गुण्डागर्दी नहीं चलेगी : Gundagardi Nahi Chalegi by Sunil Prabhakar
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Description
इंस्पेक्टर धरमसिंह बाली सचमुच धर्म का रक्षक, एक शेरदिल पुलिसवाला था। उसने जब शहर में तैनाती पाई तो शहर गुण्डों का अड्डा बना हुआ था। जनता खौफ के साये में जीवन गुजार रही थी। दिन दहाड़े लड़की का रेप भी हो जाता था तो वह भी चुप रहती थी। उसका परिवार बलात्कार का दंश झेलकर भी मुंह पर ताला लगाकर बैठ जाता था...।
मगर धर्म के रक्षक शेरदिल इंस्पेक्टर धरमसिंह बाली ने शहर को ऐसा अपराधमुक्त किया कि लोग भयमुक्त होकर कह उठे—
गुण्डागर्दी नहीं चलेगी
सुनील प्रभाकर का बेहतरीन थ्रिलर उपन्यास
गुण्डागर्दी नहीं चलेगी : Gundagardi Nahi Chalegi
Sunil Prabhakar सुनील प्रभाक
Ravi Pocket Books
BookMadaari
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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गुण्डागर्दी नहीं चलेगी
सुनील प्रभाकर
फिल्मी सितारों जैसे शानदार व्यक्तित्व के मालिक उस युवा इंस्पेक्टर को इंस्पेक्टर धरम सिंह बाली के नाम से जाना जाता था। ड्यूटी के समय वह अपनी चमचमाती वर्दी व उस पर चमचमाते बैजों से खुद को इस प्रकार सजाकर रखता था कि क्या मजाल उसकी वर्दी पर मक्खी भी बैठ जाए।
लेकिन ऐसा नहीं था कि वह केवल अपने व्यक्तित्व को ही चमकाने में रुचि रखता हो। वह जितना अपने आपको सजा-संवारकर रखने के लिए जागरूक था, उतना ही वह अपने कर्तव्य के प्रति भी था।
बहुत ही कम समय में उसने कर्तव्य के प्रति निष्ठा, लगन और ईमानदारी के बल पर पुलिस विभाग में अपने लिए जो मुकाम हासिल किया था वह हर किसी के लिए आसान नहीं हो सकता।
उसके दिमाग में उसका नाम किसी आदर्श की तरह था। लेकिन उसकी मेहनत, लगन, जांबाजी और ईमानदारी ने जहां उसे कई बार बड़े-बड़े मेडलों से सम्मानित किया था वही उसके रास्ते में कुछ कड़वे अनुभव भी हुए थे। उसे कई बार चेतावनी भी मिली थी लेकिन उसने कभी इन रुकावटों की परवाह नहीं की।
वह जहां भी जाता था, जरायम पेशा लोग छिपने के लिए बिलों की तलाश में लग जाते थे। इंस्पेक्टर बाली उनके लिए आतंक का नाम था।
यहां का चार्ज सम्भाले इंस्पेक्टर बाली को अधिक समय नहीं हुआ था। उसका सहयोगी स्टाफ उसे अभी ठीक से समझ भी नहीं पाया था लेकिन उसने काफी कुछ समझ लिया था। क्योंकि उसका काम करने का अपना एक अलग ही ढंग था।
इस थोड़े से समय में उसने अपने स्टाफ के ही नहीं बल्कि यहां के पूरे वातावरण को भी काफी हद तक समझ लिया था। यह तो उसने तभी समझ लिया था कि उसे यहां भेजने के पीछे उसके विभाग का कोई विशेष ही मिशन था और अब वह यह भी समझ चुका था कि यहां पर रहकर अपनी ड्यूटी को अंजाम देना तलवार की धार पर चलने जैसा था लेकिन उसका ऐसा नतीजा निकालने का यह अर्थ नहीं था कि वह उसको लेकर परेशान या निराश था। बल्कि इसे उसने एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया और ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करना ही शायद उसकी सबसे बड़ी और सबसे प्रिय हॉबी थी।
उस दिन वह अपने ऑफिस में मौजूद था। उसके साथ ही उसके दो सहयोगी सब-इंस्पेक्टर भी वहां मौजूद थे जो कि अपने कागजी काम निपटाने में व्यस्त थे।
उसी घड़ी वह व्यक्ति उसके ऑफिस में दाखिल हुआ। वह कोई बहुत ही प्रभावशाली व्यक्ति था। तभी तो उसके दोनों सहयोगियों ने बहुत ही सम्मानित ढंग से उस आदमी का अभिवादन किया।
लेकिन इंस्पेक्टर बाली उसके रौबदार व्यक्तित्व से जरा भी प्रभावित होता नजर नहीं आया। उसने एक बार उपेक्षित-सी नजरों से उसकी ओर देखा तथा अपनी उसी फाइल में व्यस्त हो गया जिसे कि वह पहले से ही देख रहा था।
इंस्पेक्टर बाली द्वारा अपने आपको इस प्रकार उपेक्षित किए जाने पर उस व्यक्ति के चेहरे पर नागवारी के भाव उभरे। वह इंस्पेक्टर बाली के टेबल के करीब पहुंचा। फिर उसने अपना चेहरा घुमाकर एक सब-इंस्पेक्टर की ओर देखा।
“जोशी!” उसने अधिकारपूर्ण स्वर में कहा——“तुमने मेरा परिचय नहीं कराया अपने साहब से?”
इंस्पेक्टर जोशी ने कुछ कहने का उपक्रम किया। तभी इंस्पेक्टर बाली ने उसकी ओर देखा। उसने अपना हाथ उठाकर इंस्पेक्टर जोशी को बोलने से रोका। फिर उस व्यक्ति की ओर देखा।
“परिचय बाद में हो जाएगा।” इंस्पेक्टर बाली ने कहा——“पहले आप सेवा बताइए।”
“सेवा?”
“वही—— जिसके लिए आप यहां तक चलकर आए हैं और जिसके लिए हम यहां बैठे हैं।”
“बैठे हैं?”
“हम पब्लिक की सेवा के लिए ही तो बैठे हैं और उसके लिए हमें किसी के परिचय की इतनी जरूरत नहीं है। वह बाद में भी होता रहेगा। आप बैठिए ना।”
वह उलझन पूर्ण नेत्रों से इंस्पेक्टर बाली की ओर देखते हुए उसके द्वारा संकेत की गई कुर्सी पर बैठ गया।
“हां तो”—— इंस्पेक्टर बाली ने उसकी ओर देखा——“कहिए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?”
“मेरा मतलब था कि मेरा परिचय जानने के बाद आप...।” उस व्यक्ति ने कहा——“आप मेरी बात को ज्यादा बेहतर ढंग से समझ सकते थे।”
“मैं तो वैसे भी आपकी बात को बेहतर ढंग से ही समझ सकता हूं लेकिन आपको ऐसा लगता है तो ठीक है। पहले परिचय ही सही। शायद आपका मानना है कि आपका परिचय भी मैं तभी बेहतर ढंग से समझ सकूंगा जबकि मेरा सहयोगी आपका परिचय कराए।” कहकर उसने अपने सहयोगी की ओर देखा।
“इंस्पेक्टर जोशी——” उसने कहा——“साहब का परिचय कराओ।”
“सर, यह मखीजा साहब हैं।”
“मखीजा?”
“जे०के० मखीजा!” इंस्पेक्टर जोशी ने दोहराया।
शायद उस व्यक्ति का मानना था कि उसका नाम सुनते ही इंस्पेक्टर बाली बहुत प्रभावित होगा लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। इंस्पेक्टर बाली पर इसका जरा भी प्रभाव नहीं हुआ। शायद यह स्थिति उस व्यक्ति के लिए निराशाजनक थी।
“हां तो मिस्टर जे०के० मखीजा——” इंस्पेक्टर बाली ने कहा——“अब कहिए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?”
“अभी आप शायद मेरा पूरा परिचय नहीं जान पाए हैं, इंस्पेक्टर साहब——” उसने कहा——“वर्ना आपको यह पूछने की जरूरत नहीं होती कि मैंने आपको क्यों कष्ट दिया। खैर मैं स्वयं ही बता देता हूं। धीरे-धीरे आप मेरे बारे में सब कुछ ही जान लेंगे।”
“ठीक कहते हैं आप।” इंस्पेक्टर बाली ने कहा——“पहले काम की बात कीजिए।”
“आपने मेरे एक आदमी को पकड़ा इंस्पेक्टर साहब!” उसने कहा——“वैसे आप नए-नए आए हैं। हो सकता है आप मेरे बारे में अभी न जानते हों लेकिन यहां पर ऐसा कोई नहीं है जो मुझे नहीं जानता हो लेकिन मुझे हैरत हो रही है कि किसी ने आपको यह नहीं बताया कि जो आदमी आपने पकड़ा है, वह अमीर आदमी है।”
“किस आदमी की बात कर रहे हैं आप—— वैसे मुझे स्वयं हैरत हो रही है कि वह आखिर कौन आदमी हो सकता है जिसे मैंने गलत पकड़ लिया हो लेकिन गलती इंसान से हो भी जाती है, उसका सुधार किया जा सकता है। कौन आदमी है वह?”
“मैं बाबू की बात कर रहा हूं।”
“बाबू?”
“हां—— वह मेरा आदमी है।”
इंस्पेक्टर बाली के चेहरे के भाव अचानक ही बदले। उसने अपने दोनों सहयोगियों की ओर देखा।
“इंस्पेक्टर जोशी—— इंस्पेक्टर भाटी!”
वह दोनों सहयोगी अपनी कुर्सियां छोड़कर उठे। इंस्पेक्टर बाली ने उन्हें अपने करीब आने का संकेत किया। वे उलझनपूर्ण नेत्रों सहित उसके सामने खड़े हो गए।
“बैठो।”
उसके आदेश पर वे दोनों उसके सामने रखी कुर्सियों पर हिचकिचाते से बैठ गए।
“यह बात तुम लोगों ने मुझे पहले क्यों नहीं बताई?”
“मैं आपको बताना चाहता था सर लेकिन——।” सब-इंस्पेक्टर भाटी ने कहा——“उस समय आप जल्दी में थे और आपने कहा था कि इस विषय में आप बाद में बात करेंगे।”
“लेकिन ऐसी बात तो तुम्हें फिर भी बतानी थी। भले ही मैं जल्दी में था। ऐसा करके तुमने बहुत बड़ी गलती की है। जबकि यह बात मैं तुम लोगों को बहुत पहले ही बता चुका हूं कि मेरे साथ काम करने वालों को गलतियां करने की इजाजत नहीं होती।”
जे०के० मखीजा नाम के उस आदमी के चेहरे पर गर्व पूर्ण भाव नजर आए।
“सर वो——।” सब-इंस्पेक्टर भाटी ने कुछ कहना चाहा तो इंस्पेक्टर बाली ने उसे बीच में ही रोक दिया और घण्टी पर हाथ रखा।
अगले पल ही एक कॉन्स्टेबल अन्दर दाखिल हुआ। इंस्पेक्टर बाली ने मखीजा नाम के उस आदमी को खड़े होने का संकेत किया।
वह उलझन पूर्ण नेत्रों से इंस्पेक्टर बाली की ओर देखता हुआ अपनी कुर्सी छोड़कर उठा।
“कॉन्स्टेबल—— यह कुर्सी यहां से हटाओ।”
मखीजा की आंखों में उलझन के भाव और गहरे हो गए। उसके सिवा वहां अन्य कोई कुर्सी नहीं थी। उसका यह एक्शन जैसे उसकी समझ से बाहर था।
कॉन्स्टेबल ने वह कुर्सी हटा ली।
“यह... यह आपने...!”
“बाद में बात करता हूं——।” कहकर इंस्पेक्टर बाली ने अपने दोनों सहयोगियों की ओर देखा। उनके चेहरों पर चिन्ता के भाव उभरे।
“मुझे——।” इंस्पेक्टर बाली ने उनके चेहरों पर नजरें गड़ाते हुए कहा——“इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि अब से पहले यहां क्या होता रहा। मुझे तुम्हारी व्यक्तिगत जिन्दगी से भी कुछ लेना-देना नहीं कि तुम किसके साथ उठते-बैठते हो या किससे दोस्ती रखते हो लेकिन मेरी एक बात ध्यान से सुनो—— कान खोलकर सुनो—— जब तुम ड्यूटी पर हो और जब तुम्हारे जिस्म पर पुलिस की वर्दी हो उस समय हर शरीफ आदमी को तुम्हारी छवि एक ऐसे रक्षक की नजर आए कि तुम्हारे होते कोई गुनाहगार उनकी ओर आंख उठाकर भी नहीं देख सके। यहां तक कि स्वयं मौत भी तुम्हारी मौजूदगी में उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती।
लेकिन इस वर्दी पर जब किसी को गुनाहगार की नजर पड़े तो उसकी रगों में बहने वाला खून दौरा करना बन्द कर दे। उन्हें लगना चाहिए कि अब भगवान भी चाहे तो उनकी रक्षा नहीं कर सकता। सुना तुमने?”
“य... यस सर!” दोनों ने एक साथ कहा।
“और यह भी कि एक पुलिस वाला हमेशा अपनी ड्यूटी पर होता है। उस समय भी जबकि उसके जिस्म पर वर्दी हो, और तब भी जबकि वह बिना वर्दी के हो।”
“यस सर!”
“लेकिन आज तुमने मेरे सामने—— अपने सीनियर ऑफिसर के सामने पुलिस की पवित्र वर्दी को धारण करने के बाद एक ऐसे आदमी के सामने अपना सिर झुकाया है जो स्वयं मेरे सामने स्वीकार कर रहा है कि वह एक गुनाहगार का रिश्तेदार है। वह उसे अपना आदमी बता रहा है। ऐसा करके तुमने इस वर्दी का अपमान किया है।”
“सॉरी सर!”
“केवल सॉरी कहने से इसकी भरपाई नहीं हो सकती। मैं तुमसे बाद में बात करता हूं लेकिन एक बात अभी सुन लो—— यदि ऐसा नजारा मुझे दोबारा देखने को मिला तो तुम्हारी वर्दी पर लगे यह स्टार मैं स्वयं नोच लूंगा। समझे तुम लोग?”
“यस सर—— यस सर!”
“फिलहाल अपनी सीट पर जाकर काम करो—— मैं तुमसे बाद में बात करता हूं।”
इंस्पेक्टर बाली के यह तेवर देखकर पहले तो जे०के० मखीजा हक्का-बक्का रह गया। फिर वह अपमान से तिलमिला उठा।
उसके दोनों सहयोगी अपने चेहरे झुकाकर उठे तथा अपनी सीटों की ओर बढ़ गए।
सब-इंस्पेक्टर बाली ने जे०के० मखीजा की ओर देखा तो उसका चेहरा अपमान से सुर्ख हो रहा था लेकिन इंस्पेक्टर बाली पर इसका जरा भी प्रभाव नहीं पड़ा।
“हां—— तो अब बोलो, क्या कहना है तुम्हें?”
“यह तुमने अच्छा नहीं किया इंस्पेक्टर!” उसने अपमान से तिलमिलाते हुए एक-एक शब्द को चबाते हुए कहा।
“क्या अच्छा नहीं किया है मैंने?”
“तुम मेरा अपमान कर रहे हो।”
“अभी मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है।”
“तुम मुझे जानते नहीं हो इंस्पेक्टर! मुख्यमन्त्री भी मेरे से इस तरह बात नहीं करता।”
“वाह!” इंस्पेक्टर बाली ने कहा——“पहली छलांग में ही मुख्यमन्त्री तक पहुंच गए।”
“ऐसा तुम इसलिए कह रहे हो कि तुम जानते नहीं हो कि मैं कितनी लम्बी छलांग लगा सकता हूं।”
“हो सकता है—— लेकिन मुझे यह जानने की जरूरत भी नहीं है। तुम मुख्यमन्त्री के साथ बैठकर चाय पीते हो इस बात से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। तुम मेरे पास जिस मकसद से आए हो, उसके बारे में तुम्हें कुछ कहना है तो कहो।”
“मैं एक बार फिर कहता हूं इंस्पेक्टर की अभी तुम मुझे नहीं जानते हो। अन्जाने में ऐसा हो भी जाता है। यदि तुम यह बात स्वीकार कर लो तो मैं इसे भूल सकता हूं।”
“मेरा ख्याल है, तुम्हारे बारे में जितना जानना मेरे लिए जरूरी है, उतना मैं जान गया हूं।”
“क्या जानते हो?”
“तुम्हारा नाम जे०के० मखीजा है और जिस आदमी की तुम सिफारिश लेकर आए हो, उसी से इस बात का अनुमान लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है कि तुम कैसे आदमी हो सकते हो।”
जे०के० मखीजा के अपमान से तिलमिलाते चेहरे के भाव अचानक ही बदले। वह अपना पैंतरा बदल रहा था।
“देखो इंस्पेक्टर—— तुम मुझे समझ नहीं रहे हो। तभी तुमने मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया है। मैं वह आदमी नहीं हूं कि तुम्हारे सामने मुझे खड़े-खड़े बात करनी पड़े। आखिर मैं आपका मुलजिम तो हूं नहीं। किसी साधारण आदमी के साथ भी आपको इस तरह पेश नहीं आना चाहिए। आखिर तुम लोगों की सेवा करने के लिए बैठे हो।”
“ठीक कहा तुमने—— हम लोगों की सेवा करने के लिए बैठे हैं। उनकी तकलीफें दूर करने के लिए बैठे हैं। साधारण और शरीफ लोगों के साथ में किस तरह पेश आता हूं, यह तुमने स्वयं ही देखा है। उस समय तुम्हारे साथ मेरा बर्ताव दूसरा था जब तक मैं नहीं जानता था कि तुम्हारा कोई रिश्ता बाबू नाम के उस आदमी से है।
लेकिन यह जानने के बाद तो यह नहीं हो सकता कि मैं तुम्हें उस कुर्सी पर बैठाकर अपने से बात करने की इजाजत दूं जो कि शरीफ लोगों के लिए होती है। मुझे इस बात से कुछ लेना-देना नहीं होता कि वह शरीफ आदमी कोई साधारण आदमी है या फिर कोई विशेष आदमी है।”
“तुम जिद पर अड़े हो ! तुम्हारी इस जिद से तुम्हें कोई लाभ नहीं होने वाला। मेरे साथ मिलकर चलोगे तो लाभ में रहोगे। बल्कि उसमें हम दोनों का ही लाभ है।”
“तुमसे मिलकर चलने में मेरा क्या लाभ होगा भला?”
“इसके बारे में अपने मुंह से भला क्या बताऊं? तुम्हारे मातहत मेरे बारे में सारी बात तुम्हें बता देंगे।”
“तुम स्वयं यहां मौजूद हो तो मातहतों को कष्ट देने की क्या जरूरत है? तुम स्वयं ही बता दो।”
“तो इतना समझ लो कि यहां जो तुम चाहोगे वही होगा। तुम्हारे किसी काम को रोकने-टोकने वाला कोई नहीं होगा। तुम्हारा कोई उच्चाधिकारी भी नहीं और भी बहुत कुछ। तुम स्वयं समझ सकते हो।”
“और यदि तुमसे मिलकर नहीं चलूंगा तो मेरे हर काम में अड़ंगेबाजी होगी। मुझे चैन के साथ ड्यूटी नहीं करने दी जाएगी। मेरा ट्रांसफर कर दिया जाएगा?”
“मैं यह सब कहने में विश्वास नहीं रखता।”
“यानी करने में विश्वास करते हो।”
वह हल्के से मुस्कुराया——बोला कुछ नहीं।
“तुम्हारी बातें सुनकर मुझे वाकई लगने लगा है मिस्टर मखीजा कि मुझे चैन से अपनी ड्यूटी करनी है——चार पैसे कमाने हैं तो तुमसे मिलकर चलना ही पड़ेगा। ठीक है मिस्टर मखीजा——मैं इस विषय पर जरूर सोचूंगा। बल्कि गम्भीरता से सोचूंगा।”
“जरूर सोचना——सोच कर मुझे जवाब देना लेकिन......।” मखीजा ने कहा——“एक काम तो तुम्हें अभी करना होगा। उसके लिए सोचने की गुंजाइश नहीं है।”
“कौन-सा काम?”
“क्या यह बात हम दोनों बैठकर नहीं कर सकते?” मखीजा ने अपने बराबर में रखी दोनों कुर्सियों की ओर देखते हुए कहा।
“अभी नहीं।”
“नहीं?”
“अभी मैंने इस विषय में सोचा नहीं है ना।”
जे०के० मखीजा अन्दर ही अन्दर बुरी तरह से तिलमिलाकर रह गया लेकिन अपने चेहरे पर उसने ऐसा कोई भाव नहीं आने दिया।
“ठीक है...!” उसने कहा——“मुझे खड़े-खड़े बात करने में भी कोई ऐतराज नहीं है।”
“तुम कौन-से काम की बात कर रहे हो?”
“बाबू वाली बात।”
“बाबू वाली बात क्या?”
“उसे इसी वक्त छोड़ना होगा।”
“यह कैसे हो सकता है?”
“क्यों नहीं हो सकता?”
“वह नया-नया हमारा मेहमान बना है। ठीक है फिर उसकी खातिरदारी करने का मुझे मौका भी नहीं मिला। छोड़ दूंगा——ऐसी जल्दी भी क्या है?”
“यह सब बेकार की बातें हैं इंस्पेक्टर!”
“क्या बेकार की बातें हैं।”
“बाबू मेरा आदमी है——मेरे लिए यह प्रतिष्ठा का सवाल है। और जब मेरी प्रतिष्ठा का सवाल होता है तो उसे बचाने के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं।”
“कुछ भी से तुम्हारा मतलब?”
“कुछ भी से मेरा मतलब सभी कुछ——बाबू को इसी समय छुड़ाने के लिए मैं सभी कुछ कर सकता हूं। वैसे रूपये-पैसे की बात हो तो मुझे संकेत भर चाहिए। सौदा नहीं करूंगा। एक बार मुंह से निकालने की देर है। उतनी ही रकम हाजिर हो जाएगी।”
“वह तो मुझे पहले ही अन्दाजा हो गया था मिस्टर मखीजा कि तुम्हारे पास दौलत की कमी नहीं है। दोनों हाथों से लुटा सकते हो।”
“तो फिर देर किसलिए?”
“अभी मुझे देखने दो——देखने दो कि तुम्हारा वह आदमी कितनी पहुंची हुई चीज है। सरेआम एक लड़की से बलात्कार करने का प्रयास। बिल्कुल बेखौफ होकर। मैं ठीक वक्त पर न पहुंच गया होता तो अपने इरादों में कामयाब हो ही गया होता। एक बार उसके दुस्साहस को परख कर ही तो उसकी कीमत लगाऊंगा। उसे छुड़ाने की इतनी जल्दी क्या है——यह समझो कि यहां भी वह घर में ही है।”
“उसे परखने की जरूरत नहीं है इंस्पेक्टर——वह इतनी पहुंची हुई चीज है कि तुम उसका अनुमान भी नहीं लगा सकते। इसे कोई चमत्कार ही समझो कि वह अपने इरादे में कामयाब हुए बिना तुम्हारी पकड़ में आ गया। ऐसा आज तक नहीं हुआ इंस्पेक्टर कि कोई उसे उसके इरादे से रोक सका हो। भले ही वह पुलिस ही क्यों न हो।”
“इस तरह तो आपने उसके प्रति मेरी दिलचस्पी को बहुत बढ़ा दिया है। अब तो मैं जरूर उसे करीब से परखकर देखूंगा। फिलहाल उसका मामला पैण्डिंग में हीं रहने दो मिस्टर मखीजा!”
“लगता है तुम मेरी बात समझने को तैयार नहीं हो इंस्पेक्टर! मैं तुम्हारी ही बात तो समझ रहा हूं।”
“मुझे दो टूक शब्दों में तुम्हारा जवाब चाहिए इंस्पेक्टर!”
“कैसा जवाब?”
“तुम बाबू को छोड़ रहे हो या नहीं?”
“मेरा ख्याल है, मेरा जवाब तो तुम्हें पहले ही मिल गया था।”
“यानी तुम उसे नहीं छोड़ रहे?”
इंस्पेक्टर बाली ने उत्तर नहीं दिया। उसका मौन ही उसका उत्तर था।
“यह तुम्हें बहुत भारी पड़ेगा इंस्पेक्टर! तुम अभी मुझे जानते नहीं।”
“इतनी देर से तुम अपने बारे में ही तो बता रहे हो——क्या और भी कुछ जानना बाकी है?”
“बहुत कुछ जानना बाकी है इंस्पेक्टर——लगता है यह नौकरी तुम्हें रास नहीं आ रही है।”
“धमकी दे रहे हो?”
“मैं धमकियां नहीं दिया करता इंस्पेक्टर——जो कहता हूं वही करता भी हूं।”
“तो फिर करो जाकर।”
“जरूर करूंगा——बहुत जल्दी ही तुम्हें पता चल जाएगा कि मेरे से पंगा लेकर तुमने कितनी भारी भूल की है। बहुत पछताओगे इंस्पेक्टर... बहुत पछताओगे।”
“ठीक है——मैंने कभी पछताकर भी नहीं देखा——जीवन में यह अनुभव भी हो जाएगा।”
“तुम मेरे साथ मजाक कर रहे हो इंस्पेक्टर?”
“हां!” इंस्पेक्टर बाली ने कहा। इस बार उसके तेवर बदल रहे थे——“अभी मैं मजाक ही कर रहा हूं और तुम मुझे धमकियां दिए जा रहे हो। मैं इतनी देर से तुम्हारी धमकियां बर्दाश्त कर रहा हूं। अब तुम्हारे लिए यही बेहतर होगा कि तुम यहां से चुपचाप खिसक जाओ। वर्ना मेरे लिए तुम्हें यह सिखाना जरूरी हो जाएगा कि एक बावर्दी पुलिस ऑफिसर के साथ किस तरह बात की जाती है।”
“ठीक है इंस्पेक्टर——इस समय तो मैं जा रहा हूं लेकिन जाते-जाते एक बात जरूर कहूंगा।” उसने तमतमाए चेहरे से कहा।
“इतनी देर से तुम्हारी सुन रहा हूं तो एक बात और कहने की तुम्हें इजाजत देता हूं। तुम्हें जो कहना है कहो——मैं सुनने के लिए तैयार हूं लेकिन आखिरी बार।”
“तुमने जिस तरह मेरा अपमान किया है इंस्पेक्टर, वैसा करने का साहस आज तक कोई नहीं कर सका है। मैं इसे नहीं भूल सकता।”
“मैं भी यही चाहता हूं कि तुम इसे याद रखो। ताकि आइन्दा मेरे से मुलाकात करने से पहले यह बात तुम्हारे दिमाग में रहे।”
“जरूर——हमारी दूसरी मुलाकात बहुत जल्द होगी इंस्पेक्टर——और उस समय मुझे अपना यह अपमान याद रहेगा। साथ ही साथ यह भी सुन लो कि तुम्हारे लिए आज की रात है। कल की सुबह के बाद यदि बाबू को तुम अपनी हिरासत में रखकर दिखा दो तो समझ लो मैं तुम्हारा गुलाम बन गया।”
“आज रात ही क्यों? तुम इतनी बड़ी तोप हो तो अभी क्यों नहीं छुड़ाकर ले जाते? सुबह होने में तो अभी बहुत समय है। इतने समय में तो कुछ भी हो सकता है।”
“मैं ऐसा भी कर सकता हूं। मैं चाहूं तो बाबू को अभी इसी वक्त छुड़ाकर ले जा सकता हूं। बस मेरे लिए एक टेलीफोन करने की देरी है।”
“लो करो टेलीफोन।” इंस्पेक्टर बाली ने टेलीफोन उसकी ओर खिसका दिया।
“मेरे पास अपना मोबाइल है।” उसने कहा——“लेकिन मैं तुम्हें एक मौका दे रहा हूं इंस्पेक्टर——तुम्हें अपनी ताकत का बहुत घमण्ड है ना——तुम अपनी वर्दी की जितनी ताकत हो झौंक लो। सुबह-सुबह मेरा वार तुम्हारे ही हथियार से होगा और तुम स्वयं, मेरे आदमी को बाइज्जत बरी करोगे। ऐसे ही नहीं, उससे माफी मांग कर उसे रिहा करोगे।”
“क्या वाकई?”
“इसका जवाब अब तुम्हें कल सुबह ही मिलेगा और वही हमारी जंग की शुरुआत होगी।”
“क्या यह नहीं बताओगे कि मेरा वह कौन-सा हथियार है जिससे तुम मुझ पर वार करोगे?”
“जरूर——जरूर बताऊंगा। नहीं बताऊंगा तो तुम कहोगे कि मैंने तुम्हें धोखे में रखा——तुम्हें अपनी ताकत दिखाने का पूरा मौका नहीं मिला।”
“तो कौन-सा है वह हथियार?”
“वही लड़की——जिसकी इज्जत को तुम इतनी अहमियत दे रहे हो कि मेरा अपमान करने से भी बाज नहीं आ रहे। वह लड़की स्वयं बाबू को रिहा कराएगी।”
“ऐसा?”
“हां ऐसा ही——तुम आज रात भर अपनी ताकत का पूरा इस्तेमाल करके देख लो——सुबह यह ना कहना कि...!”
“यदि यह तुम्हारा चैलेन्ज है मखीजा तो मैं इंस्पेक्टर धरमसिंह बाली तुम्हारे इस चैलेन्ज को स्वीकार करता हूं लेकिन अब मेरी एक बात ध्यान से सुनो——अब जो भी बात होनी है, वह सुबह होगी। अब तुम्हारे मुंह से एक शब्द भी निकला तो——।” कहते-कहते इंस्पेक्टर बाली के चेहरे पर भूकम्प के भाव नजर आए——“यहीं, इसी जगह तुम्हारी वह हालत बनाऊंगा कि तुम्हारे हमदर्द भी तुम्हारी सूरत पहचान नहीं पाएंगे। नाऊ गेट आउट।”
मखीजा की आंखों में जलजला-सा नजर आया।
“आउट!” इंस्पेक्टर बाली की आवाज से उस कक्ष की दीवारें तक थर्रा उठीं।
जे०के० मखीजा ने एक बार फिर अपनी कहरभरी नजरें उठाकर उसकी ओर देखा लेकिन उसके होंठ नहीं खुले। फिर वह अपने परिचित सब इंस्पेक्टरों की ओर देखे बिना दरवाजे की ओर बढ़ गया।
इसके बाद इंस्पेक्टर बाली ने अपने उन दोनों सहयोगियों की ओर देखा जिन के चेहरों पर हवाईयां-सी उड़ रही थीं।
“इंस्पेक्टर जोशी!”
जोशी अपनी सीट से उछलकर खड़ा हो गया।
“इस आदमी की इतनी हिम्मत कैसे हो गई कि इसने तुम लोगों को अपना जरखरीद गुलाम समझ लिया?”
“सर... सर यह बहुत पहुंच वाला आदमी है। यह झूठ नहीं कह रहा था। मुख्यमन्त्री तक इसकी पहुंच है। इससे पंगा लेना...।”
“यू शट-अप...।” फिर बाली ने उसे इतनी जोर से फटकार लगाई थी उसने बेहद सख्ती से अपने होठों को भी भींच लिया ताकि भूल से भी कोई शब्द बाहर न आ सके।
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Additional information
Book Title | गुण्डागर्दी नहीं चलेगी : Gundagardi Nahi Chalegi by Sunil Prabhakar |
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Isbn No | |
No of Pages | 288 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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