पानी–पानी
असलम जमशेदपुरी
अचानक आँख खुल गई थी।
चारों तरफ तारीकी ही तारीकी थी, शायद बिजली चली गई थी। गर्मी के सबब ही आँख खुली थी। उसने अँधेरे में इधर-उधर देखने की कोशिश की लेकिन कुछ भी नज़र नही आया। आँखे मलीं बिस्तर से नीचे उतरा। टटोल-टटोल कर मोबाईल तलाश किया। ऑन करके वक्त देखने की कोशिश की तो आँखे चुधियाने लगीं। आँखों को मला और वक्त देखा। रात के तीन बजे थे। प्यास का अहसास हुआ। मई का महीना था। गर्मी अपने शबाब पर थी। पानी का जग खाली था। शायद रात में पानी खत्म हो गया था। रूम पार्टनर का बैड खाली था। वह दो दिन क़ब्ल ही अपने घर चला गया था। दरअसल हॉस्टल में यह उसका पहला साल था। उसके इम्तिहान अभी बाकी थे। उसी सबब उसने यूनिवर्सिटी इन्तिज़ामिया की बार-बार वार्निंग के बावजूद कमरा खाली नहीं किया था। 125 कमरों के हॉस्टल में, अब सिर्फ 10-12 कमरे ऐसे थे जो आबाद थे। इनमें ज्यादातर, ऐसे बच्चे थे जो पढ़ाई तो बराए नाम करते थे, उनका काम यूनिवर्सिटी में सियासत करना था। हर वक़्त रजिस्ट्रार और वाइस चांसलर ऑफिस के आस-पास मँडराते रहते। दिन भर कभी जलसा, कभी जुलूस, किसी मामले को लेकर “वाइस चांसलर मुर्दाबाद” के नारे लगाते। तलबा के मसाईल को लेकर वाइस चांसलर का घेराव करना, उनका रोज़मर्रा के कामों में शामिल था। मशहूर था कि यह उनका काम यानी पेशा था। सुनने में तो यहाँ तक आता रहता है कि इनके ज्यादातर धरने, घेराव और जुलूस Sponsored होते हैं। प्यास ने उसे बेचैन किया तो वह बाहर निकला। बाहर वॉश बेसिन की टोंटी खोली। ‘शू’ की एक आवाज के साथ हवा निकली लेकिन पानी नहीं आया। वह बाथरूम में गया। टोंटी खोली, पानी नदारद था प्यास की शिद्दत ने मुज़तरिब कर दिया था।
बदहवासी में बाथरूम की सारी टोंटियाँ खोलता चला गया।
“पानी कहाँ मर गया।”
आस-पास के कमरे के दरवाजे खटखटाने लगा। दरवाजे देर तक ना खुलने पर देखा दरवाजों पर तो ताले पड़े हैं। प्यास की शिद्दत से हलक में कांटे उग आए थे, बेचैनी पहले परेशानी और अब ख़ौफ में तब्दील होने लगी थी, अँधेरा, घुप्प अँधेरा...ऐसे में प्यास ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए थे। उसकी हालत पागलों की सी हो रही थी। अपने हाथों से सिर के बालों को नोच रहा था। उसके हलक से सिर्फ़ “पानी...पानी” निकल रहा था। दौड़ते-दौड़ते उसने हॉस्टल की पूरी राह-दारी तय कर ली थी।
मुताअदिद् दरवाजे खटखटा लिए थे, कई बाथरूम की टोंटियां खंगाल ली थीं। पानी का क़तरा भी मयस्सर नहीं आया। बिजली अभी तक नहीं आई थी उसने मोबाईल में फिर वक़्त देखा। चार बज रहे थे एक घंटा हो चुका था। बिजली इतनी तवील कभी नहीं जाती थी। कभी चली भी जाती तो यूनिवर्सिटी के देव कामत जनरेटर फौरन चालू हो जाते थे और बिजली आनन-फानन अपने बिगड़े कामों को सुधार लिया करती थी। अचानक याद आया कि कुछ लड़कों के कमरे खाली ना करने से यूनिवर्सिटी इन्तिजामिया ने कुछ सख्त इक़दाम का फैसला किया था। शायद रात में बिजली और पानी की सप्लाई काट दी गई हो...अब उसकी घबराहट में खौफ दर आया था। उसे लग रहा था कि अगर और थोड़ी देर में पानी ना मिला तो शायद उसकी जान ना चली जाए। वह क्या करे उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था...उसके जिस्म की ताकत यूँ निकली जा रही थी गोया किसी ने गुब्बारे में सुराख कर दिया हो। हाथ-पाँव में दम नहीं था। हलक खुश्क हो चुका था जैसे दूर तक सहरा ही सहरा हो, सूरज की तपिश भी शदीद हो और पानी का कहीं नाम ना हो...आज उसे पानी की एहमियत का अंदाजा हो रहा था। उसने कभी अपने कमरे में पानी भर कर नहीं रखा। कभी रात को जरूरत पड़ती तो वाटर टैप से पी लिया। ऐसा तो इल्म नहीं था कि बात यहाँ तक आ जाएगी...ये वाइसचांसलर है या यजीद...बंद होती आँखों से एक धुँधला-धुँधला मन्ज़र आहिस्ता-आहिस्ता वाज़ेह होता गया।
इराक का शहर कर्बला...।
शोले उगलती गर्मी, दूर-दूर तक कहीं कोई साया-ना-हम साया...प्यास की शिद्दत अपनी इंतिहा पर थी। इमाम हुसैन के जरी साथी यके बाद दीगरे जामे शहादत से अपनी प्यास बुझा रहे थे। फरात पर यजी़द के खूंखार दरिन्दों का सख़्त पहरा था। पानी की, हर इल्तजा के बदले तीरों की अनी हलक में घुसकर प्यास के अहसास को ही खत्म कर देती थी। इमाम हुसैन के साथी जवां मर्दी से मुकाबला करते हुए जामे शहादत नोश फरमा रहे थे। खेमों के अन्दर ख़्वातीन के हलक प्यास की शिद्दत से बंद से हुए जा रहे थे। ज़बान पर कांटे उग आए थे। छातियों का दूध भी खुश्क हो गया था। मासूम नौनिहालों की हालत नाजुक होती जा रही थी। हल्का-हल्का शोर पानी-पानी करती जबानें...लेकिन दुश्मनों तक कोई आवाज न जाती। खुद्दारी, जाँ-निसारी और सिर न झुकाने के जज़्बे ने बेजान जिस्मों में भी हरारत भर दी थी। इमाम हुसैन खेमें में दाखिल हुये। ज़ैनब ने लपककर भाई का हाथ थाम लिया।
“भय्या-सब कुछ खत्म हो गया।”
“जैनब हौसला रखो, खुदा हमारे साथ है।”
“भय्या-अली असग़र...प्यास की शिद्दत से बेचैन हुऐ जाते है। दुश्मनों से इस शीर ख़्वार के लिये पानी माँग लो...शायद उसे दो बूँद पानी दे दें।”
ज़ैनब ने अपनी गोद से अली असग़र को इमाम हुसैन के हवाले कर दिया। इमाम हुसैन ने बच्चे को गोद में लेते हुऐ उसे प्यार किया...बच्चे की ज़बान बाहर को आ रही थी...प्यास की शिद्दत, खतरे के निशान को भी पार कर रही थी। बाप की शफ़क़त बेबसी और मजबूरी आँसू बन कर आँखों से बाहर आयी। लेकिन आँसू भी हुसैन के चेहरे से दाढ़ी तक का सफर ही तय कर पाये। तक़दीर को शायद यही मन्जूर था। हुसैन बच्चे को लिये हुए खेमे से बाहर आये। बाहर सूरज आसमान पर क़हर बरपा रहा था। नीचे ज़मीन तपिश के मारे अंगारा बनी हुई थी। गर्म हवा के थपेड़े जिस्मों को झुलसा रहे थे। रेगज़ार में बे गोरो कफ़न साथियों की लाशें दूर तक फैली हुई थीं—सामने अदू का लश्कर था। जो हर हरकत पर नज़र रखे हुऐ था। उन्हें फतह क़रीब नज़र आ रही थी।
अब सिर्फ फौज का सिपेहसालार बाक़ी रह गया था। इमाम हुसैन ने दुश्मनों से मज़बूर व बेबस होकर कहा—“देखो ये छः माह का शीरख़्वार...तुम्हारी दुश्मनी मुझ से है, इस बेचारे का क्या कुसूर? खुदा के लिए इसे पानी दे दो...।” ज़बान ने ज़्यादा साथ ना दिया हलक खुश्क हुआ जा रहा था। खुद भी बेहद प्यासे थे। हाथों में लरजा तारी था। बच्चे की हालत नाकाबिले दीद थी। पूरे जिस्म की ताकत, ज़बान में समेटते हुए हुसैन दोबार, गोया हुए।
“तुम समझते हो, बच्चे के बहाने हुसैन पानी पी लेगा...हराम है मुझपर ऐसा एक क़तरा भी...लो मैं बच्चे को यहां छोड़ देता हूँ तुम खुद इसे पानी पिला दो।”
कहते हुए हुसैन ने तपती हुई रेत पर अली असगर को लिटा दिया...बच्चा धूप और रेत की तपिश से तड़पने लगा। दुश्मनों में चै-मै-गोइया जारी थीं। कोई उसे हुसैन की चाल समझ रहा था। किसी का ख्याल था कि दुश्मन-दुश्मन सब बराबर हैं, क्या बड़ा, क्या बच्चा...और फिर पानी पर पाबंदी लगाकर ही तो हमने अपनी फतह का मंसूबा बनाया था। बच्चे को पानी पिलाने से हमारी मंसूबा बंदी खत्म हो जाएगी।
बच्चे की तड़प और ज़ालिमों के अटल रव्य्ये को देखते हुए इमाम हुसैन ने दौड़कर बच्चे को उठा लिया। गोद में लेकर प्यार करने लगे।
“बेटे सब्र, कीजिए...सब्र...खुदा की यही मर्जी है।”
बाप के इन जुमलों ने मासूम के दिल पर फाहे का काम किया। उसके चेहरे पर मुस्कराहट की लकीर नमूदार हुई, इतने में वो हुआ जो शायद दुनिया ने कभी ना देखा हो। आसमान लरज़ उठा और ज़मीन काँप गई। अदू ने ऐसा तीर मारा कि अली असग़र के हलक के पार होता हुआ इमाम हुसैन के बाजुओं में पैवस्त हो गया। बच्चे ने जाम-ए-शहादत से अपनी प्यास अबदी तौर पर बुझा ली थी।
“नहीं...नहीं...।”
खौफ और दहशत के मारे उस की आँखों के पपोटे फैल गये। प्यास के लिए दुनिया में ऐसा भी हो सकता है।
मेरी प्यास तो कुछ भी नहीं। उसे हौसला मिला...उसकी नज़रों में अली असग़र का सरापा घूमने लगा। एक शीर ख़्वार छः माह का मासूम...जिसे करबला के सबसे कम उम्र शहीद होने का एज़ाज़ हासिल हुआ...।
उसे प्यास और पानी के रिश्ते की अहमियत समझ में आने लगी। अचानक उसके हलक के काँटे सेहत मन्द होने लगे और वह पानी के लिये चीखने लगा।
“पानी...पानी...।”
मोबाइल पर घर का नम्बर डायल किया। हज़ारों किलो मीटर दूर फोन उसकी माँ ने उठाया। रात के चार बज रहे थे—माँ घबरा गई। इतनी रात को बेटे का फोन...मुजतरिब ममता ने दुआ की।
“अल्लाह खैर!”
“हाँ बेटा...क्या बात है?”
“पा...पा...नी...अम्...अम्मी...पानी...।”
उसके हलक से लफ़्ज़ नहीं निकल पा रहे थे। उन्हें हलक के अन्दर उग आने वाले काँटों की मज़ाहेमत का सामना था। माँ की आवाज़ पर वह तड़प उठा...।
“हाँ...बेटा...क्या हुआ...क्या हुआ मेरे लाल...पानी...?”
“अम्मी...मुझे...प्यास लगी है...और...यहाँ पानी नहीं है।”
माँ तड़प उठी। उसकी नज़रों में उस का लाड़ला घूम गया। प्यास की शिद्दत से मुज़तरिब बेटे की तस्वीर उसकी निगाहों में तैरने लगी। बेटे की प्यास से परेशान, खौतफ ज़दहा, टेलीफोन कान पर लगाये कमरे में टहलती हुई माँ को अचानक ऐसा लगा गोया वह बीबी हाजरा है। और लक-व-दक सहरा में नन्हा इस्माईल, पानी, पानी ...पुकार रहा है...।
अरब के दूर तक फैले रेगिस्तान में एक नन्हा बच्चा, अपनी माँ की गोद में पानी के लिये तरस रहा है। हज़रत हाजरा परेशान हो जाती हैं! दूर-दूर नज़र दौड़ाती हैं। पानी तो पानी कहीं आसार भी नज़र नहीं आते, बच्चे को कभी गोद में लेती हैं, सीने से चिमटाती हैं। कभी उसके होठों को चूमती हैं।
बच्चे को ज़मीन पर लिटा कर दौड़ती हुई एक सम्त को जाती हैं।
दूर से देखने पर ऐसा लगता है गोया, पानी बह रहा है। दौड़ती हुई पानी की तरफ जाती हैं। गिरती-पड़ती जब वहाँ पहुँचती हैं तो चमकती हुई गर्म रेत के सिवा कुछ भी नहीं। मायूसी की गिरफ्त मज़बूत होने लगती है। बेटे की प्यास का ख्याल अचानक कौंधता है। मायूसी फरार हो जाती है। नज़रें उम्मीद से लबालब हो जाती हैं। दूर बहुत दूर, पानी के आसार नज़र आते है। ऐसा लगता है गोया पानी लहरें मार रहा हो। उम्मीद ने जिस्म में तवानाई सरायत की और पैरों ने खुद-ब-खुद दौड़ना शुरू कर दिया। गिरते-पड़ते वहाँ पहुँचती हैं जहाँ पानी नज़र आ रहा था। मगर ये क्या, पानी तो गायब था। पलट कर देखा तो दूर पानी की झलक नज़र आयी। वह दौड़ पड़ीं मगर पानी वहाँ भी नहीं था। सराबों के पीछे दौड़ते-दौड़ते वह थक चुकी थीं। हौसले पस्त हो गये थे। हिम्मत जवाब दे गई थी। जिस्म चूर-चूर था। क़दमों के छाले, हिम्मत व हौंसलों को शल कर चुके थे। ज़मीन पर दो ज़ानो होकर अल्लाह से दुआ माँगती हैं।
“ऐ अल्लाह—मेरे लाल को बचा ले। इसकी प्यास का इन्तज़ाम कर दे।”
बच्चे का ख्याल आते ही, बच्चे की तरफ चल पड़ती हैं। पास पहुँच कर देखती हैं। बच्चा खेल रहा है और बच्चे की एड़ी के पास से चश्मा उबल रहा है। उन्हें ये देखने और पता लगाने का वक़्त था न फुरसत कि पानी कहाँ से आया फौरन चुल्लू में पानी भरकर बेटे को पिलाती हैं। बच्चे को सुकून मिलता है। माँ खुद भी पानी पीती है और बच्चे को गोद में उठा लेती है। मुँह आसमान की तरफ, गोया खुदा का शुक्र अदा कर रही हो।
“वल्लाह! कैसी प्यास थी...? जिसे बुझाने को अल्लाह ने चश्मा ही जारी कर दिया।”
परेशान माँ को थोड़ी देर के लिये राहत नसीब हुई। अचानक उन्हें अपने बेटे के फोन की याद आई।
“हैलो बेटा...हाँ बेटा...क्या हुआ...?”
दूसरी तरफ से फोन कट गया था। बार-बार मिलाने पर भी नहीं मिल रहा था। स्विच ऑफ होने का इशारा था। शायद फोन का चार्ज खत्म हो गया था।
“माँ...माँ...।” अचानक फोन डिस्कनेक्ट हो गया।
“अरे बेटरी का चार्ज खत्म हो गया है। बिजली भी नही है, अब क्या होगा।” प्यास के मारे उसकी हालत नाजु़क हो गई थी। उसने सारी कुव्वत जमा करके भागना शुरू किया। वह हॉस्टल से बाहर आया। बाहर गार्ड से पानी माँगा।
“पानी तो खत्म हो गया...।”
वह हॉस्टल से बाहर की तरफ भागने लगा।
अन्दर ही अन्दर वह खुदा से दुआ माँगने लगा।
“ऐ अल्लाह...पानी...पानी पिला दे...तेरे खज़ाने में क्या कमी है। तू जब देने पर आता है तो फिर हर कमी पूरी हो जाती है। तू तो अपने बन्दों का इम्तिहान लेता है। कभी पानी-पानी करके और कभी क़तरे-क़तरे को मोहताज करके।”
उसकी नज़रों में एक-एक मन्ज़र ज़िन्दा होने लगा। कभी तूफाने नूह में आसमान से बरसता और ज़मीन से उबलता पानी जिसने सिवाये चन्द अफ़राद और हैवान के सब कुछ ग़रक़ाब कर दिया था। हर तरफ पानी ही पानी था। कभी दरिया-ए-नील का मूसा को रास्ता देने का मन्ज़र और फिरऔन को ग़रक़ाब करने का वाक्आ। कभी उड़ीसा में सुनामी की तबाही का दर्दनाक मन्ज़र नामा, तो कभी तरक्की याफता मुल्क जापान में सुनामी के ज़रिये ऐटम बॉम की तबाही को याद दिलाने वाला तूफान, कभी उत्तराखण्ड में बादलों के फटने और कभी कश्मीर में भयानक सैलाब के मनाज़िर, कभी गंगा और जमुना के बेकाबू पानी से होने वाली तबाहियों का मन्ज़र...उसकी नज़रों के सामने कभी प्यास और कभी पानी...यके बाद दीगरे झमाकों की तरह आते रहे। पानी जो प्यास बुझाता है। लोगों के हलक, ज़मीन के गले, दरख्तों की जड़ों को सैराब करता है। क्या पानी को प्यास नहीं लगती? पानी कभी-कभी अपनी प्यास भी बुझाता है, हजारों अफ़राद को ग़रक़ाब करके और तबाही मचाकर पानी अपनी प्यास बुझाता है। सोचते-सोचते वह चौंक गया।
“क्या आज मेरी प्यास नहीं बुझेगी?”
वह भागता रहा। सुबह ने आँखें खोलनी शुरू कर दी थीं। शहर पर तनी रात, नींद और खामोशी की चादर जगह-जगह से फटने लगी थी...।
मंदिरों में भजन-कीर्तन और मस्जिद में अज़ानें बुलन्द हो रही थीं। अंधेरे उजाले में पंजाकशी हो रही थी। उजाले का पल्ला भारी पड़ रहा था। वह दौड़ता रहा। इस भाग-दौड़ में उसके चप्पल कब का उसका साथ छोड़ चुके थे। उसे इल्म नहीं था। उसे एक चाय की दुकान खुली हुई नज़र आई।
“पानी...पानी है भाई साहब...।”
“नहीं...नहीं...भाग यहाँ से। यहाँ चाय मिलती है पानी नहीं।”
“सुबह-सुबह परेशान करने आ गया। चल भाग।”
वह फिर भागने लगा...अब वह शहर के बाहर बहने वाली नदी की तरफ भाग रहा था। भागते-भागते वह कई जगह गिरा, चोट लगी, उठकर फिर भागने लगा। दूर नदी दिखाई दे रही थी। गिरते-पड़ते वह नदी तक पहुँच गया...मगर ये क्या नदी खुश्क थी। पानी का एक क़तरा भी नदी के दामन में नही था। वह फिर भी नदी के अंदर उतर गया। रेगज़ारों ने सुबह के वक्त पैर के तलवों में ठण्डक पहुचाई, ऐसा लगा गोया तलवों के खुलियों की प्यास को कुछ राहत मिली हो। यह राहत ऊँट के मुँह में जीरे के बराबर भी नहीं थी। वह वापस कदमों लौटा और शहर की तरफ भागने लगा। रास्ते में बहते हुए ग़लीज, बदबूदार, काले पानी के एक नाले ने उसके कदम रोक लिए। वह अपनी प्यास बुझाने को नाले में उतरना ही चाहता था कि नाले के गन्दे पानी की बदबू, नाक से जैसे ही हलके के अन्दर दाखिल हुई उसे ज़ोर की उबकाई आई और वह प्यासा ही वापस दौड़ लिया।
दौड़ते-दौड़ते वह शहर की शाहराह पर आ गया। अब दिन था सूरज का भरपूर साथ मिल गया था। दूर शाहराह की दूसरी जानिब, एक पानी का टैंकर खड़ा था उसकी उम्मीदों को पर लग गए। टैंकर में जरूर पानी होगा। उसने सोचा उम्मीद ने हौंसलों और हिम्मत को सहारा दिया।
उसने अपने नातवां जिस्म के रोएँ-रोएँ से ताक़त के बचे-कुचे जरासीम जमा किए और टैंकर की तरफ भागना शुरू किया। उसकी नज़रें टैंकर पर थी। हलक में प्यास के काँटे थे, दौड़ते-दौड़ते उसके हाथ-पैरों की जान निकली जा रही थी। टैंकर से कुछ क़ब्ल ही उसे ठोकर लगी और वह बड़ी मुश्किल से उठा उसके पैर उसका साथ छोड़ रहे थे।
किसी तरह घिसट-घिसट कर वह टैंकर के पास पहुँचा और उसके नल के नीचे गिर पड़ा।
टैंकर से अचानक पानी का फव्वारा जारी हुआ। पानी की तेज़ धार उसका बदन भिगो रही थी। उसके जिस्म को सैराब करने की कोशिश कर रही थी, जबकि उसकी प्यास ने उसकी रूह को पहले ही अबदी तौर पर सैराब कर दिया था।
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