देखा। सेकण्ड के दसवें हिस्से में मुझे वो चीज भी नजर आ गई जो उसकी गर्दन में चुभी थी और उसे अभी-अभी उस महिला ने बाहर खींचा था।
वो एक चमकती हुई पिन थी। उसका ऊपरी चमकता हिस्सा मुझे नजर आ गया था।
मैंने विद्युत गति से उधर दृष्टि दौड़ाई—जिधर से उस चीज की आमद का अनुमान था।
मुझे अभी-अभी आकर रुकी लोकल ट्रेन की एक खिड़की पर एक अप्रत्याशित हरकत का संदेह हुआ। मैंने महसूस किया था कि कोई कलाई भीतर सिमटी है।
किन्तु मुझे कोई शक्ल ना नजर आई। ना ही मुझे कोई ऐसा यन्त्र ही नजर आया जिससे कि यह पता चलता कि उससे दो पिन प्रक्षेपित की गई है।
फिर भी मैं कब चूकने वाली थी!
मैंने द्रुतवेग से छलांग लगाई और मेरा शरीर हवाई पैरों पर सवार ट्रेन के उस कंपार्टमेंट की ओर लहरा गया था।
किन्तु।
इससे पहले कि मैं ट्रेन के दरवाजे तक पहुंच पाती, सहसा भीड़ का रेला-सा बीच में आया।
लोकल ट्रेन में चढ़ने-उतरने वालों को जैसे जल्दी मच गई थी। एक साथ चढ़ने-उतरने वालों में कुछ यूं समां बंधा था कि मैं उलझ कर रह गई थी। कंपार्टमेंट का दरवाजा इंसानों से अटा हुआ था।
मैं तुरन्त दरवाजे से हटी और दौड़कर उस खिड़की तक गई जिसके पीछे मैंने हलचल महसूस की थी।
किन्तु व्यर्थ।
भीतर का दृश्य कोई खास नजर नहीं आया।
बाहर उतर रहे यात्रियों व चढ़कर बैठने वाले यात्रियों ने अफरा-तफरी का माहौल उत्पन्न कर रखा था।
सब कुछ गड़बढ़ होकर रह गया था कि मैं हकबकों की तरह देखती ही रह गई।
वह शख्स अगर भीतर था तो उसे अलग कर पाना कठिन था। दूसरी ओर का गेट खाली था। वह तब तक दूसरी ओर कूद कर जा सकता था। ट्रेन लोकल थी, इसलिये उसके सारे डिब्बे आपस में जुड़े हुए थे। तब तक वह कहीं-का-कहीं पहुंच सकता था।
मैं फिर भी आगे बढ़ने ही वाली थी कि तभी पीछे कई घुटी-घुटी चीखों का स्वर उभरा।
मैंने देखा।
अधेड़ महिला ढ़ह चुकी थी। कई लोग उसके ऊपर झुके हुए थे।
मैंने पुन: गर्दन घुमाई और उस शख्स की टोह लेने की चेष्टा करती रही।
किन्तु व्यर्थ।
परिणाम वही—ढ़ाक के तीन पात।
उस शख्स की ना तो कोई झलक मिली, ना ही शक की सुई किसी पर स्थिर ही हुई।
फिर भी मैं अवसर पाते ही कंपार्टमेंट में जा चढ़ी।
और फिर वही हुआ—जो स्वाभाविक था।
मैं अपनी सम्पूर्ण चुस्ती-फुर्ती से टोह लेती हुई इधर-से-उधर भागती रही, किन्तु परिणाम वही—ढाक के तीन पात।
मुझे वो नजर ना आया।
मैं घूमी।
अगले ही पल मैं होंठ भींचे उधर बढ़ने पर मजबूर हो गई थी, जिधर मेरे हिस्से का प्रहार स्वयं खाकर वो महिला धराशायी हुई थी।
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वो हमलावर कौन था जिसने पिन द्वारा प्रहार करके मुझे धराशायी कर देना चाहा था?
यह मेरा पुराना दुश्मन था या फिर नया?
अगर पुराना दुश्मन था तो निश्चित रूप से उसे यह मालूम पड़ गया था कि मैं शंकरगढ़ आने वाली हूँ तभी वह पलक—पांवड़े बिछाये बैठा मिला था।
किन्तु अगर वह दुश्मन नया था—बिल्कुल नया—तो निश्चित रूप से यह नहीं चाहता था कि मैं शंकरगढ़ में पांव रखूं। पांव रखूं भी तो वहां रुकूं नहीं।
मेरी मंजिल बेगम नुसरत बानो की आलीशान महलनुमा हवेली थी, जोकि इस बात का सबूत थी कि बेगम नुसरत बानो शंकरगढ़ स्टेट के नवाबी खानदान का अन्तिम रोशनेचिराग थीं।
यह सच था।
राजाओं-महाराजाओं का युग भले ही चला गया हो—किन्तु शंकरगढ़ में बेगम नुसरत बानो का जलाल ज्यों-का-त्यों कायम था। उनका रसूख, उनकी शान नवाबी थी, ऐसा मैंने सुना था।
मुझे बेगम नुसरत बानो का ही बुलावा मिला था। मुझसे व्यक्तिगत तौर पर तो दरख्वास्त की ही गई थी, ऑफिशियल तौर पर भी मुझे वहां भेजा गया था।
मेरा चीफ खुराना—सॉरी—मैं अपना परिचय ही देना भूल गई।
मेरे पुराने मेहरबान दोस्त तो मेरे अजीमुश्शान परिचय के मोहताज नहीं, किन्तु नये दोस्त थोड़ा उलझ रहे होंगे।
मैं कौन हूँ? मेरा नाम व परिचय क्या है? और अपना परिचय दिये बिना मैं क्यों बेसिर—पैर की हांके जा रही हूँ? इन प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार है।
मैं—रीमा भारती।
भारत की गुप्तचर व सर्वाधिक महत्वपूर्ण जासूसी संस्था आई०एस०सी० (इण्डियन सीक्रेट कोर) की नम्बर वन एजेण्ट।
एक तेजतर्रार एजेण्ट!
अपने मेहरबान दोस्तों की दोस्त। उनकी हमनवां—जिनके सानिध्य की कल्पना मेरे दोस्तों को रोमांचित किए रहती है। वहीं दुश्मनों के खेमों में, मेरे कदमों की आहट ही खलबली मचा दिया करती है।
देश व समाज के दुश्मनों में से कोई मुझे खतरनाक कहता है—तो कोई खूबसूरत बला।
मेरे तमाम शत्रु तो मेरी गड़गड़ा कर गिरने वाली आकाशीय बिजली की बेटी से तुलना किया करते थे।
ऐसा स्वाभाविक था।
मैंने दुश्मनों पर रहम खाना सीखा ही ना था।
मैं तो उनके कुत्सित मनसूबों के साथ उनका नामोनिशान मिटा देने में यकीन रखती थी।
मुझे खूबसूरत नागिन की तरह डसना पड़े या फिर आकाशीय बिजली की तरह टूटकर उन्हें भस्म करना पड़े—मैं सदैव तत्पर रहती थी।
समाज व देश के कोढ़ रूपी दुश्मनों को खत्म करना मेरा पेशा था और खतरों से खेलना मेरा प्रिय शौक!
पल-पल बदलती परिस्थितियां—खतरों का एडवेंचर मेरा प्रिय शगल था।
रहा सवाल मेरे शंकरगढ़ पहुंचने का, तो उसका किस्सा कुछ यूं था।
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