दूध ना बख्शूंगी
"ओफ्फो—अब ये क्या उठा लिया आपने?"
"जुदाई'।"
अमिता का दिल धक्क से रह गया—जाने क्यों मुंह से कम्पित स्वर निकाला—"'ज-जुदाई'।"
"हां भई—।" तोताराम ने हल्की-सी मुस्कान के साथ सामान्य स्वर में कहा—"मैं प्रेम बाजपेयी का बहुत पुराना पाठक हूं—और ''जुदाई'' बाजपेयी की लेटेस्ट रचना है, जिसे मनोज पॉकेट बुक्स ने प्रकाशित किया है।''
"वह तो मैं जानती हूं, लेकिन आप पिछले तीन दिन से लगातार इसे अपने साथ चिपकाए फिर रहे हैं, ऐसा इसमें क्या है?"
धीमे से हंसते हुए तोताराम ने जवाब दिया—"तुम नहीं समझोगी।"
"क्या मतलब?"
"तुम उपन्यास नहीं पढ़ती हो ना, इसीलिए तुम्हें उपन्यास की कशिश का अन्दाजा भी नहीं है—मैं तभी से बाजपेयी का पाठक हूं जब विधायक नहीं था—तब मेरे पास काफी समय होता था—बाजपेयी का कोई भी उपन्यास प्रकाशित होते ही उसे एक ही बैठक में पढ़ जाना मेरे लिए खाना खाने से भी ज्यादा जरूरी होता था—इच्छा तो अब भी यही होती है, लेकिन क्या करूं—इतना समय ही नहीं मिलता—विधायक हूं न—पिछले तीन दिन से चौबीस घण्टे मेरे साथ है—खाली समय मिलते ही पढ़ना शुरू कर देता हूं—अब भी पचास पेज बाकी रह गए हैं।"
"अब आप सम्राट में मेरे साथ डिनर लेने चल रहे हैं या इस कलमुही ''जुदाई'' के बाकी पचास पेज पढ़ने—?"
तोताराम ने हंसते हुए ही जवाब दिया—"तुमने तो तिल का पहाड़ बना दिया—मैं तुम्हारे साथ डिनर लेने ही जा रहा हूं।"
"मैं तुमसे बात करती रहूंगी और तुम इसमें डूबे रहना।"
"ऐसा नहीं होगा—मैं सिर्फ खाली समय में ही इसे पढूंगा—चलें?"
"चलते हैं—मैं जरा अपने कमरे से अपना पर्स लेकर आती हूं।" कहने के बाद बुरा-सा मुंह बनाती हुई अमिता मुड़ी और तेज कदमों के साथ अपने कमरे की तरफ बढ़ गई—उसी पीठ देखता हुआ तोताराम होंठों-ही-होंठों में बुदबुदाया—"मैं जानता हूं अमिता कि तू किस हद तक गिर सकती है और यदि तू उस हद तक गिरी तो मनोज पॉकेट बुक्स से निकली प्रेम बाजपेयी की यह लेटेस्ट रचना ही तेरे लिए फांसी का फन्दा बन जाएगी—''जुदाई''—सारी दुनिया के सामने तुझे नग्न कर देगी।"
¶¶
वह तोताराम राजनगर के कैंट क्षेत्र से विधानसभा में विपक्ष का विधायक था, जो कि सम्राट होटल के हॉल में अभी-अभी अपनी बीवी के साथ प्रविष्ट हुआ था—लम्बे-चौड़े हॉल में तीव्र प्रकाश था—अधिकांश सीटें भरी हुई थीं—कुछ रिक्त भी थीं। उन्हीं में से एक तरफ वह जोड़ा बढ़ गया।
अमिता के गोरे-सुडौल और तराशे गए बदन पर कीमती साड़ी थी, जबकि तोताराम खद्दर का कलफ लगा सफेद चिट्ठा कुर्ता-पायजामा पहने था—उसके दाएं हाथ में अब भी 'जुदा' थीं—सीट पर बैठने के कुछ देर बाद ही वेटर आ गया।
तोताराम ने कहा—"अपनी पसन्द का आर्डर दे दो, अमिता।"
"अभी नहीं—।" अमिता ने अपना श्रृंगार से पुता चेहरा वेटर की तरफ उठाकर कहा—"पहले हम एक राउण्ड डांस करेंगे—उसके बाद डिनर लेंगे।"
जब वेटर 'जैसी इच्छा' कहकर चला गया, तब तोताराम ने कहा—"डांस और मैं—?"
"क्यों—क्या हुआ?" अमिता ने आंखें निकालीं।
"मैं भला डांस कैसे कर सकता हूं?"
"क्यों नहीं कर सकते?"
चारों तरफ देखते हुए तोताराम ने कहा—"यहां बहुत से ऐसे लोग बैठे हैं, जो मुझे जानते हैं—वे देखेंगे तो क्या कहेंगे?"
"क्या कहेंगे, अपनी बीवी के साथ डांस करना क्या जुर्म है?"
"ओफ्फो—तुम समझती क्यों नहीं, अमिता—मैं इस शहर का विधायक हूं—मेरा यूं तुम्हारे साथ फ्लोर पर जाकर डांस करना अच्छा नहीं लगता—किसी ने फोटो खिंचवाकर अखबार में छपवा दिया तो जबरदस्ती सरदर्द करने वाला स्कैण्डल खड़ा हो जाएगा।"
"तो फिर मैं यहां क्या आपका मुंह देखने आई हूं?" अमिता भड़क उठी।
"अरे!—नाराज क्यों होती हो?"
"नहीं तो क्या खुश होऊं?" अमिता बिफर पड़ी—"मुझे नहीं लेना ऐसा डिनर—आप ही बैठो यहां—मैं चली।"
"अरे-रे कहां जाती हो?" तोताराम बौखला गया।
अमिता गुर्रा-सी उठी—"मैं तो आपसे शादी करके पछताई—यदि मुझे पता होता कि विधायक से शादी करके अपने सारे अरमानों का खून करना पड़ता है तो ये शादी कभी न करती।"
"अमिता!"
"मैं जा रही हूं।" कहने के साथ ही एक झटके से अमिता उठ खड़ी हुई।
तोताराम ने जल्दी से उसका हाथ पकड़कर दबे स्वर में कहा—"ठ-ठहरो अमिता, बैठो—मैं वैसा ही करुंगा बाबा, जैसा तुम कहती हो, लेकिन भगवान के लिए बैठ जाओ।"
गुस्से में भुनभुनाती हुई-सी अमिता बैठ गई—तोताराम उसके उखड़े हुए मूड को सामान्य करने की चेष्टा करने लगा—कम-से-कम इस हॉल में वह तमाशा बनना नहीं चाहता था।
दस मिनट के अन्दर तोताराम ने अमिता का मूड फ्रैश कर दिया था—अचानकर अमिता ने कुर्सी से उठते हुए कहा—"मैं अभी टॉयलेट से होकर आती हूं।"
तोताराम ने गर्दन हिलाकर स्वीकृति दी।
अमिता टॉयलेट की तरफ बढ़ गई, जबकि मौका मिलते ही तोताराम ने ''जुदाई'' खोल ली और पढ़ने लगा—टॉयलेट की तरफ बढ़ती हुई अमिता के कदमों में जाने क्यों हल्की-सी लड़खड़ाहट थी—हॉल के एयरकंडीशन्ड होने के बावजूद मेकअप से पुते चेहरे पर पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूंदें उभर आईं—टॉयलेट के समीप पहुंचकर उसने कनखियों से तोताराम की तरफ देखा—वह किताब में डूबा हुआ था—अमिता फुर्ती के साथ एक केबिन में घुस गई।
किसी मर्द ने उससे पूछा—"क्या रहा?"
"मैंने उसे डांस के लिए तैयार कर लिया है।"
"गुड।" मर्द ने कहा—"अब तुम सिर्फ अपने होंठों पर यह लगा लो।"
अमिता ने अपने सामने फैली मर्द की हथेली देखी—हथेली पर एक छोटी-सी डिबिया रखी थी—डिबिया में मरहम जैसा कोई पदार्थ था—उसी पदार्थ पर दृष्टि टिकाए अमिता ने थोड़े भयभीत स्वर में कहा—"म-मुझे डर लग रहा है, दीवान।"
"डर—डरने की क्या बात है?"
"पता नहीं क्यों—ऐसा लगता है जैसे कि उसे मुझ पर शक हो गया है।"
"यह तुम्हारे मन का वहम है और यदि इसे सच मान भी लिया जाए तो क्या फर्क पड़ता है—उस बेचारे की जिन्दगी अब है ही कितनी देर की?—इस हॉल से उसकी लाश ही निकलेगी।"
"यदि किसी को पता लग गया कि उसका कत्ल हमने किया है तो—?"
"तुम तो बेकार ही डर रही हो—किसी को पता नहीं लगेगा—हमारा तरीका ही ऐसा है—जल्दी करो—देर होने पर वह चौंक सकता है—बस, फ्लोर पर डांस करते समय तुम्हें सिर्फ उसके सीने पर एक प्यारा-सा चुम्बन लेना है—वही चुम्बन उसके लिए मौत साबित होगा।"
अमिता ने डिबिया से थोड़ा-सा मरहम लेकर लिपस्टिक से पुते अपने होंठों पर ठीक इस तरह लगा लिया जैसे लिपस्टिक लगाई जाती है—अब उस मरहम और लिपस्टिक का मिश्रण उसके होंठों पर लगा हुआ था।
"अब तुम जाओ।" दीवान नामक व्यक्ति ने डिबिया बन्द करने के बाद अपनी जेब में डालते हुए कहा—"अब—जब हम मिलेंगे तो हमारे बीच तोताराम नाम की दीवार नहीं होगी अमिता।"
"पहले ये तो देखो कि वह क्या कर रहा है?—यदि वह संयोग से इधर की देख रहा हुआ और मुझे इस केबिन से निकलते देख लिया तो...।"
इस बीच दीवान ने धीरे-से केबिन का पर्दा सरकाकर हॉल में झांका और फिर अमिता ने मुखातिब होकर बोला—"वह कोई किताब पढ़ रहा है।"
अमिता को जैसे एकदम कुछ याद आया—"अरे हां, एक बात और कहनी है, दीवान?"
"क्या?"
"वह प्रेम बाजपेयी की ''जुदाई'' नामक किताब पढ़ रहा है।"
"फिर?"
"इस उपन्यास को वह पिछले तीन दिन से लगातार अपने साथ चिपकाए हुए है—जैसे वह उसकी सबसे प्यारी चीज हो।"
"अच्छी किताब होगी।"
"ओफ्फो—तुम समझ नहीं रहे हो, दीवान।"
"क्या समझाना चाहती हो?"
"मुझे लगता है कि उस उपन्यास के पीछे जरूर कोई रहस्य है।"
दीवान ने चकित स्वर में पूछा—"किताब के पीछे क्या रहस्य हो सकता है!"
"यही तो मैं नहीं समझ पा रही हूं, मगर पिछले तीन दिन से ''जुदाई'' को उसका यूं अपने साथ चिपकाए रखना मुझे अजीब-सा लग रहा है—मुझे सन्देह-सा हो रहा है।"
"किस बात का संदेह?"
"यही तो मैं नहीं जानती, लेकिन उसका ''जुदाई'' को हर क्षण साथ लिए फिरना...।"
दीवान ने हल्की-सी आवाज के साथ कहा—"मैं बताऊं वह ''जुदाई'' को अपने साथ क्यों लिए फिर रहा है?"
"क-क्या तुम जानते हो?—हां-हां—बताओ...।"
"क्योंकि कुछ ही देर बाद इस दुनिया से खुद उसी की 'जुदाई' होने वाली है।"
"मजाक मत करो, दीवान—प्लीज, सीरियसली सोचो कि ऐसा क्या उस उपन्यास में क्या है, जिसकी वजह से वह उसे एक मिनट के लिए भी खुद से जुदा नहीं कर रहा है?"
"तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है, अमिता—साधारण-सी बात भी तुम्हें सिर्फ इसलिए अजीब-सी लग रही है, क्योंकि कुछ ही देर बाद तुम उसे मौत का एक चुम्बन देने वाली हो—ये उपन्यास पढ़ने वाले लोग बड़े चस्की होते हैं—उपन्यास का पीछा तब तक नहीं छोड़ते, जब तक पूरा न पढ़ लें।"
अमिता संतुष्ट न हो सकी।
जबकि दीवान ने कहा—"काफी देर हो गई है—अब तुम जाओ।"
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