एक कत्ल और
सुनील प्रभाकर
वो खूबसूरत युवती बैठी चावल चुन रही थी कि सहसा दरवाजे की कॉलबैल बजी।
उसने सिर उठाया।
वॉल क्लॉक की ओर दृष्टि घूमी तो बुदबुदा उठी—"वो तो हमेशा सात बजे आते हैं—और अभी पांच ही बज रहे हैं—कौन आ गया?"
वह उठी।
समीप खेल रहे गोल-मटोल बच्चे पर दृष्टि डाली।
वह समीप रखे खिलौनों से खेल रहा था।
"शिवम्...! वहीं रहना—चावल मत बिखेर देना।"
प्रत्युत्तर में बच्चा मुस्कराया।
"हंस रहा है—तू जरूर शरारत करेगा—मैं चावल टेबल पर रख देती हूं।"
"मैं—इतना थोटा-सा—शलालत तैसे तल सतता हूं?"
खूबसूरत औरत की आंखों में स्नेह का सागर-सा उमड़ा, उसने उसके दोनों गाल थपथपाये किन्तु चावल टेबल पर रखकर ही मानी।
वह दरवाजे की ओर बढ़ी और दरवाजा खोला तो चौंक गई। दरवाजे पर तीन व्यक्ति खडे थे।
एक घुंघराले बालों वाला नौजवान—दो पचास-पचपन के पेटे में पहुंचे व्यक्ति।
"आप...आप...!" युवती हकलायी।
ये प्रभात आहूजा रिपोर्टर का घर है न?"
"जी...जी हां!"
"तू उसकी बेवा है?"
"मिस्टर...!" युवती का चेहरा कनपटियों तक सुर्ख हो चला था—"तुम होश में तो हो?"
प्रत्युत्तर में तीनों के होठों पर भूखे भेड़ियों को भी मात करती मुस्कान उभरी।
"बुरा मत मान...!" एक अधेड़ बोला था—"अगर तू बेवा नहीं है तो हो जायेगी। बहुत जल्द हो जायेगी।"
युवती को खतरे का अहसास हुआ।
वह सतर्क हुई।
उनके इरादे ठीक न लग रहे थे।
पढ़ी-लिखी चतुर गृहणी!
उनकी संख्या तीन—वो देख चुकी थी।
उसने तेजी से पीछे हटते हुए दरवाजा बन्द करना चाहा किन्तु तभी एक ने टांग दरवाजे के बीच फंसा दी।
युवती ने दरवाजे को फिर भी बन्द करना चाहा।
अधेड़ ने सिसकारी-सी भरी और उसके परिपुष्ट वक्षों पर अपनी चौड़ी खुरदरी हथेली टिकाकर उसे पीछे को धक्का दिया।
धक्का जोरदार था।
वह पीछे को हटती चली गई थी और इतना पीछे हटी थी कि सोफे पर जा गिरी थी।
कण्ठ से घुटी-घुटी सी चीख निकालते हुए वह सीधी हुई तो उसे अपना कलेजा मुंह को आता प्रतीत हुआ।
तीनों भीतर प्रविष्ट हो चुके थे।
एक घूमकर दरवाजा बोल्ट कर रहा था।
वह आंखें फाड़े उन्हें देखती ही रह गई।
¶¶
"क...कौन...! कौन हो तुम?"
"तुझ बेवा के एक विधुर—व दो कुंआरे पति...!"
"मिस्टर...!"
"चिल्ला मत...! सुर को नीचा रख...! वर्ना...!"
"वर्ना क्या?"
"जो काम हम थोड़ी देर बाद करने वाले हैं—वह अभी कर डालेंगे।"
"क्या कर डालोगे तुम?"
"तुम्हारा व इस संपोले का गला काटकर यहीं फेंक देना है हमें।"
"न...नहीं...!" युवती की आंखें फट पड़ी थीं।
"तुम्हारा पति प्रभात आहूजा स्वयं को कलम का सिपाही समझता है न! हम उसे मौत का सिपाही बना देंगे।"
"क्या बकते हो? हमने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा?"
"तूने नहीं बिगाड़ा—जो कुछ बिगाड़ा है, तेरे पति ने बिगाड़ा है।"
"क...क्या मतलब?"
"मतलब सीधा व साफ है—उसने मेरे खिलाफ लिखना शुरू किया है। वह मुझे इशारों-इशारों में सफेदपोश कहता है तथा जनता से वायदा किया है उसने कि शीघ्र ही वह मेरे चेहरे से नकाब नोंच लेगा।"
"तुम...तुम कहीं नरोत्तम दास तो नहीं?"
"ठीक पहचाना है—मैं नरोत्तम दास हूं और जो नरों में उत्तम हो, उत्तम का दास हो—वह भला शैतान कैसे हो सकता है?"
"लेकिन तुम शैतान हो...!" चीख पड़ी थी युवती—"तुम...तुम इस प्रकार यहां प्रविष्ट हुए और धमका रहे हो।"
"धमका नहीं रहा मेरी जान...! असलियत बयान कर रहा हूं। अब तेरे साथ रेप होगा फिर हत्या होगी। ठीक ऐसे...!"
कहते हुए उस अधेड़ ने युवक की ओर देखा। घुंघराले बालों वाला युवक तो जैसे उसकी प्रतीक्षा कर रहा था।
वह गौरिल्ले की तरह बच्चे की ओर झपटा।
न जाने कब उसके हाथ में पतले फल का लम्बा चाकू आ गया था।
"न...नहीं...! रुक जाओ...!" युवती चीखी।
"खचाक्...!"
युवक का हाथ घूमा और चाकू बच्चे के सीने में धंसकर आर-पार हो गया।
नन्हीं-सी मुलायम जान!
वह चीख भी न सका और उसके प्राण-पखेरु उड़ गए।
खून के छींटे उड़े।
किन्तु युवक सावधान था।
उसने पीछे हटते हुए स्वयं को बचाया और फिर हाथों पर से दस्ताने उतारने लगा।
"शाबाश जिमी...! तेरा जवाब नहीं...! तेरा काम बिल्कुल सॉलिड है।"
प्रत्युत्तर में युवक मोहक भाव से मुस्कराया।
युवती आर्तनाद कर उठी।
¶¶
"आह...तुमने मेरे बच्चे...! मेरे कलेजे के टुकड़े को मार डाला। मैं तुम्हें जिन्दा नहीं छोडूंगी।"
युवती झपटी।
उसका चेहरा क्रोध व वेदना से सुर्ख होकर थरथरा रहा था।
वह पंजे फैलाकर झपटी।
किन्तु तभी एक शैतान आगे बढ़ा और उसने पीछे से युवती की कमर में हाथ डालकर झटका दिया।
युवती हवा में लहरायी और सीधी सोफे पर जा गिरी। तीनों बाज की तरह झपटे।
युवती तीन भूखे बाजों के बीच घिरी नन्हीं-सी कबूतरी में तब्दील हो गई।
और फिर!
कबूतरी के पंख नोंचे जाने लगे।
वह चीखती रही—प्रतिरोध करती रही किन्तु उनके सामने उसका प्रतिरोध तीन भेड़ियों के मध्य फंसी बकरी जैसा ही था।
भेड़ियों ने उसके पंख नोंचकर उसे नंगा किया। फिर फिर अपने खूनी पंजों से नोंचने लगे।
वह छटपटाती-बिलबिलाती रही।
उन पर कोई फर्क न पड़ा।
वे अट्टहास लगा उठे।
"तेरा पति स्वयं को सच का सिपाही कहता है। सच कहने, सच लिखने का दावा करता है। काश! वह इस समय यहां होता तो...तो वह देखता कि सबसे बड़ी सच्चाई ये है।"
"कमीनों...! कुत्तों...!"
"ये सब छोटी-मोटी डिग्रियां हैं मेरी जान! हम तो इससे भी ऊंची—बहुत ऊंची चीज हैं। जिसका एक नमूना अब तू देखेगी। ऐ...! इसे टांगों से पकड़कर सीधा खींच—मैं इसके कस-बल ढीले करता हूं।"
और फिर!
वासना का नंगा नाच...!
एक अबला की मर्मान्तक चीखें—जो कि शनैः-शनैः शान्त पड़ गईं और उनका स्थान कामुक भेड़ियों की हुंकारों ने ले लिया।
वह बेहोश हो गई।
भेड़ियों का नोंचना नहीं रुका।
वे नोंचते रहे।
उनका दिल भरा।
वे पीछे हटे।
"देख जिन्दा है साली या मर गई?"
"जिन्दा है।" दूसरा नब्ज टटोलते हुए बोला था।
"खलास कर दे।"
"ठीक...!"
युवक ने दूसरा चाकू निकाला और इत्मीनान से उसके सीने में घोंप दिया।
युवती का नुचा हुआ जिस्म बेहोशी के आलम में ही बुरी तरह मचलकर ऊपर को उठा, फिर झटके से ढीला पड़ गया।
उन शैतानों की तो बात दूर वह इस दुनिया से ही मुक्ति पा चुकी थी।
"अब वो बचा साला प्रभात आहूजा...! उसका भी निपटारा कर देना ही उचित होगा। अच्छा होता कि वह यहां आ जाता तो...!"
"अच्छा हुआ वह यहां नहीं है—वर्ना व्यर्थ में लफड़ा खड़ा कर देता—अब वह बगैर लफड़े के इस दुनिया से विदा हो जायेगा। मामला खलास...!"
"ओह...!"
"अब चलो, हिलो यहां से...! वारदात करने के बाद वहां मूर्ख रुका करते हैं।"
"बेशक! किन्तु जरा हम देख तो लें कि कोई सबूत आदि तो नहीं छूटा यहां।"
"वैरी गुड...! देख ले।"
और फिर!
बमुश्किल पांच मिनट बाद वे शैतान वहां से गायब हो चुके थे।
¶¶
admin –
Aliquam fringilla euismod risus ac bibendum. Sed sit amet sem varius ante feugiat lacinia. Nunc ipsum nulla, vulputate ut venenatis vitae, malesuada ut mi. Quisque iaculis, dui congue placerat pretium, augue erat accumsan lacus